Saturday, April 29, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा, ओव्या १ते ७१ संत ज्ञानेश्वर



ज्ञानेश्वरी /अध्याय पंधरावा /संत ज्ञानेश्वर

 पुरुषोत्तम योग

॥ ॐ श्री परमात्मने नमः ॥
॥ अथ श्रीमद्भगवद्गीता ॥
। अथ पञ्चदशोऽध्यायः - अध्याय पंधरावा |
। पुरुषोत्तमयोगः।

आतां हृदय हें आपुलें | चौफाळुनियां भलें |
वरी बैसऊं पाउलें | श्रीगुरूंचीं ॥ १ ॥
चौफाळुनियां=चौरंग करून

ऐक्यभावाची अंजुळी | सर्वेंद्रिय कुड्मुळी |
भरूनियां पुष्पांजुळी | अर्घ्यु देवों ॥ २ ॥
कुड्मुळी=कमळ कळ्या

अनन्योदकें धुवट | वासना जे तन्निष्ठ |
ते लागलेसे अबोट | चंदनाचें ॥ ३ ॥
तन्निष्ठ=त्याच्याविषयीच्या

प्रेमाचेनि भांगारें | निर्वाळूनि नूपरें |
लेवऊं सुकुमारें | पदें तियें ॥ ४ ॥
भांगारें=सोने

घणावली आवडी | अव्यभिचारें चोखडी |
तिये घालूं जोडी | आंगोळिया ॥ ५ ॥

आनंदामोदबहळ | सात्त्विकाचें मुकुळ |
तें उमललें अष्टदळ | ठेऊं वरी ॥ ६ ॥
बहळ=विपुल

तेथे अहं हा धूप जाळूं | नाहं तेजें वोवाळूं |
सामरस्यें पोटाळूं | निरंतर ॥ ७ ॥

माझी तनु आणि प्राण | इया दोनी पाउवा लेऊं श्रीगुरुचरण |
करूं भोगमोक्ष निंबलोण | पायां तयां ॥ ८ ॥

इया श्रीगुरुचरणसेवा | हों पात्र तया दैवा |
जे सकळार्थमेळावा | पाटु बांधे ॥ ९ ॥
सकळार्थमेळावा=धर्म अर्थ काम मोक्ष
पाटु बांधे=राज्यभिषेक करणे  

ब्रह्मींचें विसवणेंवरी | उन्मेख लाहे उजरी |
जें वाचेतें इयें करी | सुधासिंधु ॥ १० ॥

विसवणेंवरी=विश्रांती स्थान; उन्मेख =ज्ञान
लाहे =मिळणे; उजरी=उत्कर्ष; सुधा=अमृत

पूर्णचंद्राचिया कोडी | वक्तृत्वा घापें कुरोंडी |
तैसी आणी गोडी | अक्षरांतें ॥ ११ ॥

कुरोंडी=ओवाळणी

सूर्यें अधिष्ठिली प्राची | जगा राणीव दे प्रकाशाची |
तैशी वाचा श्रोतयां ज्ञानाची | दिवाळी करी ॥ १२ ॥

राणीव=राज्यपद

नादब्रह्म खुजें | कैवल्यही तैसें न सजे |
ऐसा बोलु देखिजे | जेणें दैवें ॥ १३ ॥

श्रवणसुखाच्या मांडवीं | विश्व भोगी माधवीं |
तैसी सासिन्नली बरवी | वाचावल्ली ॥ १४ ॥

ठावो न पवता जयाचा | मनेंसी मुरडली वाचा |
तो देवो होय शब्दाचा | चमत्कारु ॥ १५ ॥

जें ज्ञानासि न चोजवे | ध्यानासिही जें नागवे |
तें अगोचर फावे | गोठीमाजीं ॥ १६ ॥

चोजवे=कळणे

येवढें एक सौभग | वळघे वाचेचें आंग |
श्रीगुरुपादपद्मपराग | लाहे जैं कां ॥ १७ ॥

सौभग =भाग्य; वळघे=आश्रय करणे

तरी बहु बोलूं काई | आजि तें आनीं ठाईं |
मातेंवाचूनि नाहीं | ज्ञानदेवो म्हणे ॥ १८ ॥

जे तान्हेनि मियां अपत्यें | आणि माझे गुरु एकलौतें |
म्हणौनि कृपेंसि एकहातें | जालें तिये ॥ १९ ॥

पाहा पां भरोवरी आघवी | मेघ चातकांसी रिचवी |
मजलागीं गोसावी | तैसें केलें ॥ २० ॥

भरोवरी=भरलेले

म्हणौनि रिकामें तोंड | करूं गेलें बडबड |
कीं गीता ऐसें गोड | आतुडलें ॥ २१ ॥

होय अदृष्ट आपैतें | तैं वाळूचि रत्‌नें परते |
उजू आयुष्य तैं मारितें | लोभु करी ॥ २२ ॥

