ज्ञानेश्वरी / अध्याय चौदावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १७४ ते २५९
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ ८॥
व्यवहाराचेहि डोळे | मंद जेणें पडळें |
मोहरात्रीचें काळें | मेहुडें जें ॥ १७४ ॥
पडळें=पडदा मेहुडें=मेघ
अज्ञानाचें जियालें | जया एका लागलें |
जेणें विश्व भुललें | नाचत असे ॥ १७५ ॥
जियालें=जीवन
अविवेकमहामंत्र | जें मौढ्यमद्याचें पात्र |
हें असो मोहनास्त्र | जीवांसि जें ॥ १७६ ॥
मौढ्य=मूढता
पार्था तें गा तम | रचूनि ऐसें वर्म |
चौखुरी देहात्म- | मानियातें ॥ १७७ ॥
चौखुरी=ताणून बांधून देहात्म=देह हाच आत्मा
हें एकचि कीर शरीरीं | माजों लागे चराचरीं |
आणि तेथ दुसरी | गोठी नाहीं ॥ १७८ ॥
सर्वेंद्रिया जाड्य | मनामाजीं मौढ्य |
माल्हाती जे दाढ्र्य | आलस्याचेंं ॥ १७९ ॥
माल्हाती=आश्रय घेणे दाढ्र्य=दृढ पणे
आंगें आंग मोडामोडी | कार्यजाती अनावडी |
नुसती परवडी | जांभयांची ॥ १८० ॥
परवडी=भर ,खूप मात्रा
उघडियाची दिठी | देखणें नाहीं किरीटी |
नाळवितांचि उठी | वो म्हणौनि ॥ १८१ ॥
नाळवितांचि=बोलावल्या विंना ना
पडलिये धोंडी | नेणे कानी मुरडी |
तयाचि परी मुरकुंडी | उकलूं नेणें ॥ १८२ ॥
कानी मुरडी
=कुशीवर वळणे मुरकुंडी=देहाचे गाठोडे
पृथ्वी पाताळीं जांवो | कां आकाशही वरी येवो |
परी उठणें हा भावो | उपजों नेणें ॥ १८३ ॥
उचितानुचित आघवें | झांसुरता नाठवे जीवें |
जेथींचा तेथ लोळावें | ऐसी मेधा ॥ १८४ ॥
झांसुरता=आळसावून पडणे
उभऊनि करतळें | पडिघाये कपोळें |
पायाचें शिरियाळें | मांडूं लागे ॥ १८५ ॥
पडिघाये कपोळें=गाल धरून बसतो
शिरियाळें=गुडघे मांडूं लागे=आवळून धरतो
(गुडघ्यात पाय घालून झोपतो)
आणि निद्रेविषयीं चांगु | जीवीं आथि लागु |
झोंपीं जातां स्वर्गु | वावो म्हणे ॥ १८६ ॥
ब्रह्मायु होईजे | मा निजलेयाचि असिजे |
हें वांचूनि दुजें | व्यसन नाहीं ॥ १८७ ॥
कां वाटें जातां वोघें | कल्हातांही डोळा लागे |
अमृतही परी नेघे | जरी नीद आली ॥ १८८ ॥
वोघें=सहज कल्हातांही=कलंडता
तेवींचि आक्रोशबळें | व्यापारे कोणे एके वेळे |
निगालें तरी आंधळें | रोषें जैसें ॥ १८९ ॥
आक्रोशबळें=जबरदस्तीने
केधवां कैसे राहाटावें | कोणेसीं काय बोलावें |
हें ठाकतें कीं नागवें | हेंही नेणें ॥ १९० ॥
हें ठाकतें कीं नागवें=साध्य असाध्य (जमेल का नाही)
वणवा मियां आघवा | पांखें पुसोनि घेयावा |
पतंगु पां हांवा | घाली जेवीं ॥ १९१ ॥
पुसोनि=विझवावा
तैसा वळघे साहसा | अकरणींच धिंवसा |
किंबहुना ऐसा | प्रमादु रुचे ॥ १९२ ॥
वळघे=प्रवृत्त होणे धिंवसा=धाडस इच्छा
एवं निद्रालस्यप्रमादीं | तम इया त्रिबंधीं |
बांधे निरुपाधी | चोखटातें ॥ १९३ ॥
जैसा वन्ही काष्ठीं भरे | तैं दिसे काष्ठाकारें |
व्योम घटें आवरे | तें घटाकाश ॥ १९४ ॥
नाना सरोवर भरलें | तैं चंद्रत्व तेथें बिंबलें |
