Thursday, February 16, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १४ वाओव्या२६० ते ३१९






ज्ञानेश्वरी / अध्याय चौदावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या२६० ते ३१९

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ १६॥


येणेंचि पैं कारणें | जें निपजे सत्त्वगुणें |
तें सुकृत ऐसें म्हणे | श्रौत समो ॥ २६० ॥
  श्रौत समो=श्रुती वाक्य संकेत

म्हणौनि तया निर्मळा | सुखज्ञानी सरळा |
अपूर्व ये फळा | सात्त्विक तें ॥ २६१ ॥

मग राजसा जिया क्रिया | तया इंद्रावणी फळलिया |
जें सुखें चितारूनियां | फळती दुःखें ॥ २६२ ॥
इंद्रावणी= कडू वृंदावन फळ

कां निंबोळियेचें पिक | वरि गोड आंत विख |
तैसें तें राजस देख | क्रियाफळ ॥ २६३ ॥
विख=विष वाईट कडू या अर्थी

तामस कर्म जितुकें | अज्ञानफळेंचि पिके |
विषांकुर विखें | जियापरी ॥ २६४ ॥


सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १७॥


म्हणौनि बा रे अर्जुना | येथ सत्त्वचि हेतु ज्ञाना |
जैसा कां दिनमाना | सूर्य हा पैं ॥ २६५ ॥

आणि तैसेंचि हें जाण | लोभासि रज कारण |
आपुलें विस्मरण | अद्वैता जेवीं ॥ २६६ ॥

मोह अज्ञान प्रमादा | ययां मैळेया दोषवृंदा |
पुढती पुढती प्रबुद्धा | तमचि मूळ ॥ २६७ ॥
मैळेया=मिळून

ऐसें विचाराच्या डोळां | तिन्ही गुण हे वेगळवेगळां |
दाविले जैसा आंवळा | तळहातींचा ॥ २६८ ॥

तंव रजतमें दोन्हीं | देखिलीं प्रौढ पतनीं |
सत्त्वावांचूनि नाणीं | ज्ञानाकडे ॥ २६९ ॥

म्हणौनि सात्त्विक वृत्ती | एक जाले गा जन्मव्रती |
सर्वत्यागें चतुर्थी | भक्ति जैसी ॥ २७० ॥

चतुर्थी=ज्ञानी भक्ती

ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १८॥


तैसें सत्त्वाचेनि नटनाचें | असणें जाणें जयांचें |
ते तनुत्यागीं स्वर्गींचे | राय होती ॥ २७१ ॥
नटनाचें=लीलानृत्य, वाढ

इयाचि परी रजें | जिहीं कां जीजे मरिजे |
तिहीं मनुष्य होईजे | मृत्युलोकीं ॥ २७२ ॥

तेथ सुखदुःखाचें खिचटें | जेविजें एकेचि ताटें |
जेथ इये मरणवाटे | पडिलें नुठी ॥ २७३ ॥
खिचटें=खिचडी

आणि तयाचि स्थिति तमीं | जे वाढोनि निमती भोगक्षमीं |
ते घेती नरकभूमी | मूळपत्र ॥ २७४ ॥
मूळपत्र=सनद

एवं वस्तूचिया सत्ता | त्रिगुणासी पंडुसुता |
दाविली सकारणता | आघवीचि ॥ २७५ ॥
एवं=अश्यारितीने

पैं वस्तु वस्तुत्वें असिकें | तें आपणपें गुणासारिखें |
देखोनि कार्यविशेखें | अनुकरे गा ॥ २७६ ॥
असिकें=पूर्णत्वाने

जैसें कां स्वप्नींचेनि राजें | जैं परचक्र देखिजे |
तैं हारी जैत होईजे | आपणपांचि ॥ २७७ ॥

तैसे मध्योर्ध्व अध | हे जे गुणवृत्तिभेद |
ते दृष्टीवांचूनि शुद्ध | वस्तुचि असे ॥ २७८ ॥


नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टाऽनुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १९॥


