Wednesday, September 19, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा, ओव्या ११ ते ८६





ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ११ ते ८६


हे काय एकैक ऐसैसें | नानापरीभाषावशें |
स्तोत्र करूं तुजोद्देशें | निर्विशेषा ॥ ११ ॥


जिहीं विशेषणीं विशेषिजे | तें दृश्य नव्हे रूप तुझें |
हें जाणें मी म्हणौनि लाजें | वानणा इहीं ॥ १२ ॥

वानणा=स्तुति करणे

परी मर्यादेचा सागरु | हा तंवचि तया डगरु |
जंव न देखे सुधाकरु | उदया आला ॥ १३ ॥

डगरु= नाव लौकिक ,कीर्ती

सोमकांतु निजनिर्झरीं | चंद्रा अर्घ्यादिक न करी |
तें तोचि अवधारीं | करवी कीं जी ॥ १४ ॥

नेणों कैसी वसंतसंगें | अवचितिया वृक्षाचीं अंगें |
फुटती तैं हे तयांहि जोगें | धरणें नोहे ? ॥ १५ ॥

धरणें=थोपवणे (स्वाधीन नसणे)

पद्मिनी रविकिरण | लाहे मग लाजें कवण ? |
कां जळें शिवतलें लवण | आंग भुले ॥ १६ ॥

लवण=मीठ

तैसा तूतें जेथ मी स्मरें | तेथ मीपण मी विसरें |
मग जाकळिला ढेंकरें | तृप्तु जैसा ॥ १७ ॥

जाकळिला=ग्रासणे (व्यापणे, एका मागून एक अश्या )

मज तुवां जी केलें तैसें | माझें मीपण दवडूनि देशें |
स्तुतिमिषेंच पां पिसें | बांधलें वाचे ॥ १८ ॥

तुम्हीच असे केले की..

ना येऱ्हवीं तरी आठवीं | राहोनि स्तुति जैं करावी |
तैं गुणागुणिया धरावी | सरोभरी कीं ॥ १९ ॥

आठवीं | राहोनि=स्वत:चे स्म्ररण राहून
गुणागुणिया=गुणसंगे गुणातीता
सरोभरी= तुलना , बरोबरी

तरी तूं जी एकरसाचें लिंग | केवीं करूं गुणागुणीं विभाग |
मोतीं फोडोनि सांधितां चांग | कीं तैसेंचि भलें ॥ २० ॥

आणि बाप तूं माय | इहीं बोलीं ना स्तुति होय |
डिंभोपाधिक आहे | विटाळु तेथें ॥ २१ ॥

डिंभोपाधिक=लेकरू हीच एक उपाधी
विटाळु=दोष

जी जालेनि पाइकें आलें | तें गोसावीपण केवीं बोलें ? |
ऐसें उपाधी उशिटलें | काय वर्णूं ॥ २२ ॥

जालेनि-जन्मत: गोसावीपण=मालकपण  

जरी आत्मा तूं एकसरा | हेंही म्हणतां दातारा |
तरी आंतुल तूं बाहेरा | घापतासी ॥ २३ ॥

घापतासी=बाहेर घालवणे (असे होईल )

म्हणौनि सत्यचि तुजलागीं | स्तुति न देखों जी जगीं |
मौनावांचूनि लेणें आंगीं | सुसीना मा ॥ २४ ॥

सुसीना=घालणे

स्तुति कांहीं न बोलणें | पूजा कांहीं न करणें |
सन्निधी कांहीं न होणें | तुझ्या ठायीं॥ २५ ॥

तरी जिंतलें जैसें भुली | पिसें आलापु घाली |
तैसें वानूं तें माऊली | उपसाहावें तुवां ॥ २६ ॥

आलापु=दु:ख, रडणे

आतां गीतार्थाची मुक्तमुदी | लावीं माझिये वाग्वृद्धी |
जे माने हे सभासदीं | सज्जनांच्या ॥ २७ ॥

मुक्त=मोती  मुदी=अंगठी मधील मुद्रा
माने=सन्मान

तेथ म्हणितलें श्रीनिवृत्ती | नको हें पुढतपुढती |
परीसीं लोहा घृष्टी किती | वेळवेळां कीजे गा | ॥ २८ ॥

घृष्टी=घासावा  

तंव विनवी ज्ञानदेवो | म्हणे हो कां जी पसावो |
तरी अवधान देतु देवो | ग्रंथा आतां ॥ २९ ॥