अदृष्ट =भाग्य  आपैतें=आपले;अनुकूल

आधणीं घातलिया हरळ | होती अमृताचे तांदुळ |
जरी भुकेची राखे वेळ | श्रीजगन्नाथु ॥ २३ ॥

तयापरी श्रीगुरु | करिती जैं अंगीकारु |
तैं होऊनि ठाके संसारु | मोक्षमय आघवा ॥ २४ ॥

पाहा पां श्रीनारायणें | तया पांडवांचें उणें |
कीजेचि ना पुराणें | विश्ववंद्यें ॥ २५ ॥

तैसें श्रीनिवृत्तिराजें | अज्ञानपण हें माझें |
आणिलें वोजें | ज्ञानाचिया ॥ २६ ॥

वोजें=योग्यता

परी हें असो आतां | प्रेम रुळतसे बोलतां |
कें गुरुगौरव वर्णितां | उन्मेष असे ? ॥ २७ ॥

उन्मेष=उत्साह

आतां तेणेंचि पसायें | तुम्हां संताचे मी पायें |
वोळगेन अभिप्रायें | गीतेचेनि ॥ २८ ॥

वोळगेन=सेवा करीन

तरी तोचि प्रस्तुतीं | चौदाविया अध्यायाच्या अंतीं |
निर्णयो कैवल्यपती | ऐसा केला ॥ २९ ॥

जें ज्ञान जयाच्या हातीं | तोचि समर्थु मुक्ति |
जैसा शतमख संपत्ती | स्वर्गींचिये ॥ ३० ॥

शतमख=इंद्रदेव

कां शत एक जन्मां | जो जन्मोनि ब्रह्मकर्मा |
करी तोचि ब्रह्मा | आनु नोहे ॥ ३१ ॥

नाना सूर्याचा प्रकाशु | लाहे जेवीं डोळसु |
तेवीं ज्ञानेंचि सौरसु | मोक्षाचा तो ॥ ३२ ॥

तरी तया ज्ञानालागीं | कवणा पां योग्यता आंगीं |
हें पाहतां जगीं | देखिला एकु ॥ ३३ ॥

जें पाताळींचेंही निधान | दावील कीर अंजन |
परी होआवे लोचन | पायाळाचे ॥ ३४ ॥

तैसें मोक्ष देईल ज्ञान | येथें कीर नाहीं आन |
परी तेंचि थारे ऐसें मन | शुद्ध होआवें ॥ ३५ ॥

तरी विरक्तीवांचूनि कहीं | ज्ञानासि तगणेंचि नाहीं |
हें विचारूनि ठाईं | ठेविलें देवें ॥ ३६ ॥

आतां विरक्तीची कवण परी | जे येऊनि मनातें वरी |
हेंही सर्वज्ञें श्रीहरी | देखिलें असे ॥ ३७ ॥

जे विषें रांधिली रससोये | जैं जेवणारा ठाउवी होये |
तैं तो ताटचि सांडूनि जाये | जयापरी ॥ ३८ ॥

तैसी संसारा या समस्ता | जाणिजे जैं अनित्यता |
तैं वैराग्य दवडितां | पाठी लागे ॥ ३९ ॥

आतां अनित्यत्व या कैसें | तेंचि वृक्षाकारमिषें |
सांगिजत असे विश्वेशें | पंचदशीं ॥ ४० ॥

उपडिलें कवतिकें | झाड येरि मोहरा ठाके |
तें वेगें जैसें सुके | तैसें हें नोहे ॥ ४१ ॥

यातें एकेपरी | रूपकाचिया कुसरी |
सारीतसे वारी | संसाराची ॥ ४२ ॥

करूनि संसार वावो | स्वरूपीं अहंते ठावो |
होआवया अध्यावो | पंधरावा हा ॥ ४३ ॥

आतां हेंचि आघवें | ग्रंथगर्भींचें चांगावें |
उपलविजेल जीवें | आकर्णिजे ॥ ४४ ॥

तरी महानंद समुद्र | जो पूर्ण पूर्णीमा चंद्र |
तो द्वारकेचा नरेंद्र | ऐसें म्हणे ॥ ४५ ॥

अगा पैं पंडुकुमरा | येतां स्वरूपाचिया घरा |
करीतसे आडवारा | विश्वाभासु जो ॥ ४६ ॥

आडवारा=अडथळा

तो हा जगडंबरु | नोहे येथ संसारु |
हा जाणिजे महातरु | थांवला असे ॥ ४७ ॥

थांवला=बळावला

परी येरां रुखांसारिखा | हा तळीं मूळें वरी शाखा |
तैसा नोहे म्हणौनि लेखा | नयेचि कवणा ॥ ४८ ॥