परी हे वाहणी असो | तरी तुज आन न दिसो |
परिसें तें सांगतसों | मागील गोठी ॥ २७९ ॥
वाहणी=बोल ओघ

तरी ऐसें जाणिजे | सामर्थ्यें तिन्ही सहजें |
होती देहव्याजें | गुणचि हे ॥ २८० ॥

इंधनाचेनि आकारें | अग्नि जैसा अवतरे |
कां आंगवे तरुवरें | भूमिरसु ॥ २८१ ॥

नाना दहिंयाचेनि मिसें | परिणमे दूधचि जैसें |
कां मूर्त होय ऊंसें | गोडी जेवीं ॥ २८२ ॥

तैसें हे स्वांतःकरण | देहचि होती त्रिगुण |
म्हणौनि बंधासि कारण | घडे कीर ॥ २८३ ॥
स्वांतःकरण=अंतकरणासहित

परी चोज हें धनुर्धरा | जे एवढा हा गुंफिरा |
मोक्षाचा संसारा | उणा नोहे ॥ २८४ ॥
चोज=नवल   गुंफिरा=घोटाळा गुंता
मोक्षाचा संसारा=नित्य मुक्तपण

त्रिगुण आपुलालेनि धर्में | देहींचे माघुत साउमें |
चाळितांही न खोमें | गुणातीतता ॥ २८५ ॥

माघुत साउमें=मागे पुढे   खोमें=खळ पडणे कमी पडणे

ऐसी मुक्ति असे सहज | ते आतां परिसऊं तुज |
जे तूं ज्ञानांबुज- | द्विरेफु कीं ॥ २८६ ॥
द्विरेफु=भुंगा

आणि गुणीं गुणाजोगें | चैतन्य नोहे मागें |
बोलिलों तें खागें | तेवींचि हें ॥ २८७ ॥

खागें=स्थान ठिकाण

तरी पार्था जैं ऐसें | बोधलेनि जीवें दिसे |
स्वप्न कां जैसें | चेइलेनी ॥ २८८ ॥

नातरी आपण जळीं | बिंबलों तीरोनी न्याहळी |
चळण होतां कल्लोळीं | अनेकधा ॥ २८९ ॥

कां नटलेनि लाघवें | नटु जैसा न झकवे |
तैसें गुणजात देखावें | न होनियां ॥ २९० ॥

लाघवें=कौशल्य  झकवे=फसणे

पैं ऋतुत्रय आकाशें | धरूनियांही जैसें |
नेदिजेचि येवों वोसें | वेगळेपणा ॥ २९१ ॥ =

वोसें=उणेपण

तैसें गुणीं गुणापरौतें | जें आपणपें असे आयितें |
तिये अहं बैसे अहंतें | मूळकेचिये ॥ २९२ ॥

मूळकेचिये=मी आत्मा आहे ही जाणीव

तैं तेथूनि मग पाहतां | म्हणे साक्षी मी अकर्ता |
हे गुणचि क्रियाजातां | नियोजित ॥ २९३ ॥


सत्त्वरजतमांचा | भेदीं पसरु कर्माचा |
होत असे तो गुणांचा | विकारु हा ॥ २९४ ॥

ययामाजीं मी ऐसा | वनीं कां वसंतु जैसा |
वनलक्ष्मीविलासा | हेतुभूत ॥ २९५ ॥

कां तारांगणीं लोपावें | सूर्यकांतीं उद्दीपावें |
कमळीं विकासावें | जावें तमें ॥ २९६ ॥

ये कोणाचीं काजें कहीं | सवितिया जैसी नाहीं |
तैसा अकर्ता मी देहीं | सत्तारूप ॥ २९७ ॥

मी दाऊनि गुण देखे | गुणता हे मियां पोखे |
ययाचेनि निःशेखें | उरे तें मी ॥ २९८ ॥

ऐसेनि विवेकें जया | उदो होय धनंजया |
ये गुणातीतत्व तया | अर्थपंथें ॥ २९९ ॥

अर्थपंथें=ज्ञान मार्गे

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २०॥


आतां निर्गुण असे आणिक | तें तो जाणें अचुक |
जे ज्ञानें केलें टीक | तयाचिवरी ॥ ३०० ॥

