Saturday, September 2, 2017

ज्ञानेश्वरी /अध्याय १५ वा ओव्या १४४ ते २०९ /संत ज्ञानेश्वर



ज्ञानेश्वरी /अध्याय पंधरावा /संत ज्ञानेश्वर

ओव्या १४४ ते २०९ 


अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥ २॥



मग ययाचि प्रपंचरूपा | अधोशाखिया पादपा |
डाहाळिया जाती उमपा | ऊर्ध्वाही उजू ॥ १४४ ॥

पादपा= वृक्ष     उमपा= अनेक          
उजू=सरळ  

आणि अधीं फांकली डाळें | तिये होती मूळें |
तयाही तळीं पघळे | वेल पालवु ॥ १४५ ॥

अधीं =खाली  डाळें = फांदी   पघळे=पसरे


ऐसें जें आम्हीं | म्हणितलें उपक्रमीं |
तेंही परिसें सुगमीं | बोलीं सांगों ॥ १४६ ॥

उपक्रमीं =सुरवातीला  सुगमीं=सोपे

तरी बद्धमूळ अज्ञानें | महदादिकीं सासिनें |
वेदांचीं थोरवनें | घेऊनियां ॥ १४७ ॥

बद्धमूळ = दृढ मूळ       सासिनें=फोफावणे
थोरवनें=मोठे पाने

परी आधीं तंव स्वेदज | जारज उद्भिज अंडज |
हे बुडौनि महाभुज | उठती चारी ॥ १४८ ॥

बुडौनि =झाडाचा बुंधा    महाभुज=मोठे हात (इथे फांद्या)

यया एकैकाचेनि आंगवटें | चौर्यांशीं लक्षधा फुटे |
ते वेळीं जीवशाखीं फांटे | सैंधचि होती ॥ १४९ ॥

आंगवटें =अंगातून  सैंधचि=असंख्य

प्रसवती शाखा सरळिया | नानासृष्टि डाहाळिया |
आड फुटती माळिया | जातिचिया ॥ १५० ॥

आड =आडव्या  माळिया=फांदी शाखा

स्त्री पुरुष नपुंसकें | हे व्यक्तिभेदांचे टके |
आंदोळती आंगिकें | विकारभारें ॥ १५१ ॥

टके= घोस  आंगिकें=अंगीच्या

जैसा वर्षाकाळु गगनीं | पाल्हेजे नवघनीं |
तैसें आकारजात अज्ञानीं | वेलीं जाय ॥ १५२ ॥

पाल्हेजे=विस्तारणे

मग शाखांचेनि आंगभारें | लवोनि गुंफिती परस्परें |
गुणक्षोभाचे वारे | उदयजती ॥ १५३ ॥

गुणक्षोभाचे=त्रिगुण क्षोभ

तेथ तेणें अचाटें | गुणांचेनि झडझडाटें |
तिहीं ठायीं हा फांटे | ऊर्ध्वमूळ ॥ १५४ ॥

अचाटें=तीव्र  झडझडाटें=झंझावात वाऱ्याचा वेग
फांटे=विस्तारे (फुटणे )

ऐसा रजाचिया झुळुका | झडाडितां आगळिका |
मनुष्यजाती शाखा | थोरावती ॥ १५५ ॥

झडाडितां =झडझडून येता  आगळिका=वेगाने

तिया ऊर्ध्वीं ना अधीं | माझारींचि कोंदाकोंदी |
आड फुटती खांदी | चतुर्वर्णांच्या ॥ १५६ ॥

माझारींचि =मध्येच कोंदाकोंदी=भरगच्च  खांदी=ढिऱ्या

तेथ विधिनिषेध सपल्लव | वेदवाक्यांचें अभिनव |
पालव डोलती बरव | नीच नवे ॥ १५७ ॥

अर्थु कामु पसरे | अग्रवनें घेती थारे |
तेथ क्षणिकें पदांतरें | इहभोगाचीं ॥ १५८ ॥
अग्रवनें= अंकुर थारे=आश्रय पदांतरें=बदलणारी  


