ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या१८० ते ४३३ (अध्याय
संपूर्ण )
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ २६॥
तरी सच्छब्दें येणें | आटूनि असताचें नाणें |
दाविजे अव्यंगवाणें | सत्तेचें रूप ॥ ३८० ॥
सच्छब्दें=सत
जें सत् तेंचि काळें देशें | होऊं नेणेचि अनारिसे |
आपणपां आपण असे | अखंडित ॥ ३८१ ॥
अनारिसे
=वेगळे आपणपां आपण= मूळ स्वरूपा
हें दिसतें जेतुलें आहे | तें असतपणें जें नोहे |
देखतां रूपीं सोये | लाभे जयाची ॥ ३८२ ॥
असतपणें=अनित्यपणे सोये=आत्मरूप
(देखतां रूपीं लाभे सोये जयाची)
तेणेंसीं प्रशस्त तें कर्म | जें जालें सर्वात्मक ब्रह्म |
देखिजे करूनि सम | ऐक्यबोधें ॥ ३८३ ॥
तरी ओंकार तत्कारें | जें कर्म दाविलें ब्रह्माकारें |
तें गिळूनि होईजे एकसरें | सन्मात्रचि ॥ ३८४ ॥
सन्मात्रचि=ब्रह्म
ऐसा हा अंतरंगु | सच्छब्दाचा विनियोगु |
जाणा म्हणे श्रीरंगु | मी ना म्हणें हो ॥ ३८५ ॥
(“मी ना म्हणें हो”असे ज्ञानदेव म्हणतात)
ना मीचि जरी हो म्हणें | तरी श्रीरंगीं दुजें हेंचि उणें |
म्हणौनि हें बोलणें | देवाचेंचि ॥ ३८६ ॥
आतां आणिकीही परी | सच्छब्दु हा अवधारीं |
सात्त्विक कर्मा करी | उपकारु जो ॥ ३८७ ॥
तरी सत्कर्में चांगें | चालिलीं अधिकारबगें |
परी एकाधें कां आंगें | हिणावती जैं ॥ ३८८ ॥
अधिकारबगें=अधिकार बळे (यथाशस्त्र )
तैं उणें एकें अवयवें | शरीर ठाके आघवें |
कां अंगहीन भांडावें | रथाची गती ॥ ३८९ ॥
भांडावें=बंद होणे
तैसें एकेंचि गुणेंवीण | सतचि परी असतपण |
कर्म धरी गा जाण | जिये वेळे ॥ ३९० ॥
तेव्हां ओंकार तत्कारीं | सावायिला हा चांगी परी |
सच्छब्दु कर्मा करी | जीर्णोद्धारु ॥ ३९१ ॥
सावायिला=साहाय्य
तें असतपण फेडी | आणी सद्भावाचिये रूढी |
निजसत्त्वाचिये प्रौढी | सच्छब्दु हा ॥ ३९२ ॥
दिव्यौषध जैसें रोगिया | कां सावावो ये भंगलिया |
सच्छब्दु कर्मा व्यंगलिया | तैसा जाण ॥ ३९३ ॥
सावावो=मदत
अथवा कांहीं प्रमादें | कर्म आपुलिये मर्यादे |
चुकोनि पडे निषिद्धे | वाटे हन ॥ ३९४ ॥
चालतयाही मार्गु सांडे | पारखियाचि अखरें पडे |
राहाटीमाजीं न घडे | काइ काइ ? ॥ ३९५ ॥
अखरें=भ्रम
म्हणौनि तैसी कर्मा | राभस्यें सांडे सीमा |
असाधुत्वाचिया दुर्नामा | येवों पाहे जें ॥ ३९६ ॥
राभस्यें=अविचार
तेथ गा हा सच्छब्दु | येरां दोहींपरीस प्रबुद्धु |
प्रयोजिला करी साधु | कर्मातें यया ॥ ३९७ ॥
दोहींपरीस
=ओम व तत प्रबुद्धु=जाणकार थोर
लोहा परीसाची घृष्टी | वोहळा गंगेची भेटी |
कां मृता जैसी वृष्टी | पीयूषाची ॥ ३९८ ॥
घृष्टी=स्पर्श
पैं असाधुकर्मा तैसा | सच्छब्दुप्रयोगु वीरेशा |
हें असो गौरवुचि ऐसा | नामाचा यया ॥ ३९९ ॥
घेऊनि येथिंचें वर्म | जैं विचारिसी हें नाम |
तैं केवळ हेंचि ब्रह्म | जाणसी तूं ॥ ४०० ॥
पाहें पां ॐतत्सत् ऐसें | हें बोलणें तेथ नेतसे |
जेथूनि कां हें प्रकाशे | दृश्यजात ॥ ४०१ ॥
तें तंव निर्विशिष्ट | परब्रह्म चोखट |
तयाचें हें आंतुवट | व्यंजक नाम ॥ ४०२ ॥
आंतुवट =आतील व्यंजक=व्यक्त
परी आश्रयो आकाशा | आकाशचि का जैसा |
या नामानामी आश्रयो तैसा | अभेदु असे ॥ ४०३ ॥
उदयिला आकाशीं | रवीचि रवीतें प्रकाशी |
हे नामव्यक्ती तैसी | ब्रह्मचि करी ॥ ४०४ ॥
म्हणौनि त्र्यक्षर हें नाम | नव्हे जाण केवळ ब्रह्म |
ययालागीं कर्म | जें जें कीजे ॥ ४०५ ॥
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥ २७॥
तें याग अथवा दानें | तपादिकेंही गहनें |
तियें निफजतु कां न्यूनें | होऊनि ठातु ॥ ४०६ ॥
निफजतु=पूर्ण होणे
परी परीसाचा वरकली | नाहीं चोखाकिडाची बोली |