टीक=टिळा

किंबहुना पंडुसुता | ऐसी तो माझी सत्ता |
पावे जैसी सरिता | सिंधुत्व गा ॥ ३०१ ॥

नळिकेवरूनि उठिला | जैसा शुक शाखे बैसला |
तैसा मूळ अहंतें वेढिला | तो मी म्हणौनि ॥ ३०२ ॥

मूळ अहंतें =ब्राम्हस्मी

अगा अज्ञानाचिया निदा | जो घोरत होता बदबदा |
तो स्वस्वरूपीं प्रबुद्धा | चेइला कीं ॥ ३०३ ॥

पैं बुद्धिभेदाचा आरिसा | तया हातोनि पडिला वीरेशा |
म्हणौनि प्रतिमुखाभासा | मुकला तो ॥ ३०४ ॥

देहाभिमानाचा वारा | आतां वाजो ठेला वीरा |
तैं ऐक्य वीचिसागरां | जीवेशां हें ॥ ३०५ ॥

वीचि=लाटा तरंग

म्हणौनि मद्भावेंसी | प्राप्ति पाविजे तेणेंसरिसी |
वर्षांतीं आकाशीं | घनजात जेवीं ॥ ३०६ ॥

तेवीं मी होऊनि निरुता | मग देहींचि ये असतां |
नागवे देहसंभूतां | गुणांसि तो ॥ ३०७ ॥

निरुता=निश्चित   नागवे=सापडणे अडकणे

जैसा भिंगाचेनि घरें | दीपप्रकाशु नावरे |
कां न विझेचि सागरें | वडवानळु ॥ ३०८ ॥

 भिंगाचेनि=अभ्रक

तैसा आला गेला गुणांचा | बोधु न मैळे तयाचा |
तो देहीं जैसा व्योमींचा | चंद्र जळीं ॥ ३०९ ॥

तिन्ही गुण आपुलालिये प्रौढी | देहीं नाचविती बागडीं |
तो पाहोंही न धाडी | अहंतेतें ॥ ३१० ॥

बागडीं=चेष्टेने  पाहोंही न धाडी=पाहण्यास धाडत नाही

हा ठायवरी | नेहटोनि ठेला अंतरीं |
आतां काय वर्ते शरीरीं | हेंहीं नेणे ॥ ३११ ॥

ठायवरी=येथवर नेहटोनि=निश्चय केला

सांडुनि आंगींची खोळी | सर्प रिगालिया पाताळीं |
ते त्वचा कोण सांभाळी | तैसें जालें ॥ ३१२ ॥

कां सौरभ्य जीर्णु जैसा | आमोदु मिळोनि जाय आकाशा |
माघारा कमळकोशा | नयेचि तो ॥ ३१३ ॥

पैं स्वरूपसमरसें | ऐक्य गा जालें तैसें |
तेथ किं धर्म हें कैसें | नेणें देह ॥ ३१४ ॥

म्हणौनि जन्मजरामरण | इत्यादि जे साही गुण |
ते देहींचि ठेले कारण | नाहीं तया ॥ ३१५ ॥

घटाचिया खापरिया | घटभंगीं फेडिलिया |
महदाकाश अपैसया | जालेंचि असे ॥ ३१६ ॥

तैसी देहबुद्धी जाये | जैं आपणपां आठौ होय |
तैं आन कांहीं आहे | तेंवांचुनी ? ॥ ३१७ ॥

आठौ=आठवण

येणें थोर बोधलेपणें | तयासि गा देहीं असणें |
म्हणूनि तो मी म्हणें | गुणातीत ॥ ३१८ ॥

यया देवाचिया बोला | पार्थु अति सुखावला |
मेघें संबोखिला | मोरु जैसा ॥ ३१९ ॥



by dr. vikrant tikone