तैसें गुणाभासीं बांधलें | आत्मत्व गमे ॥ १९५ ॥
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥ ९॥
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ १०॥
पैं हरूनि कफवात | जैं देही आटोपे पित्त |
तैं करी संतप्त | देह जेवीं ॥ १९६ ॥
आटोपे=वाढणे व्यापणे
कां वरिष आतप जैसें | जिणौनि शीतचि दिसे |
तेव्हां होय हिंव ऐसें | आकाश हें ॥ १९७ ॥
आतप=उन्हाळा हिंव=थंडगार
नाना स्वप्न जागृती | लोपूनि ये सुषुप्ती |
तैं क्षणु एक चित्तवृत्ती | तेचि होय ॥ १९८ ॥
तैसीं रजतमें हारवी | जैं सत्त्व माजु मिरवी |
तैं जीवाकरवीं म्हणवी | सुखिया ना मी ? ॥ १९९ ॥
तैसेंचि सत्त्व रज | लोपूनि तमाचें भोज |
वळघें तैं सहज | प्रमादीं होय ॥ २०० ॥
वळघें=वाहवने
तयाचि गा परिपाठीं | सत्त्व तमातें पोटीं |
घालूनि जेव्हां उठी | रजोगुण ॥ २०१ ॥
तेव्हां कर्मावांचूनि कांहीं | आन गोमटें नाहीं |
ऐसें मानी देहीं | देहराजु ॥ २०२ ॥
त्रिगुण वृद्धि निरूपण | तीं श्लोकीं सांगितलें जाण |
आतां सत्त्वादि वृद्धिलक्षण | सादर परियेसीं ॥ २०३ ॥
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ ११॥
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२॥
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ १३॥
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते ॥ १४॥
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ १५॥
पैं रजतमविजयें | सत्त्व गा देहीं इयें |
वाढतां चिन्हें तियें | ऐसीं होती ॥ २०४ ॥
जे प्रज्ञा आंतुलीकडे | न समाती बाहेरी वोसंडें |
वसंतीं पद्मखंडें | दृती जैसी ॥ २०५ ॥
दृती=सुगंध
सर्वेंद्रियांच्या आंगणीं | विवेक करी राबणी |
साचचि करचरणीं | होती डोळे ॥ २०६ ॥
राबणी=चाकरी सेवा
राजहंसापुढें | चांचूचें आगरडें |
तोडी जेवीं झगडे | क्षीरनीराचे ॥ २०७ ॥
आगरडें= टोक झगडे=इथे फरक भेद
तेवीं दोषादोषविवेकीं | इंद्रियेंचि होती पारखीं |
नियमु बा रे पायिकी | वोळगे तैं ॥ २०८ ॥
पायिकी=पाइकी ,नोकरी वोळगे=सेवा करणे
नाइकणें तें कानचि वाळी | न पहाणें तें दिठीचि गाळी |
अवाच्य तें टाळी | जीभचि गा ॥ २०९ ॥
वाती पुढां जैसें | पळों लागे काळवसें |
निषिद्ध इंद्रियां तैसें | समोर नोहे ॥ २१० ॥
वाती =सूर्य दिवा काळवसें=अंधार
धाराधरकाळें | महानदी उचंबळे |
तैसी बुद्धि पघळे | शास्त्रजातीं ॥ २११ ॥
धाराधरकाळें=पावसाळा पघळे=स्थिरावे
अगा पुनवेच्या दिवशीं | चंद्रप्रभा धांवें आकाशीं |
ज्ञानीं वृत्ति तैसी | फांके सैंघ ॥ २१२ ॥
सैंघ=खूप,सर्वत्र
वासना एकवटे | प्रवृत्ति वोहटे |
मानस विटे | विषयांवरी ॥ २१३ ॥
एवं सत्त्व वाढे | तैं हें चिन्ह फुडें |
आणि निधनही घडे | तेव्हांचि जरी ॥ २१४ ॥
निधनही=त्या व्यक्तीस मरण येता
कां पाहालेनि सुयाणें | जालया परगुणें |
पडियंतें पाहुणें | स्वर्गौनियां ॥ २१५ ॥
सुयाणें=सुगी परगुणे
=पक्वान्न पडियंतें=आवडते