लेखा=मोजमाप

आगी कां कुऱ्हाडी | होय रिगावा जरी बुडीं |
तरी हो कां भलतेवढी | वरिचील वाढी ॥ ४९ ॥

जे तुटलिया मूळापाशीं | उलंडेल कां शाखांशीं |
परी तैशी गोठी कायशी | हा सोपा नव्हे ॥ ५० ॥

अर्जुना हें कवतिक | सांगतां असे अलौकिक |
जे वाढी अधोमुख | रुखा यया ॥ ५१ ॥

जैसा भानू उंची नेणों कें | रश्मिजाळ तळीं फांके |
संसार हें कावरुखें | झाड तैसें ॥ ५२ ॥

कावरुखें=विचित्र क्षणभंगुर

आणि आथी नाथी तितुकें | रुंधलें असे येणेंचि एकें |
कल्पांतींचेनि उदकें | व्योम जैसें ॥ ५३ ॥

कां रवीच्या अस्तमानीं | आंधारेनि कोंदे रजनी |
तैसा हाचि गगनीं | मांडला असे ॥ ५४ ॥

यया फळ ना चुंबितां | फूल ना तुरंबितां |
जें कांहीं पंडुसुता | तें रुखुचि हा ॥ ५५ ॥

हा ऊर्ध्वमूळ आहे | परी उन्मूळिला नोहे |
येणेंचि हा होये | शाड्वळु गा ॥ ५६ ॥

शाड्वळु=हिरवा

आणि ऊर्ध्वमूळ ऐसें | निगदिलें कीर असे |
परी अधींही असोसें | मूळें यया ॥ ५७ ॥

निगदिलें=सांगितले अधींही =खाली असोसें=पुष्कळ

प्रबळला चौमेरी | पिंपळा कां वडाचिया परी |
जे पारंबियांमाझारीं | डहाळिया असती ॥ ५८ ॥

चौमेरी=चारीबाजूस

तेवींचि गा धनंजया | संसारतरु यया |
अधींचि आथी खांदिया | हेंही नाहीं ॥ ५९ ॥

तरी ऊर्ध्वाहीकडे | शाखांचे मांदोडे |
दिसताति अपाडें | सासिन्नलें ॥ ६० ॥

मांदोडे=समुदाय

जालें गगनचि पां वेलिये | कां वारा मांडला रुखाचेनि आयें |
नाना अवस्थात्रयें | उदयला असे ॥ ६१ ॥

आयें=विस्तार

ऐसा हा एकु | विश्वाकार विटंकु |
उदयला जाण रुखु | ऊर्ध्वमूळु ॥ ६२ ॥

विटंकु=घनदाट

आतां ऊर्ध्व या कवण | येथें मूळ तें किं लक्षण |
कां अधोमुखपण | शाखा कैसिया ॥ ६३ ॥

अथवा द्रुमा यया | अधीं जिया मूळिया |
तिया कोण कैसिया | ऊर्ध्व शाखा ॥ ६४ ॥

आणि अश्वत्थु हा ऐसी | प्रसिद्धी कायसी |
आत्मविदविलासीं | निर्णयो केला ॥ ६५ ॥

आत्मविदविलासीं=आत्मज्ञानी

हें आघवेंचि बरवें | तुझिये प्रतीतीसि फावे |
तैसेनि सांगों सोलिंवें | विन्यासें गा ॥ ६६ ॥

सोलिंवें =स्पष्ट  विन्यासें=विस्ताराने

परी ऐकें गा सुभगा | हा प्रसंगु असे तुजचि जोगा |
कानचि करीं हो सर्वांगा | हियें आथिलिया ॥ ६७ ॥

ऐसें प्रेमरसें सुरफुरें | बोलिलें जंव यादववीरें |
तंव अवधान अर्जुनाकारें | मूर्त जालें ॥ ६८ ॥

सुरफुरें=भरपूर

देव निरूपिती तें थेंकुलें | येवढें श्रोतेपण फांकलें |
जैसे आकाशा खेंव पसरिलें | दाही दिशीं ॥ ६९ ॥

थेंकुलें=लहान

श्रीकृष्णोक्तिसागरा | हा अगस्तीचि दुसरा |
म्हनौनि घोंटु भरों पाहे एकसरा | अवघेयाचा ॥ ७० ॥

ऐसी सोय सांडूनि खवळिली | आवडी अर्जुनीं देवें देखिली |
तेथ जालेनि सुखें केली | कुरवंडी तया ॥ ७१ ॥

सोय=मर्यादा आश्रय


by dr. vikrant tikone

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