ज्ञानेश्वरी / अध्याय
चौदावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ३६२ ते ४१५
(संपूर्ण )
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५॥
ईश्वर म्हणौनि पूजिला | कां चोरु म्हणौनि गांजिला |
वृषगजीं वेढिला | केला रावो ॥ ३६२ ॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५॥
ईश्वर म्हणौनि पूजिला | कां चोरु म्हणौनि गांजिला |
वृषगजीं वेढिला | केला रावो ॥ ३६२ ॥
कां सुहृद पासीं आले | अथवा वैरी वरपडे जाले |
परी नेणें राती पाहालें | तेज जेवीं ॥ ३६३ ॥
साहीं ऋतु येतां आकाशें | लिंपिजेचि ना जैसें |
तेवीं वैषम्य मानसें | जाणिजेना ॥ ३६४ ॥
आणीकही एकु पाहीं | आचारु तयाच्या ठायीं |
तरी व्यापारासि नाहीं | जालें दिसे ॥ ३६५ ॥
सर्वांरंभा उटकलें | प्रवृत्तीचें तेथ मावळले |
जळती गा कर्मफळें | ते तो आगी ॥ ३६६ ॥
उटकलें=दूर केले
दृष्टादृष्टाचेनि नांवें | भावोचि जीवीं नुगवें |
सेवी जें कां स्वभावें | पैठें होये ॥ ३६७ ॥
पैठें=वस्ती ,प्राप्त
सुखे ना शिणे | पाषाणु कां जेणें मानें |
तैसी सांडीमांडी मनें | वर्जिली असे ॥ ३६८ ॥
आतां किती हा विस्तारु | जाणें ऐसा आचारु |
जयातें तोचि साचारु | गुणातीतु ॥ ३६९ ॥
गुणांतें अतिक्रमणें | घडे उपायें जेणें |
तो आतां आईक म्हणे | श्रीकृष्णनाथु ॥ ३७० ॥
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६॥
तरी व्यभिचाररहित चित्तें | भक्तियोगें मातें |
सेवी तो गुणातें | जाकळूं शके ॥ ३७१ ॥
जाकळूं=जिंकणे
तरी कोण मी कैसी भक्ती | अव्यभिचारा काय व्यक्ती |
हे आघवीचि निरुती | होआवी लागे ॥ ३७२ ॥
व्यक्ती =चिन्हे निरुती=स्पष्टता
तरी पार्था परियेसा | मी तंव येथ ऐसा |
रत्नीं किळावो जैसा | रत्नचि कीं तो ॥ ३७३ ॥
कां द्रवपणचि नीर | अवकाशचि अंबर |
गोडी तेचि साखर | आन नाहीं ॥ ३७४ ॥
वन्हि तेचि ज्वाळ | दळाचि नांव कमळ |
रूख तेंचि डाळ- | फळादिक ॥ ३७५ ॥
अगा हिम जें आकर्षलें | तेंचि हिमवंत जेवीं जालें |
नाना दूध मुरालें | तेंचि दहीं ॥ ३७६ ॥
तैसें विश्व येणें नांवें | हें मीचि पैं आघवें |
घेईं चंद्रबिंब सोलावें | न लगे जेवीं ॥ ३७७ ॥
घृताचें थिजलेंपण | न मोडितां घृतचि जाण |
कां नाटितां कांकण | सोनेंचि तें ॥ ३७८ ॥
न उकलितां पटु | तंतुचि असे स्पष्टु |
न विरवितां घटु | मृत्तिका जेवीं ॥ ३७९ ॥
म्हणौनि विश्वपण जावें | मग तैं मातें घेयावें |
तैसा नव्हे आघवें | सकटचि मी ॥ ३८० ॥
ऐसेनि मातें जाणिजे | ते अव्यभिचारी भक्ति म्हणिजे |
येथ भेदु कांहीं देखिजे | तरी व्यभिचारु तो ॥ ३८१ ॥
याकारणें भेदातें | सांडूनि अभेदें चित्तें |
आपण सकट मातें | जाणावें गा ॥ ३८२ ॥
पार्था सोनयाची टिका | सोनयासी लागली देखा |
तैसें आपणपें आणिका | मानावें ना ॥ ३८३ ॥
तेजाचा तेजौनि निघाला | परी तेजींचि असे लागला |
तया रश्मी ऐसा भला | बोधु होआवा ॥ ३८४ ॥
तेजाचा=तेज असलेला तेजौनि=तेजापासून सूर्य रश्मी =किरण
पैं परमाणु भूतळीं | हिमकणु हिमाचळीं |
मजमाजीं न्याहाळीं | अहं तैसें ॥ ३८५ ॥
हो कां तरंगु लहानु | परी सिंधूसी नाहीं भिन्नु |
तैसा ईश्वरीं मी आनु | नोहेचि गा ॥ ३८६ ॥
ऐसेनि बा समरसें | दृष्टि जे उल्हासे |
ते भक्ति पैं ऐसे | आम्ही म्हणों ॥ ३८७ ॥
आणि ज्ञानाचें चांगावें | इयेचि दृष्टि नांवें |