स्वर्गौनियां=स्वर्गाहून
तरी जैसीचि घरींची संपत्ती | आणि तैसीचि औदार्यधैर्यवृत्ती |
मा परत्रा आणि कीर्ती | कां नोहावें ? ॥ २१६ ॥
मा= मग
मग गोमटेया तया | जावळी असे धनंजया |
तेवीं सत्त्वीं जाणे देहा | कें आथि गा ? ॥ २१७ ॥
गोमटेया =चांगले जावळी=सारखे, जोगे, जोड
जाणे देहा=मरण येता
जे स्वगुणीं उद्भट | घेऊनि सत्त्व चोखट |
निगे सांडूनि कोपट | भोगक्षम हें ॥ २१८ ॥
उद्भट=श्रेष्ठ कोपट
=झोपडी (इथे भोग क्षीण शरीर)
अवचटें ऐसा जो जाये | तो सत्त्वाचाचि नवा होये |
किंबहुना जन्म लाहे | ज्ञानियांमाजीं ॥ २१९ ॥
सांग पां धनुर्धरा | रावो रायपणें डोंगरा |
गेलिया अपुरा | होय काई ? ॥ २२० ॥
रायपणें=राजेपण घेवून
नातरी येथिंचा दिवा | नेलिया सेजिया गांवा |
तो तेथें तरी पांडवा | दीपचि कीं ॥ २२१ ॥
तैसी ते सत्त्वशुद्धी | आगळी ज्ञानेंसी वृद्धी |
तरंगावों लागें बुद्धी | विवेकावरी ॥ २२२ ॥
पैं महदादि परिपाठीं | विचारूनि शेवटीं |
विचारासकट पोटीं | जिरोनि जाय ॥ २२३ ॥
महदादि=महदादि तत्वे परिपाठीं=विचार करून
छत्तिसां सदतिसावें | चोविसां पंचविसावें |
तिन्ही नुरोनि स्वभावें | चतुर्थ जें ॥ २२४ ॥
छत्तिसां सदतिसावें = वेदांतातील ३६ त्न्वे
व३७ वे ब्रह्म
चोविसां पंचविसावें=सांख्य मत प्रमाणे
२५ व २६ वे ब्रह्म
तिन्ही=त्रिगुण
ऐसें सर्व जें सर्वोत्तम | जालें असे जया सुगम |
तयासवें निरुपम | लाहे देह ॥ २२५ ॥
लाहे=मिळतो
इयाचि परी देख | तमसत्त्व अधोमुख |
बैसोनि जैं आगळीक | धरी रज ॥ २२६ ॥
अधोमुख =निस्तेज आगळीक =मोठेपण वाढ
आपलिया कार्याचा | धुमाड गांवीं देहाचा |
माजवी तैं चिन्हांचा | उदयो ऐसा ॥ २२७ ॥
धुमाड=धुमाकूळ
पांजरली वाहुटळी | करी वेगळ वेंटाळी |
तैसी विषयीं सरळी | इंद्रियां होय ॥ २२८ ॥
पांजरली=पसरली वेंटाळी=एकत्र
सरळी=मोकळीक
परदारादि पडे | परी विरुद्ध ऐसें नावडे |
मग शेळियेचेनि तोंडें | सैंघ चारी ॥ २२९ ॥
सैंघ=पुष्कळ यथेच्छ
हा ठायवरी लोभु | करी स्वैरत्वाचा राबु |
वेंटाळितां अलाभु | तें तें उरे ॥ २३० ॥
राबु=राबवणे वागणे
ठायवरी=अमर्याद अलाभु तें=मिळणे शक्य नाही ते
आणि आड पडलिया | उद्यमजाती भलतिया |
प्रवृत्ती धनंजया | हातु न काढी ॥ २३१ ॥
आड पडलिया=चुकून
त्या धंद्यात पडला तरी वा
चुकून समोर आले तरी
प्रवृत्ती=कामाची आवड
तेवींचि एखादा प्रासादु | कां करावा अश्वमेधु |
ऐसा अचाट छंदु | घेऊनि उठी ॥ २३२ ॥
नगरेंचि रचावीं | जळाशयें निर्मावीं |
महावनें लावावीं | नानाविधें ॥ २३३ ॥
ऐसैसां अफाटीं कर्मीं | समारंभु उपक्रमीं |
आणि दृष्टादृष्ट कामीं | पुरे न म्हणे ॥ २३४ ॥
दृष्टादृष्ट=इहपर लोक
सागरुही सांडीं पडे | आगी न लाहे तीन कवडे |
ऐसें अभिलषीं जोडे | दुर्भरत्व ॥ २३५ ॥
सांडीं पडे= हरतो न लाहे=न मिळणे (एवढी किंमत)
दुर्भरत्व= अवघड
स्पृहा मना पुढां पुढां | आशेचा घे दवडा |
विश्व घापे चाडा | पायांतळीं ॥ २३६ ॥