पसावो=प्रसाद

जी गीतारत्नप्रासादाचा | कळसु अर्थचिंतामणीचा |
सर्व गीतादर्शनाचा | पाढाऊं जो ॥ ३० ॥

पाढाऊं=वाटाड्या

लोकीं तरी आथी ऐसें | जे दुरूनि कळसु दिसे |
आणी भेटीचि हातवसे | देवतेची तिये ॥ ३१ ॥

आथी=आहे  हातवसे=हाती येणे (भेट झाली असे )

तैसेंचि एथही आहे | जे एकेचि येणें अध्यायें |
आघवाचि दृष्ट होये | गीतागमु हा ॥ ३२ ॥

मी कळसु याचि कारणें | अठरावा अध्यायो म्हणें |
उवाइला बादरायणें | गीताप्रासादा ॥ ३३ ॥

उवाइला= उभारला (सांगितला) बादरायणें=व्यासांनी

नोहे कळसापरतें कांहीं | प्रासादीं काम नाहीं |
तें सांगतसे गीता ही | संपलेपणें ॥ ३४ ॥

व्यासु सहजें सूत्री बळी | तेणें निगमरत्नाचळीं |
उपनिषदार्थाची माळी\- | माजीं खांडिली ॥ ३५ ॥

सूत्री बळी=थोर सूत्रकार
निगमरत्नाचळीं=वेद रूपी रत्न पर्वत
माळी\- | माजीं खांडिली =माळभूमी खणली

तेथ त्रिवर्गाचा अणुआरु | आडऊ निघाला जो अपारु |
तो महाभारतप्राकारु | भोंवता केला ॥ ३६ ॥

त्रिवर्गाचा =धर्म अर्थ काम   अणुआरु=धोंडे चाराचुरा
आडऊ=डबर    प्राकारु=तट  भोंवता=सभोवती

माजीं आत्मज्ञानाचें एकवट | दळवाडें झाडूनि चोखट |
घडिलें पार्थवैकुंठ\- | संवाद कुसरी ॥ ३७ ॥

एकवट =अखंड एक   दळवाडें=चिरे
कुसरी=कौशल्याने चतुरपणे

निवृत्तिसूत्र सोडवणिया | सर्व शास्त्रार्थ पुरवणिया |
आवो साधिला मांडणिया | मोक्षरेखेचा ॥ ३८ ॥

सोडवणिया= ओळंबा  पुरवणिया =भर, भरण घालून
आवो=आकार

ऐसेनि करितां उभारा | पंधरा अध्यायांत पंधरा |
भूमि निर्वाळलिया पुरा | प्रासादु जाहला ॥ ३९ ॥

निर्वाळलिया=चोखाळून


उपरी सोळावा अध्यायो | तो ग्रीवघंटेचा आवो |
सप्तदशु तोचि ठावो | पडघाणिये ॥ ४० ॥

ग्रीवघंटेचा =घुमटाचा   पडघाणिये=कळसची बैठक


तयाहीवरी अष्टादशु | तो अपैसा मांडला कळसु |
उपरि गीतादिकीं व्यासु | ध्वजें लागला ॥ ४१ ॥

व्यास रूपी ध्वज

म्हणौनि मागील जे अध्याये | ते चढते भूमीचे आये |
तयांचें पुरें दाविताहे | आपुल्या आंगीं ॥ ४२ ॥

आये=आकारे   पुरें=पूर्णता

जालया कामा नाहीं चोरी | ते कळसें होय उजरी |
तेवीं अष्टादशु विवरी | साद्यंत गीता ॥ ४३ ॥

उजरी=स्पष्ट

ऐसा व्यासें विंदाणियें | गीताप्रासादु सोडवणिये |
आणूनि राखिले प्राणिये | नानापरी ॥ ४४ ॥

विंदाणियें=चतुरपणे  सोडवणिये= मुक्त करण्यासाठी

एक प्रदक्षिणा जपाचिया | बाहेरोनि करिती यया |
एक ते श्रवणमिषें छाया | सेविती ययाची ॥ ४५ ॥

एक ते अवधानाचा पुरा | विडापाऊड भीतरां |
घेऊनि रिघती गाभारां | अर्थज्ञानाच्या ॥ ४६ ॥