तेथ प्रवृत्तीचेनि वृद्धिलोभें | खांकरेजती शुभाशुभें |
नानाकर्मांचे खांबे | नेणों किती ॥ १५९ ॥


वृद्धिलोभें = वाढण्याचा लोभ  खांकरेजती=फुटतात

तेवींचि भोगक्षीणें मागिलें | पडती देहांतींचीं बुडसळें |
तंव पुढां वाढी पेले | नवेया देहांची ॥ १६० ॥

बुडसळें=सुके लाकूड  पेले-=तयार होणे

आणि शब्दादिक सुहावे | सहज रंगें हवावे |
विषयपल्लव नवे | नीत्य होती ॥ १६१ ॥

सुहावे =सुंदर हवावे=शोभिवंत (हवेसे)

ऐसे रजोवातें प्रचंडें | मनुष्यशाखांचे मांदोडे |
वाढती तो एथ रुढे | मनुष्यलोकु ॥ १६२ ॥

मांदोडे=फांद्याचे झुबके

तैसाचि तो रजाचा वारा | नावेक धरी वोसरा |
मग वाजों लागे घोरा | तमाचा तो ॥ १६३ ॥

तेधवां याचिया मनुष्यशाखा | नीच वासना अधीं देखा |
पल्हेजती डाहाळिका | कुकर्माचिया ॥ १६४ ॥

पल्हेजती=वाढतात

अप्रवृत्तींचे खणुवाळे | कोंभ निघती सरळे |
घेत पान पालव डाळे | प्रमादाचीं ॥ १६५ ॥

खणुवाळे=खडबडीत कठीण


बोलती निषेधनियमें | जिया ऋचा यजुःसामें |
तो पाला तया घुमें | टकेयावरी ॥ १६६ ॥

घुमें=घुमणे  | टकेयावरी=टोकापर्यंत

प्रतिपादिती अभिचार | आगम जे परमार |
तिहीं पानीं घेती प्रसर | वासना वेली ॥ १६७ ॥

अभिचार=जारण मारण आगम =अथर्ववेदातील भाग
परमार =परपीडक मंत्र

तंव तंव होतीं थोराडें | अकर्मांचीं तळबुडें |
आणि जन्मशाखा पुढें पुढें | घेती धांव ॥ १६८ ॥

थोराडें =प्रबळ तळबुडें=खोल गेलेले मुळे

तेथ चांडाळादि निकृष्टा | दोषजातीचा थोर फांटा |
जाळ पडे कर्मभ्रष्टां | भुलोनियां ॥ १६९ ॥

फांटा=फांद्या  जाळ=जाळे

पशु पक्षी सूकर | व्याघ्र वृश्चिक विखार |
हे आडशाखा प्रकार | पैसु घेती ॥ १७० ॥

पैसु=विस्तार

परी ऐशा शाखा पांडवा | सर्वांगींहि नित्य नवा |
निरयभोग यावा | फळाचा तो ॥ १७१ ॥

आणि हिंसाविषयपुढारी | कुकर्मसंगें धुर धुरी |
जन्मवरी आगारी | वाढतीचि असे ॥ १७२ ॥
पुढारी=नेतृत्व     धुर धुरी=अग्रभागी असते (महत्व असते )
आगारी=अंकुर(साठा)

ऐसे होती तरु तृण | लोह लोष्ट पाषाण |
इया खांदिया तेवीं जाण | फळेंही हेंची ॥ १७३ ॥

लोष्ट=माती

अर्जुना गा अवधारीं | मनुष्यालागोनि इया परी |
वृद्धि स्थावरांतवरी | अधोशाखांची ॥ १७४ ॥

स्थावरांतवरी=निर्जीव जड वस्तू पर्यंत

म्हणौनि जीं मनुष्यडाळें | तियें जाणावीं अधींचि मूळें |
जे एथूनि हा पघळे | संसारतरु ॥ १७५ ॥

