ज्ञानेश्वरी / अध्याय
सोळावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या २६५ ते ३१३
दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥ ५॥
इया दोन्हींमाजीं पहिली | दैवी जे म्हणितली |
ते मोक्षसूर्यें पाहली | उखाचि जाण ॥ २६५ ॥
उखा =उषा
येरी जे दुसरी | संपत्ति कां आसुरी |
ते मोहलोहाची खरी | सांखळी जीवां ॥ २६६ ॥
परी हें आइकोनि झणें | भय घेसी हो मनें |
काय रात्रीचा दिनें | धाकु धरिजे ॥ २६७ ॥
हे आसुरी संपत्ति तया | बंधालागीं धनंजया |
जो साही दोषां ययां | आश्रयो होय ॥ २६८ ॥
तूं तंव पांडवा | सांगितलेया दैवा |
गुणनिधी बरवा | जन्मलासी ॥ २६९ ॥
म्हणौनि पार्था तूं या | दैवी संपत्ती स्वामिया |
होऊनि यावें उवाया | कैवल्याचिया ॥ २७० ॥
उवाया=बोध आनंद
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रुणु ॥ ६॥
आणि दैवां आसुरां | संपत्तिवंतां नरां |
अनादिसिद्ध उजगरा | राहाटीचा आहे ॥ २७१ ॥
उजगरा=मार्ग (रीत)
जैसें रात्रीच्या अवसरीं | व्यापारिजे निशाचरीं |
दिवसा सुव्यवहारीं | मनुष्यादिकीं ॥ २७२ ॥
तैसिया आपुलालिया राहाटीं | वर्तती दोन्ही सृष्टी |
दैवी आणि किरीटी | आसुरी येथ ॥ २७३ ॥
तेवींचि विस्तारूनि दैवी | ज्ञानकथनादि प्रस्तावीं |
मागील ग्रंथीं बरवी | सांगितली ॥ २७४ ॥
आतां आसुरी जे सृष्टी | तेथिंची उपलऊं गोठी |
अवधानाची दिठी | दे पां निकी ॥ २७५ ॥
उपलऊं=उलगडू
तरी वाद्येंवीण नादु | नेदी कवणाही सादु |
कां अपुष्पीं मकरंदु | न लभे जैसा ॥ २७६ ॥
तैसी प्रकृति हे आसुर | एकली नोहे गोचर |
जंव एकाधें शरीर | माल्हातीना ॥ २७७ ॥
माल्हातीना=आश्रय करणे
मग आविष्कारला लांकुडें | पावकु जैसा जोडे |
तैसी प्राणिदेहीं सांपडे | आटोपली हे ॥ २७८ ॥
आटोपली=ताबा घेणे व्यापणे
ते वेळीं जे वाढी ऊंसा | तेचि आंतुला रसा |
देहाकारु होय तैसा | प्राणियांचा ॥ २७९ ॥
आतां तयाचि प्राणियां | रूप करूं धनंजया |
घडले जे आसुरीया | दोषवृंदीं ॥ २८० ॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ ७॥
तरी पुण्यालागीं प्रवृत्ती | कां पापाविषयीं निवृत्ती |
या जाणणेयाची राती | तयांचें मन ॥ २८१ ॥
जाणणेयाची राती=आकलनातील अंधकार
निगणेया आणि प्रवेशा | चित्त नेदीतु आवेशा |
कोशकिटु जैसा | जाचिन्नला पैं ॥ २८२ ॥
जाचिन्नला=अडकला
कां दिधलें मागुती येईल | कीं न ये, हें पुढील |
न पाहातां, दे भांडवल | मूर्ख, चोरां ॥ २८३ ॥
तैसिया प्रवृत्ति निवृत्ति दोनी | नेणिजती आसुरीं जनीं |
आणि शौच ते स्वप्नीं | देखती ना ते ॥ २८४ ॥
काळिमा सांडील कोळसा | वरी चोखी होईल वायसा |
राक्षसही मांसा | विटों शके ॥ २८५ ॥
वायसा=कावळा
परी आसुरां प्राणियां | शौच नाहीं धनंजया |
पवित्रत्व जेवीं भांडिया | मद्याचिया ॥ २८६ ॥
वाढविती विधीची आस | कां पाहाती वडिलांची वास |
आचाराची भाष | नेणतीचि ते ॥ २८७ ॥
आस =(विधीनियम) इच्छा आकांशा वास=रीत मार्ग
जैसें चरणें शेळियेचें | कां धावणें वारियाचें |
जाळणें आगीचें | भलतेउतें ॥ २८८ ॥
तैसें पुढां सूनि स्वैर | आचरती ते गा आसुर |
सत्येंसि कीर वैर | सदाचि तयां ॥ २८९ ