Sunday, March 25, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १६ वा,ओव्या ३७८ ते ४३२



ज्ञानेश्वरी / अध्याय सोळावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ३७८  ते ४३२


आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥ १७॥


तैसें आपणयां आपण | मानितां महंतपण |
फुगती असाधारण | गर्वें तेणें ॥ ३७८ ॥

मग लवों नेणती कैसे | आटिवा लोहाचे खांब जैसे |
कां उधवले आकाशें | शिळाराशी ॥ ३७९ ॥

उधवले = वर येणे       शिळाराशी=पर्वत, डोंगर

तैसें आपुलिये बरवे | आपणचि रिझतां जीवें |
तृणाहीहूनि आघवें | मानिती नीच ॥ ३८० ॥

बरवे=चांगले म्हणणारे(स्तुती)

वरी धनाचिया मदिरा | माजूनि धनुर्धरा |
कृत्याकृत्यविचारा | सवतें केलें ॥ ३८१ ॥

जया आंगीं आयती ऐसी | तेथ यज्ञाची गोठी कायसी |
तरी काय काय पिसीं | न करिती गा ? ॥ ३८२ ॥

आयती=सामग्री

म्हणौनि कोणे एके वेळे | मौढ्यमद्याचेनि बळें |
यागाचींही टवाळें | आदरिती ॥ ३८३ ॥

ना कुंड मंडप वेदी | ना उचित साधनसमृद्धी |
आणि तयांसी तंव विधी | द्वंद्वचि सदा ॥ ३८४ ॥

द्वंद्वचि=वैर

देवां ब्राह्मणांचेनि नांवें | आडवारेनहि नोहावें |
ऐसें आथी तेथ यावें | लागे कवणा ? ॥ ३८५ ॥

यावें = या म्हणावे (निमंत्रण)

पैं वासरुवाचा भोकसा | गाईपुढें ठेवूनि जैसा |
उगाणा घेती क्षीररसा | बुद्धिवंत ॥ ३८६ ॥

उगाणा=मोजून (येथे काढून)

तैसें यागाचेनि नांवें | जग वाऊनि हांवें |
नागविती आघवें | अहेरावारी ॥ ३८७ ॥

वाऊनि=बोलावून

ऐशा कांहीं आपुलिया | होमिती जे उजरिया |
तेणें कामिती प्राणिया | सर्वनाशु ॥ ३८८ ॥

उजरिया=उत्कर्षा(साठी)

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधम् च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १८॥


मग पुढां भेरी निशाण | लाउनी ते दीक्षितपण |
जगीं फोकारिती आण | वावो वावो ॥ ३८९ ॥

फोकारिती=मिरवती  वावो=व्यर्थ

तेव्हां महत्त्वें तेणें अधमा | गर्वा चढे महिमा |
जैसे लेवे दिधले तमा | काजळाचे ॥ ३९० ॥

लेवे=लेप थर

तैसें मौढ्य घणावे | औद्धत्य उंचावे |
अहंकारु दुणावे | अविवेकुही ॥ ३९१ ॥

मग दुजयाची भाष | नुरवावया निःशेष |
बळीयेपणा अधिक | होय बळ ॥ ३९२ ॥

ऐसा अहंकार बळा | जालिया एकवळा |
दर्पसागरु मर्यादवेळा | सांडूनि उते ॥ ३९३ ॥

मग वोसंडिलेनि दर्पें | कामाही पित्त कुरुपे |
तया धगीं सैंघ पळिपे | क्रोधाग्नि तो ॥ ३९४ ॥

कुरुपे=प्रकोप होणे
सैंघ=एक सारखा  पळिपे=पेटतो

तेथ उन्हाळा आगी खरमरा | तेलातुपाचिया कोठारा |
लागला आणि वारा | सुटला जैसा ॥ ३९५ ॥

खरमरा=रखरखीत

तैसा अहंकारु बळा आला | दर्पु कामक्रोधीं गूढला |
या दोहींचा मेळु जाला | जयांच्या ठायीं ॥ ३९६ ॥

ते आपुलिया सवेशा | मग कोणी कोणी हिंसा |
या प्राणियांते वीरेशा | न साधती गा ? ॥ ३९७ ॥
सवेशा= स्व इच्छा
पहिलें तंव धनुर्धरा | आपुलिया मांसरुधिरा |
वेंचु करिती अभिचारा- | लागोनियां ॥ ३९८ ॥

तेथ जाळिती जियें देहें | या माजीं जो मी आहें |
तया आत्मया मज घाये | वाजती ते ॥ ३९९ ॥

आणि अभिचारकीं तिहीं | उपद्रविजे जेतुलें कांहीं |
तेथ चैतन्य मी पाहीं | सीणु पावे ॥ ४०० ॥

आणि अभिचारावेगळें | विपायें जे अवगळें |
तया टाकिती इटाळें | पैशून्याचीं ॥ ४०१ ॥

विपायें=चुकून  जे अवगळें=सुटतात
इटाळें=विटाचे तुकडे, दगड . पैशून्याचीं=दोष दृष्टी ने

सती आणि सत्पुरुख | दानशीळ याज्ञिक |
तपस्वी अलौकिक | संन्यासी जे ॥ ४०२ ॥

कां भक्त हन महात्मे | इयें माझीं निजाचीं धामें |
निर्वाळलीं होमधर्में | श्रौतादिकीं ॥ ४०३ ॥

निर्वाळलीं=चोखळ

तयां द्वेषाचेनि काळकूटें | बासटोनि |
कुबोलांचीं सदटें | सूति कांडें ॥ ४०४ ॥

बासटोनि=विष माखून तिखटें=तीक्ष्ण
सदटें =भडीमार  सूति=सोडतात  कांडें=बाण

तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १९॥


ऐसे आघवाचि परी | प्रवर्तले माझ्या वैरी |
तयां पापियां जें मी करीं | तें आइक पां ॥ ४०५ ॥

तरी मनुष्यदेहाचा तागा | घेऊनि रुसती जे जगा |
ते पदवी हिरोनि पैं गा | ऐसे ठेवीं ॥ ४०६ ॥

तागा=वस्त्र आधार

जे क्लेशगांवींचा उकरडा | भवपुरींचा पानवडा |
ते तमोयोनि तयां मूढां | वृत्तीचि दें ॥ ४०७ ॥

पानवडा=घान पाण्याचे डबके

मग आहाराचेनि नांवें | तृणही जेथ नुगवे |
ते व्याघ्र वृश्चिक आडवे | तैसिये करीं ॥ ४०८ ॥
 
तेथ क्षुधादुःखें बहुतें | तोडूनि खाती आपणयातें |
मरमरों मागुतें | होतचि असती ॥ ४०९ ॥

कां आपुला गरळजाळीं | जळिती आंगाची पेंदळी |
ते सर्पचि करीं बिळीं | निरुंधला ॥ ४१० ॥

पेंदळी=वेटोळे    निरुंधला=अडकला

परी घेतला श्वासु घापे | येतुलेनही मापें |
विसांवा तयां नाटोपे | दुर्जनांसी ॥ ४११ ॥

घापे =सोडला

ऐसेनि कल्पांचिया कोडी | गणितांही संख्या थोडी |
तेतुला वेळु न काढी | क्लेशौनि तयां ॥ ४१२ ॥

तरी तयांसी जेथ जाणें | तेथिंचें हें पहिलें पेणें |
तें पावोनि येरें दारुणें | न होती दुःखें ॥ ४१३ ॥

पेणें=मुक्काम

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥ २०॥


हा ठायवरी | संपत्ति ते आसुरी |
अधोगती अवधारीं | जोडिली तिहीं ॥ ४१४ ॥

पाठीं व्याघ्रादि तामसा | योनी तो अळुमाळु ऐसा |
देहाधाराचा उसासा | आथी जोही ॥ ४१५ ॥

अळुमाळु=थोडासा उसासा=विश्रांती जोही=मिळे

तोही मी वोल्हावा हिरें | मग तमचि होती एकसरें |
जेथे गेलें आंधारें | काळवंडैजे ॥ ४१६ ॥

अंधारही काळवंडतो

जयांची पापा चिळसी | नरक घेती विवसी |
शीण जाय मूर्च्छी | सिणें जेणें ॥ ४१७ ॥

चिळसी=घृणा विवसी=भय

मळु जेणें मैळे | तापु जेणें पोळे |
जयाचेनि नांवें सळे | महाभय ॥ ४१८ ॥

 सळे=घाबरे

पापा जयाचा कंटाळा | उपजे अमंगळ अमंगळा |
विटाळुही विटाळा | बिहे जया ॥ ४१९ ॥

ऐसें विश्वाचेया वोखटेया | अधम जे धनंजया |
तें ते होती भोगूनियां | तामसा योनी ॥ ४२० ॥

अहा सांगतां वाचा रडे | आठवितां मन खिरडे |
कटारे मूर्खीं केवढे | जोडिले निरय ॥ ४२१ ॥

खिरडे=मागे सरे   कटारे=अरेरे

कायिसया ते आसुर | संपत्ति पोषिती वाउर |
जिया दिधलें घोर | पतन ऐसें ॥ ४२२ ॥

 वाउर=व्यर्थ

म्हणौनि तुवां धनुर्धरा | नोहावें गा तिया मोहरा |
जेउता वासु आसुरा | संपत्तिवंता ॥ ४२३ ॥

आणि दंभादि दोष साही | हे संपूर्ण जयांच्या ठायीं |
ते त्यजावे हें काई | म्हणों कीर ? ॥ ४२४ ॥


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ॥ २१॥


परी काम क्रोध लोभ | या तिहींचेंही थोंब |
थांवे तेथें अशुभ | पिकलें जाण ॥ ४२५ ॥

थोंब=प्रस्थ थांवे=वाढे

सर्व दुःखां आपुलिया | दर्शना धनंजया |
पाढाऊ हे भलतया | दिधलें आहाती ॥ ४२६ ॥

पाढाऊ=वाटाड्या

कां पापियां नरकभोगीं | सुवावयालागीं जगीं |
पातकांची दाटुगी | सभाचि हे ॥ ४२७ ॥

सुवावयालागीं=घालण्यासाठी

ते रौरव गा तंवचिवरी | आइकिजती पटांतरीं |
जंव हे तिन्ही अंतरीं | उठती ना ॥ ४२८ ॥

पटांतरीं=आडपडदा

अपाय तिहीं आसलग | यातना इहीं सवंग |
हाणी हाणी नोहे हे तिघ | हेचि हाणी ॥ ४२९ ॥

आसलग=प्राप्ती  सवंग=स्वस्त

काय बहु बोलों सुभटा | सांगितलिया निकृष्टा |
नरकाचा दारवंटा | त्रिशंकु हा ॥ ४३० ॥

या कामक्रोधलोभां- | माजीं जीवें जो होय उभा |
तो निरयपुरीची सभा | सन्मानु पावे ॥ ४३१ ॥

म्हणौनि पुढत पुढतीं किरीटी | हे कामादि दोष त्रिपुटी |
त्यजावींचि गा वोखटी | आघवा विषयीं ॥ ४३२ ॥

by dr. vikrant tikone