एऱ्हवीं ऊर्ध्वींचें पार्था | मुद्दल मूळ पाहतां |
अधींचिया मध्यस्था | शाखा इया ॥ १७६ ॥

परी तामसी सात्त्विकी | सुकृतदुष्कृतात्मकी |
विरुढती या शाखीं | अधोर्ध्वींचिया ॥ १७७ ॥

आणि वेदत्रयाचिया पाना | नये अन्यत्र लागों अर्जुना |
जे मनुष्यावांचूनि विधाना | विषय नाहीं ॥ १७८

अन्यत्र लागो =इतरआवड   विषय=पात्रता
 विधाना=वेदाज्ञा

म्हणौनि तनु मानुषा | इया ऊर्ध्वमूळौनि जरी शाखा |
तरी कर्मवृद्धीसि देखा | इयेंचि मूळें ॥ १७९ ॥

आणि आनीं तरी झाडीं | शाखा वाढतां मुळें गाढीं |
मूळ गाढें तंव वाढी | पैस आथी ॥ १८० ॥

आनीं तरी झाडीं=इतर सामान्य झाड

तैसेंचि इया शरीरा | कर्म तंव देहा संसारा |
आणि देह तंव व्यापारा | ना म्हणोंचि नये ॥ १८१ ॥

म्हणौनि देहें मानुषें | इयें मुळें होती न चुके |
ऐसें जगज्जनकें | बोलिलें तेणें ॥ १८२ ॥

मग तमाचें तें दारुण | स्थिरावलेया वाउधाण |
सत्त्वाची सुटे सत्राण | वाहुटळी ॥ १८३ ॥

वाउधाण =वादळ  सत्राण =भयंकर जोराने

तैं याचि मनुष्याकारा | मुळीं सुवासना निघती आरा |
घेऊनि फुटती कोंबारा | सुकृतांकुरीं ॥ १८४ ॥

आरा=अंकुर  सुकृतांकुरीं=पुण्यरूपी अंकुर

उकलतेनि उन्मेखें | प्रज्ञाकुशलतेंची तिखें |
डिरिया निघती निमिखें | बाबळैजुनी ॥ १८५ ॥

उन्मेखें=ज्ञान  तिखें=धार
बाबळैजुनी=विस्तार पावतात

मतीचे सोट वांवे | घालिती स्फूर्तींचेनि थांवें |
बुद्धि प्रकाश घे धांवे | विवेकावरी ॥ १८६ ॥

थांवें =बळ  सोट=सरळ फांद्या  वांवे  =विस्तार

तेथ मेधारसें सगर्भ | अस्थापत्रीं सबोंब |
सरळ निघती कोंभ | सद्वृत्तीचे ॥ १८७ ॥

मेधारसें-=बुद्धीरूपी रस  सगर्भ=भरलेली  सबोंब=शोभा देणे


सदाचाराचिया सहसा | टका उठती बहुवसा |
घुमघुमिति घोषा | वेदपद्याच्या ॥ १८८ ॥

सहसा =एकदम टका=घोस

शिष्टागमविधानें | विविधयागवितानें |
इये पानावरी पानें | पालेजती ॥१८९ ॥

शिष्टागमविधानें=शिष्टाचार व वेदोक्त आचरण

ऐशा यमदमीं घोंसाळिया | उठती तपाचिया डाहाळिया |
देती वैराग्यशाखा कोंवळिया | वेल्हाळपणें ॥ १९० ॥

घोंसाळिया=घोस असलेले | वेल्हाळपणें=विस्ताराने

विशिष्टां व्रतांचे फोक | धीराच्या अणगटी तिख |
जन्मवेगें ऊर्ध्वमुख | उंचावती ॥ १९१ ॥

अणगटी=अंकुर

माजीं वेदांचा पाला दाट | तो करी सुविद्येचा झडझडाट |
जंव वाजे अचाट | सत्त्वानिळु तो ॥ १९२ ॥

