Thursday, March 23, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १४ वा ओव्या ३६२ ते ४१५ (संपूर्ण )







ज्ञानेश्वरी / अध्याय चौदावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ३६२ ते ४१५ (संपूर्ण )

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५॥


ईश्वर म्हणौनि पूजिला | कां चोरु म्हणौनि गांजिला |
वृषगजीं वेढिला | केला रावो ॥ ३६२ ॥
 
कां सुहृद पासीं आले | अथवा वैरी वरपडे जाले |
परी नेणें राती पाहालें | तेज जेवीं ॥ ३६३ ॥

साहीं ऋतु येतां आकाशें | लिंपिजेचि ना जैसें |
तेवीं वैम्य मानसें | जाणिजेना ॥ ३६४ ॥

आणीकही एकु पाहीं | आचारु तयाच्या ठायीं |
तरी व्यापारासि नाहीं | जालें दिसे ॥ ३६५ ॥


सर्वांरंभा उटकलें | प्रवृत्तीचें तेथ मावळले |
जळती गा कर्मफळें | ते तो आगी ॥ ३६६ ॥

उटकलें=दूर केले

दृष्टादृष्टाचेनि नांवें | भावोचि जीवीं नुगवें |
सेवी जें कां स्वभावें | पैठें होये ॥ ३६७ ॥

पैठें=वस्ती ,प्राप्त

सुखे ना शिणे | पाषाणु कां जेणें मानें |
तैसी सांडीमांडी मनें | वर्जिली असे ॥ ३६८ ॥
आतां किती हा विस्तारु | जाणें ऐसा आचारु |
जयातें तोचि साचारु | गुणातीतु ॥ ३६९ ॥

गुणांतें अतिक्रमणें | घडे उपायें जेणें |
तो आतां आईक म्हणे | श्रीकृष्णनाथु ॥ ३७० ॥


मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६॥


तरी व्यभिचाररहित चित्तें | भक्तियोगें मातें |
सेवी तो गुणातें | जाकळूं शके ॥ ३७१ ॥

जाकळूं=जिंकणे

तरी कोण मी कैसी भक्ती | अव्यभिचारा काय व्यक्ती |
हे आघवीचि निरुती | होआवी लागे ॥ ३७२ ॥

व्यक्ती =चिन्हे      निरुती=स्पष्टता

तरी पार्था परियेसा | मी तंव येथ ऐसा |
रत्‌नीं किळावो जैसा | रत्‌नचि कीं तो ॥ ३७३ ॥

कां द्रवपणचि नीर | अवकाशचि अंबर |
गोडी तेचि साखर | आन नाहीं ॥ ३७४ ॥

वन्हि तेचि ज्वाळ | दळाचि नांव कमळ |
रूख तेंचि डाळ- | फळादिक ॥ ३७५ ॥

अगा हिम जें आकर्षलें | तेंचि हिमवंत जेवीं जालें |
नाना दूध मुरालें | तेंचि दहीं ॥ ३७६ ॥

तैसें विश्व येणें नांवें | हें मीचि पैं आघवें |
घेईं चंद्रबिंब सोलावें | न लगे जेवीं ॥ ३७७ ॥

घृताचें थिजलेंपण | न मोडितां घृतचि जाण |
कां नाटितां कांकण | सोनेंचि तें ॥ ३७८ ॥

न उकलितां पटु | तंतुचि असे स्पष्टु |
न विरवितां घटु | मृत्तिका जेवीं ॥ ३७९ ॥

म्हणौनि विश्वपण जावें | मग तैं मातें घेयावें |
तैसा नव्हे आघवें | सकटचि मी ॥ ३८० ॥

ऐसेनि मातें जाणिजे | ते अव्यभिचारी भक्ति म्हणिजे |
येथ भेदु कांहीं देखिजे | तरी व्यभिचारु तो ॥ ३८१ ॥

याकारणें भेदातें | सांडूनि अभेदें चित्तें |
आपण सकट मातें | जाणावें गा ॥ ३८२ ॥

पार्था सोनयाची टिका | सोनयासी लागली देखा |
तैसें आपणपें आणिका | मानावें ना ॥ ३८३ ॥

तेजाचा तेजौनि निघाला | परी तेजींचि असे लागला |
तया रश्मी ऐसा भला | बोधु होआवा ॥ ३८४ ॥

तेजाचा=तेज असलेला  तेजौनि=तेजापासून सूर्य   रश्मी =किरण

पैं परमाणु भूतळीं | हिमकणु हिमाचळीं |
मजमाजीं न्याहाळीं | अहं तैसें ॥ ३८५ ॥

हो कां तरंगु लहानु | परी सिंधूसी नाहीं भिन्नु |
तैसा ईश्वरीं मी आनु | नोहेचि गा ॥ ३८६ ॥

ऐसेनि बा समरसें | दृष्टि जे उल्हासे |
ते भक्ति पैं ऐसे | आम्ही म्हणों ॥ ३८७ ॥

आणि ज्ञानाचें चांगावें | इयेचि दृष्टि नांवें |
योगाचेंही आघवें | सर्वस्व हें ॥ ३८८ ॥