तैसी ब्रह्मीं अर्पितां केलीं | ब्रह्मचि होती ॥ ४०७ ॥
वरकली=कसोटी पुढे
उणिया पुरियाची परी | नुरेचि तेथ अवधारीं |
निवडूं न येती सागरीं | जैसिया नदी ॥ ४०८ ॥
एवं पार्था तुजप्रती | ब्रह्मनामाची हे शक्ती |
सांगितली उपपत्ती | डोळसा गा ॥ ४०९ ॥
उपपत्ती=विनियोग
आणि येकेकाही अक्षरा | वेगळवेगळा वीरा |
विनियोगु नागरा | बोलिलों रीती ॥ ४१० ॥
नागरा=सोप्या भाषेत
एवं ऐसें सुमहिम | म्हणौनि हें ब्रह्मनाम |
आतां जाणितलें कीं सुवर्म | राया तुवां ? ॥ ४११ ॥
सुमहिम=श्रेष्ठ
तरी येथूनि याचि श्रद्धा | उपलविली हो सर्वदा |
जयाचें जालें बंधा | उरों नेदी ॥ ४१२ ॥
उपलविली=विस्तारू दे (दृढ होवू दे)
जिये कर्मीं हा प्रयोगु | अनुष्ठिजे सद्विनियोगु |
तेथ अनुष्ठिला सांगु | वेदुचि तो ॥ ४१३ ॥
अनुष्ठिजे=आचरण
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ २८॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
ना सांडूनि हे सोये | मोडूनि श्रद्धेची बाहे |
दुराग्रहाची त्राये | वाढऊनियां ॥ ४१४ ॥
सोये=मार्ग बाहे=आधार त्राये=बळ
मग अश्वमेध कोडी कीजे | रत्नें भरोनि पृथ्वी दीजे |
एकांगुष्ठींही तपिजे | तपसाहस्रीं ॥ ४१५ ॥
जळाशयाचेनि नांवें | समुद्रही कीजती नवे |
परी किंबहुना आघवें | वृथाचि तें ॥ ४१६ ॥
खडकावरी वर्षले | जैसें भस्मीं हवन केलें |
कां खेंव दिधलें | साउलिये ॥ ४१७ ॥
खेंव=मिठी
नातरी जैसें चडकणा | गगना हाणितलें अर्जुना |
तैसा समारंभु सुना | गेलाचि तो ॥ ४१८ ॥
चडकणा=थापट
घाणां गाळिले गुंडे | तेथ तेल ना पेंडी जोडे |
तैसें दरिद्र तेवढें | ठेलेंचि आंगीं ॥ ४१९ ॥
गुंडे=दगड
गांठीं बांधली खापरी | येथ अथवा पैलतीरीं |
न सरोनि जैसी मारी | उपवासीं गा ॥ ४२० ॥
तैसें कर्मजातें तेणें | नाहीं ऐहिकीचें भोगणें |
तेथ परत्र तें कवणें | अपेक्षावें ॥ ४२१ ॥
म्हणौनि ब्रह्मनामश्रद्धा | सांडूनि कीजे जो धांदा |
हें असो सिणु नुसधा | दृष्टादृष्टीं तो ॥ ४२२ ॥
ऐसें कलुषकरिकेसरी | त्रितापतिमिरतमारी |
श्रीवर वीर नरहरी | बोलिलें तेणें ॥ ४२३ ॥
कलुषकरिकेसरी=पाप रूपी हत्ती ला मारणारा सिह तिमिरतमारी =सूर्य
तेथ निजानंदा बहुवसा-/। माजीं अर्जुन तो सहसा |
हरपला चंद्रु जैसा | चांदिणेनि ॥ ४२४ ॥
सहसा=पूर्णत:
अहो संग्रामु हा वाणिया | मापें नाराचांचिया आणिया |
सूनि माप घे मवणिया | जीवितेंसी ॥ ४२५ ॥
वाणिया =व्यापारी मापेनाराचांचिया आणिया = बाणांची टोके हे माप
मवणिया=मोजतो
ऐसिया समयीं कर्कशें | भोगीजत स्वानंदराज्य कैसें |
आजि भाग्योदयो हा नसे | आनी ठाईं ॥ ४२६ ॥
संजयो म्हणे कौरवराया | गुणा रिझों ये रिपूचिया |
आणि गुरुही हा आमुचिया | सुखाचा येथ ॥ ४२७ ॥
हा न पुसता हे गोठी | तरी देवो कां सोडिते गांठी |
तरी कैसेंनि आम्हां भेटी | परमार्थेंसीं ॥ ४२८ ॥
होतों अज्ञानाच्या आंधारां | वोसंतीत जन्मवाहरा |
तों आत्मप्रकाशमंदिरा-/। आंतु आणिलें ॥ ४२९ ॥
वोसंतीत=आक्रमणे चालणे वाहरा=येरझार
एवढा आम्हां तुम्हां थोरु | केला येणें उपकारु |
म्हणौनि हा व्याससहोदरु | गुरुत्वें होय ॥ ४३० ॥
तेवींचि संजयो म्हणे चित्तीं | हा अतिशयो या नृपती |
खुपेल म्हणौनि किती | बोलत असों ॥ ४३१ ॥
ऐसी हे बोली सांडिली | मग येरीचि गोठी आदरिली |
जे पार्थें कां पुसिली | श्रीकृष्णातें ॥ ४३२ ॥
याचें जैसें कां करणें | तैसें मीही करीन बोलणें |
ऐकिजो ज्ञानदेवो म्हणे | निवृत्तीचा ॥ ४३३ ॥
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां सप्तदशोऽध्यायः ॥
by dr. vikrant tikone
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