तेथ धर्मडाळ बाहाळी | दिसती जन्मशाखा सरळी |
तिया आड फुटती फळीं | स्वर्गादिकीं ॥ १९३ ॥

बाहाळी=विस्तार

पुढां उपरति रागें लोहिवी | धर्ममोक्षाची शाखा पालवी |
पाल्हाजत नित्य नवी | वाढतीचि असे ॥ १९४ ॥

लोहिवी=तांबडा भगवा रंग पाल्हाजत[=वाढतात

पैं रविचंद्रादि ग्रहवर | पितृ ऋषी विद्याधर |
हे आडशाखा प्रकार | पैसु घेती ॥ १९५ ॥

याहीपासून उंचवडें | गुढले फळाचेनि बुडें |
इंद्रादिक ते मांदोडे | थोर शाखांचे ॥ १९६ ॥

फळाचेनि बुडें=फळाच्या भाराने
गुढले =व्याप्त    मांदोडे=घोस  

मग तयांही उपरी डाहाळिया | तपोज्ञानीं उंचावलिया |
मरीचि कश्यपादि इया | उपरी शाखा ॥ १९७ ॥

एवं माळोवाळी उत्तरोत्तरु | ऊर्ध्वशाखांचा पैसारु |
बुडीं साना अग्रीं थोरु | फळाढ्यपणें ॥ १९८ ॥

माळोवाळी=उंचच उंच शाखोपशाखी साना=लहान

वरी उपरिशाखाही पाठीं | येती फळभार जे किरीटी |
ते ब्रह्मेशांत अणगटीं | कोंभ निघती ॥ १९९ ॥

अणगटीं=टोकदार


फळाचेनि वोझेपणें | ऊर्ध्वीं वोवांडें दुणें |
जंव माघौतें बैसणें | मूळींचि होय ॥ २०० ॥

वोवांडें=खाली येणे

प्राकृताही तरी रुखा | जें फळें दाटलीं होय शाखा |
ते वोवांडली देखा | बुडासि ये ॥ २०१ ॥

प्राकृताही=सामन्य (वृक्ष)

तैसें जेथूनि हा आघवा | संसारतरूचा उठावा |
तियें मूळीं टेंकती पांडवा | वाढतेनि ज्ञानें ॥ २०२ ॥

म्हणौनि ब्रह्मेशानापरौतें | वाढणें नाहीं जीवातें |
तेथूनि मग वरौतें | ब्रह्मचि कीं ॥ २०३ ॥

ब्रह्मेशाना=ब्रह्मा व ईशान

परी हें असो ऐसें | ब्रह्मादिक ते आंगवसें |
ऊर्ध्वमुळासरिसें | न तुकती गा ॥ २०४ ॥

आंगवसें=स्वरूपत: तुकती=तुल्य
ऊर्ध्वमुळा=वरील मुळ (ब्रह्म)

आणीकही शाखा उपरता | जिया सनकादिक नामें विख्याता |
तिया फळीं मूळीं नाडळता | भरलिया ब्रह्मीं ॥ २०५ ॥

उपरता=वरील नाडळता=न अडकता

ऐसी मनुष्यापासूनि जाणावी | ऊर्ध्वीं ब्रह्मादिशेष पालवी |
शाखांची वाढी बरवी | उंचावे पैं ॥ २०६ ॥

पार्था ऊर्ध्वींचिया ब्रह्मादि | मनुष्यत्वचि होय आदि |
म्हणौनि इयें अधीं | म्हणितलीं मूळें ॥ २०७ ॥

एवं तुज अलौकिकु | हा अधोर्ध्वशाखु |
सांगितला भवरुखु | ऊर्ध्वमूळु ॥ २०८ ॥

आणि अधींचीं हीं मूळें | उपपत्ती परिसविली सविवळें |
आतां परिस उन्मूळें | कैसेनि हा ॥ २०९ ॥

सविवळें=विस्तार पूर्वक

by dr. vikrant tikone