चांगावें=सार

सिंधू आणि जळधरा- | माजीं लागली अखंड धारा |
तैसी वृत्ति वीरा | प्रवर्ते ते ॥ ३८९ ॥

कां कुहेसीं आकाशा | तोंडीं सांदा नाहीं तैसा |
तो परमपुरुषीं तैसा | एकवटे गा ॥ ३९० ॥

कुहेसीं=विहीर

प्रतिबिंबौनि बिंबवरी | प्रभेची जैसी उजरी |
ते सोऽहंवृत्ती अवधारीं | तैसी होय ॥ ३९१ ॥

उजरी=सरळ वाट

ऐसेनि मग परस्परें | ते सोऽहंवृत्ति जैं अवतरे |
तैं तियेहि सकट सरे | अपैसया ॥ ३९२ ॥

जैसा सैंधवाचा रवा | सिंधूमाजीं पांडवा |
विरालेया विरवावा | हेंही ठाके ॥ ३९३ ॥

नातरी जाळूनि तृण | वन्हिही विझे आपण |
तैसें भेदु नाशूनि जाण | ज्ञानही नुरे ॥ ३९४ ॥

माझें पैलपण जाये | भक्त हें ऐलपण ठाये |
अनादि ऐक्य जें आहे | तेंचि निवडे ॥ ३९५ ॥

आतां गुणातें तो किरीटी | जिणे या नव्हती गोष्टी |
जे एकपणाही मिठी | पडों सरली ॥ ३९६ ॥

किंबहुना ऐसी दशा | तें ब्रह्मत्व गा सुदंशा |
हें तो पावें जो ऐसा | मातें भजे ॥ ३९७ ॥

सुदंशा=मर्मज्ञ  ज्ञानी
 
पुढतीं इहीं लिंगीं | भक्तु जो माझा जगीं |
हे ब्रह्मता तयालागीं | पतिव्रता ॥ ३९८ ॥

लिंगीं=गुणांनी युक्त

जैसें गंगेचेनि वोघें | डळमळित जळ जें निघे |
सिंधुपद तयाजोगें | आन नाहीं ॥ ३९९ ॥

तैसा ज्ञानाचिया दिठी | जो मातें सेवी किरीटी |
तो होय ब्रह्मतेच्या मुकुटीं | चूडारत्‌न ॥ ४०० ॥

यया ब्रह्मत्वासीचि पार्था | सायुज्य ऐसी व्यवस्था |
याचि नांवें चौथा | पुरुषार्थ गा ॥ ४०१ ॥

परी माझें आराधन | ब्रह्मत्वीं होय सोपान |
एथ मी हन साधन | गमेन हो ॥ ४०२ ॥

हन=जर खरोखर

तरी झणीं ऐसें | तुझ्या चित्तीं पैसें |
पैं ब्रह्म आन नसे | मीवांचूनि ॥ ४०३ ॥

झणीं=नको

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगोनाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥


अगा ब्रह्म या नांवा | अभिप्रायो मी पांडवा |
मीचि बोलिजे आघवा | शब्दीं इहीं ॥ ४०४ ॥

पैं मंडळ आणि चंद्रमा | दोन्ही नव्हती सुवर्मा |
तैसा मज आणि ब्रह्मा | भेदु नाहीं ॥ ४०५ ॥

मंडळ=प्रतिबिंब

अगा नित्य जें निष्कंप | अनावृत धर्मरूप |
सुख जें उमप | अद्वितीय ॥ ४०६ ॥

अनावृत=उघड


विवेकु आपलें काम | सारूनि ठाकी जें धाम |
निष्कर्षाचें निःसीम | किंबहुना मी ॥ ४०७ ॥

ऐसेसें हो अवधारा | तो अनन्याचा सोयरा |
सांगतसे वीरा | पार्थासी ॥ ४०८ ॥

येथ धृतराष्ट्र म्हणे | संजया हें तूतें कोणें |
पुसलेनिविण वायाणें | कां बोलसी ? ॥ ४०९ ॥

वायाणें=व्यर्थ ,वाया

माझी अवसरी ते फेडी | विजयाची सांगें गुढी |
येरु जीवीं म्हणे सांडीं | गोठी यिया ॥ ४१० ॥

येरु=संजय

संजयो विस्मयो मानसीं | आहा करूनि रसरसी |
म्हणे कैसें पां देवेंसी | द्वंद्व यया ? ॥ ४११ ॥

आहा=राग अनावड      द्वंद्व=वैर

तरी तो कृपाळु तुष्टो | यया विवेकु हा घोंटो |
मोहाचा फिटो | महारोगु ॥ ४१२ ॥

घोंटो=घोट (होवून पोटात जावो )

संजयो ऐसें चिंतितां | संवादु तो सांभाळितां |
हरिखाचा येतु चित्ता | महापूरु ॥ ४१३ ॥

म्हणौनि आतां येणें | उत्साहाचेनि अवतरणें |
श्रीकृष्णाचें बोलणें | सांगिजैल ॥ ४१४ ॥

तया अक्षराआंतील भावो | पाववीन मी तुमचा ठावो |
आइका म्हणे ज्ञानदेवो | निवृत्तीचा ॥ ४१५ ॥
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां गुणत्रयविभागयोगोनाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥

by dr. vikrant tikone