विडापाऊड=पैजेचा विडा

ते निजबोधें उराउरी | भेटती आत्मया श्रीहरी |
परी मोक्षप्रासादीं सरी | सर्वांही आथी ॥ ४७ ॥
सरी=सारखी योग्यता

समर्थाचिये पंक्तिभोजनें | तळिल्या वरील्या एकचि पक्वान्नें |
तेवीं श्रवणें अर्थें पठणें | मोक्षुचि लाभे ॥ ४८ ॥

ऐसा गीता वैष्णवप्रासादु | अठरावा अध्याय कळसु विशदु |
म्यां म्हणितला हा भेदु | जाणोनियां ॥ ४९ ॥

आतां सप्तदशापाठीं | अध्याय कैसेनि उठी |
तो संबंधु सांगो दिठी | दिसे तैसा ॥ ५० ॥

का गंगायमुना उदक | वोघबगें वेगळिक |
दावी होऊनि एक | पाणीपणें ॥ ५१ ॥

न मोडितां दोन्ही आकार | घडिलें एक शरीर |
हें अर्धनारी नटेश्वर\- | रूपीं दिसें ॥ ५२ ॥

नाना वाढिली दिवसें | कळा बिंबीं पैसे |
परी सिनानें लेवे जैसें | चंद्रीं नाहीं ॥ ५३ ॥

पैसे =वाढते   लेवे=थर

तैसीं सिनानीं चारीं पदें | श्लोक तो श्लोकावच्छेदें |
अध्यावो अध्यायभेदें | गमे कीर ॥ ५४ ॥

सिनानीं =वेगळी (चार पदे  त्यांचा एक श्लोक)
श्लोकावच्छेदें=अनेक श्लोकांचा (एक अध्याय)
 अध्यायभेदें=वेग वेगळे अध्याय


परी प्रमेयाची उजरी | आनान रूप न धरी |
नाना रत्नमणीं दोरी | एकचि जैसी ॥ ५५ ॥

प्रमेयाची =सिद्धांताची उजरी=स्पष्टता


मोतियें मिळोनि बहुवें | एकावळीचा पाडु आहे |
परी शोभे रूप होये | एकचि तेथ ॥ ५६ ॥

एकावळीचा=हार

फुलांफुलसरां लेख चढे | द्रुतीं दुजी अंगुळी न पडे |
श्लोक अध्याय तेणें पाडें | जाणावे हे ॥ ५७ ॥

फुलांफुलसरां=फूल व फुलांचा हार
लेख चढे | द्रुतीं=वसाची गणती करण्यास


सात शतें श्लोक | अध्यायां अठरांचे लेख |
परी देवो बोलिले एक | जें दुजें नाहीं ॥ ५८ ॥

लेख=संख्या

आणि म्यांही न सांडूनि ते सोये | ग्रंथ व्यक्ति केली आहे |
प्रस्तुत तेणें निर्वाहे | निरूपण आइका ॥ ५९ ॥

सोये=रीत निर्वाहे=प्रकारे


तरी सतरावा अध्यावो | पावतां पुरता ठावो |
जें संपतां श्लोकीं देवो | बोलिले ऐसें ॥ ६० ॥

अर्जुना ब्रह्मनामाच्याविखीं। बुद्धि सांडूनि आस्तिकीं |
कर्मे कीजती तितुकीं | असंतें होतीं ॥ ६१ ॥

असंतें=वृथा

हा ऐकोनि देवाचा बोलु | अर्जुना आला डोलु |
म्हणे कर्मनिष्ठां मळु | ठेविला देखों ॥ ६२ ॥

मळु=कमी लेखले

तो अज्ञानांधु तंव बापुडा | ईश्वरुचि न देखे एवढा |
तेथ नामचि एक पुढां | कां सुझे तया ॥ ६३ ॥

नामचि =ओम तत सत   सुझे =समजेल

आणि रजतमें दोन्हीं | गेलियावीण श्रद्धा सानी |
ते कां लागे अभिधानीं | ब्रह्माचिये ? | ॥ ६४ ॥

सानी=कमी  अभिधानीं=जडावी

मग कोता खेंव देणें | वार्तेवरील धावणें |
सांडी पडे खेळणें | नागिणीचें तें ॥ ६५ ॥

कोता शस्त्र   वार्तेवरील=दोरीवर   सांडी पडे=व्यर्थ होणे

तैसीं कर्में दुवाडें | तयां जन्मांतराची कडे |
दुर्मेळावे येवढे | कर्मामाजीं ॥ ६६ ॥