योगाचेंही आघवें | सर्वस्व हें ॥ ३८८ ॥
चांगावें=सार
सिंधू आणि जळधरा- | माजीं लागली अखंड धारा |
तैसी वृत्ति वीरा | प्रवर्ते ते ॥ ३८९ ॥
कां कुहेसीं आकाशा | तोंडीं सांदा नाहीं तैसा |
तो परमपुरुषीं तैसा | एकवटे गा ॥ ३९० ॥
कुहेसीं=विहीर
प्रतिबिंबौनि बिंबवरी | प्रभेची जैसी उजरी |
ते सोऽहंवृत्ती अवधारीं | तैसी होय ॥ ३९१ ॥
उजरी=सरळ वाट
ऐसेनि मग परस्परें | ते सोऽहंवृत्ति जैं अवतरे |
तैं तियेहि सकट सरे | अपैसया ॥ ३९२ ॥
जैसा सैंधवाचा रवा | सिंधूमाजीं पांडवा |
विरालेया विरवावा | हेंही ठाके ॥ ३९३ ॥
नातरी जाळूनि तृण | वन्हिही विझे आपण |
तैसें भेदु नाशूनि जाण | ज्ञानही नुरे ॥ ३९४ ॥
माझें पैलपण जाये | भक्त हें ऐलपण ठाये |
अनादि ऐक्य जें आहे | तेंचि निवडे ॥ ३९५ ॥
आतां गुणातें तो किरीटी | जिणे या नव्हती गोष्टी |
जे एकपणाही मिठी | पडों सरली ॥ ३९६ ॥
किंबहुना ऐसी दशा | तें ब्रह्मत्व गा सुदंशा |
हें तो पावें जो ऐसा | मातें भजे ॥ ३९७ ॥
सुदंशा=मर्मज्ञ ज्ञानी
पुढतीं इहीं लिंगीं | भक्तु जो माझा जगीं |
हे ब्रह्मता तयालागीं | पतिव्रता ॥ ३९८ ॥
लिंगीं=गुणांनी युक्त
जैसें गंगेचेनि वोघें | डळमळित जळ जें निघे |
सिंधुपद तयाजोगें | आन नाहीं ॥ ३९९ ॥
तैसा ज्ञानाचिया दिठी | जो मातें सेवी किरीटी |
तो होय ब्रह्मतेच्या मुकुटीं | चूडारत्न ॥ ४०० ॥
यया ब्रह्मत्वासीचि पार्था | सायुज्य ऐसी व्यवस्था |
याचि नांवें चौथा | पुरुषार्थ गा ॥ ४०१ ॥
परी माझें आराधन | ब्रह्मत्वीं होय सोपान |
एथ मी हन साधन | गमेन हो ॥ ४०२ ॥
हन=जर खरोखर
तरी झणीं ऐसें | तुझ्या चित्तीं पैसें |
पैं ब्रह्म आन नसे | मीवांचूनि ॥ ४०३ ॥
झणीं=नको
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगोनाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
अगा ब्रह्म या नांवा | अभिप्रायो मी पांडवा |
मीचि बोलिजे आघवा | शब्दीं इहीं ॥ ४०४ ॥
पैं मंडळ आणि चंद्रमा | दोन्ही नव्हती सुवर्मा |
तैसा मज आणि ब्रह्मा | भेदु नाहीं ॥ ४०५ ॥
मंडळ=प्रतिबिंब
अगा नित्य जें निष्कंप | अनावृत धर्मरूप |
सुख जें उमप | अद्वितीय ॥ ४०६ ॥
अनावृत=उघड
विवेकु आपलें काम | सारूनि ठाकी जें धाम |
निष्कर्षाचें निःसीम | किंबहुना मी ॥ ४०७ ॥
ऐसेसें हो अवधारा | तो अनन्याचा सोयरा |
सांगतसे वीरा | पार्थासी ॥ ४०८ ॥
येथ धृतराष्ट्र म्हणे | संजया हें तूतें कोणें |
पुसलेनिविण वायाणें | कां बोलसी ? ॥ ४०९ ॥
वायाणें=व्यर्थ ,वाया
माझी अवसरी ते फेडी | विजयाची सांगें गुढी |
येरु जीवीं म्हणे सांडीं | गोठी यिया ॥ ४१० ॥
येरु=संजय
संजयो विस्मयो मानसीं | आहा करूनि रसरसी |
म्हणे कैसें पां देवेंसी | द्वंद्व यया ? ॥ ४११ ॥
आहा=राग अनावड द्वंद्व=वैर
तरी तो कृपाळु तुष्टो | यया विवेकु हा घोंटो |
मोहाचा फिटो | महारोगु ॥ ४१२ ॥
घोंटो=घोट (होवून पोटात जावो )
संजयो ऐसें चिंतितां | संवादु तो सांभाळितां |
हरिखाचा येतु चित्ता | महापूरु ॥ ४१३ ॥
म्हणौनि आतां येणें | उत्साहाचेनि अवतरणें |
श्रीकृष्णाचें बोलणें | सांगिजैल ॥ ४१४ ॥
तया अक्षराआंतील भावो | पाववीन मी तुमचा ठावो |
आइका म्हणे ज्ञानदेवो | निवृत्तीचा ॥ ४१५ ॥
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां गुणत्रयविभागयोगोनाम
चतुर्दशोऽध्यायः ॥