स्पृहा=हाव दवडा=धाव घापे=घालणे
इत्यादि वाढतां रजीं | इयें चिन्हें होतीं साजीं |
आणि ऐशा समाजीं | वेंचे जरी देह ॥ २३७ ॥
तरी आघवाचि इहीं | परिवारला आनी देहीं |
रिगे परी योनिही | मानुषीचि ॥ २३८ ॥
परिवारला=घर करतो
सुरवाडेंसिं भिकारी | वसो पां राजमंदिरीं |
तरी काय अवधारीं | रावो होईल ? ॥ २३९ ॥
सुरवाडेंसिं=सुखाने
अनुकुलतेने
बैल तेथें करबाडें | हें न चुके गा फुडें |
नेईजो कां वऱ्हाडें | समर्थाचेनी ॥ २४० ॥
म्हणौनि व्यापारा हातीं | उसंतु दिहा ना राती |
तैसयाचिये पांती | जुंपिजे तो ॥ २४१ ॥
कर्मजडाच्या ठायीं | किंबहुना होय देहीं |
जो रजोवृत्तीच्या डोहीं | बुडोनि निमे ॥ २४२ ॥
मग तैसाचि पुढती | रजसत्त्ववृत्ती |
गिळूनि ये उन्नती | तमोगुण ॥ २४३ ॥
उन्नती=वाढणे वर येणे
तैंचि जियें लिंगें | देहींचीं सबाह्य सांगें |
तियें परिस चांगें | श्रोत्रबळें ॥ २४४ ॥
लिंगें=चिन्हे
तरी होय ऐसें मन | जैसें रविचंद्रहीन |
रात्रींचें कां गगन | अंवसेचिये ॥ २४५ ॥
तैसें अंतर असोस | होय स्फूर्तिहीन उद्वस |
विचाराची भाष | हारपे तैं ॥ २४६ ॥
असोस= पूर्णत: उद्वस=रिते
बुद्धि मेचवेना धोंडीं | हा ठायवरी मवाळें सांडी |
आठवो देशधडी | जाला दिसे ॥ २४७ ॥
मेचवेना=मोजता ना येणे मवाळें=मवाळता मार्दव
आठवो=स्मरण
अविवेकाचेनि माजें | सबाह्य शरीर गाजे |
एकलेनि घेपे दीजे | मौढ्य तेथ ॥ २४८ ॥
एकलेनि घेपे दीजे | मौढ्य तेथ ॥ २४८ ॥
मौढ्य=मूढता
आचारभंगाचीं हाडें | रुपतीं इंद्रियांपुढें |
मरे जरी तेणेंकडे | क्रिया जाय ॥ २४९ ॥
पैं आणिकही एक दिसे | जे दुष्कृतीं चित्त उल्हासे |
आंधारी देखणें जैसें | डुडुळाचें ॥ २५० ॥
डुडुळाचें=घुबड
तैसें निषिद्धाचेनि नांवें | भलतेंही भरे हावे |
तियेविषयीं धांवे | घेती करणें ॥ २५१ ॥
करणें=इंद्रिये
मदिरा न घेतां डुले | सन्निपातेंवीण बरळे |
निष्प्रेमेंचि भुले | पिसें जैसें ॥ २५२ ॥
सन्निपातेंवीण=ताप (विषमज्वर) पिसें=वेडा
चित्त तरी गेलें आहे | परी उन्मनी ते नोहे |
ऐसें माल्हातिजे मोहें | माजिरेनि ॥ २५३ ॥
उन्मनी=समाधी माल्हातिजे=वश,अंगीकार करणे
माजिरेनि= मद्य, मादक
पदार्थ
किंबहुना ऐसैसीं | इयें चिन्हें तम पोषीं |
जैं वाढे आयितीसी | आपुलिया ॥ २५४ ॥
आयितीसी= सहजपणे
(साधनसामुग्रीने )
आणि हेंचि होय प्रसंगें | मरणाचें जरी पडे खागें |
तरी तेतुलेनि निगे | तमेंसीं तो ॥ २५५ ॥
खागें=खाद्य भक्ष्य
राई राईपण बीजीं | सांठवूनियां अंग त्यजी |
मग विरूढे तैं दुजी | गोठी आहे ? ॥ २५६ ॥
पैं होऊनि दीपकलिका | येरु आगी विझो कां |
कां जेथ लागे तेथ असका | तोचि आहे ॥ २५७ ॥
असका=पूर्णत:
म्हणौनि तमाचिये लोथें | बांधोनियां संकल्पातें |
देह जाय तैं मागौतें | तमाचेचि होय ॥ २५८ ॥
लोथें=पोते
आतां काय येणें बहुवे | जो तमोवृद्धि मृत्यु लाहे |
तो पशु कां पक्षी होये | झाड कां कृमी ॥ २५९ ॥
by dr. vikrant tikone