दुवाडें=वाईट कठीण    दुर्मेळावे=पुन्हा मिळावे

ना विपायें हें उजू होये | तरी ज्ञानाची योग्यता लाहे |
येऱ्हवीं येणेंचि जाये | निरयालया ॥ ६७ ॥
निरयालया=अधोगतीला (नरकात)

कर्मीं हा ठायवरी | आहाती बहुवा अवसरी |
आतां कर्मठां कैं वारी | मोक्षाची हे ॥ ६८ ॥

ठायवरी=ठायी   अवसरी =हरकती  


तरी फिटो कर्माचा पांगु | कीजो अवघाचि त्यागु |
आदरिजो अव्यंगु | संन्यासु हा ॥ ६९ ॥

कर्मबाधेची कहीं | जेथ भयाची गोठी नाहीं |
तें आत्मज्ञान जिहीं | स्वाधीन होय ॥ ७० ॥

ज्ञानाचें आवाहनमंत्र | जें ज्ञान पिकतें सुक्षेत्र |
ज्ञान आकर्षितें सूत्र | तंतु जे का ॥ ७१ ॥

ते दोनी संन्यास त्याग | अनुष्ठूनि सुटे जग |
तरी हेंचि आतां चांग | व्यक्त पुसों ॥ ७२ ॥

ऐसें म्हणौनि पार्थें | त्यागसंन्यासव्यवस्थे |
रूप होआवया जेथें | प्रश्नु केला ॥ ७३ ॥

तेथ प्रत्युत्तरें बोली | श्रीकृष्णें जे चावळिली |
तया व्यक्ति जाली | अष्टादशा ॥ ७४ ॥
अष्टादशा =अठरावा

एवं जन्यजनकभावें | अध्यावो अध्यायातें प्रसवे |
आतां ऐका बरवें | पुसिलें जें ॥ ७५ ॥

जन्यजनकभावें=एकातून दुसर्‍याची उत्पत्ति

तरी पंडुकुमरें तेणें | देवाचें सरतें बोलणें |
जाणोनि अंतःकरणें | काणी घेतली ॥ ७६ ॥

काणी=उदास झाला


येऱ्हवीं तत्वविषयीं भला | तो निश्चितु असे कीर जाहला |
परी देवो राहे उगला | तें साहावेना ॥ ७७ ॥

वत्स धालयाही वरी | धेनू न वचावी दुरी |
अनन्य प्रीतीची परी | ऐसी आहे ॥ ७८ ॥

तेणें काजेवीणही बोलावें | तें देखीलें तरी पाहावें |
भोगितां चाड दुणावे | पढियंतयाठायीं ॥ ७९ ॥

चाड=आवड   पढियंतया =प्रियकर

ऐसी प्रेमाची हे जाती | आणि पार्थ तंव तेचि मूर्ती |
म्हणौनि करूं लाहे खंती | उगेपणाची ॥ ८० ॥


आणि संवादाचेनि मिषें | जे अव्यवहारी वस्तु असे |
ते भोगिजे कीं जैसें | आरिसां रूप ॥ ८१ ॥

अव्यवहारी=अव्यक्त ब्रह्म

मग संवादु तोही पारुखे | तरी भोगितां भोगणें थोके |
हें कां साहवेल सुखें | लांचावलेया ? ॥ ८२ ॥

पारुखे=खंड पडे पारखे होणे  थोके =थांबे

यालागीं त्याग संन्यास | पुसावयाचें घेऊनि मिस |
मग उपलविलें दुस | गीतेंचें तें ॥ ८३ ॥

उपलविलें=उघडले  दुस=वस्त्र


अठरावा अध्यावो नोहे | हे एकाध्यायी गीताचि आहे |
जैं वांसरुचि गाय दुहे | तैं वेळु कायसा ॥ ८४ ॥

तैसी संपतां अवसरीं | गीता आदरविली माघारीं |
स्वामी भृत्याचा न करी | संवादु काई ? ॥ ८५ ॥

स्वामी भृत्याचा=स्वामी सेवकाचा

परी हें असो ऐसें | अर्जुनें पुसिजत असे |
म्हणे विनंती विश्वेशें | अवधारिजो ॥ ८६ ॥

by dr. vikrant tikone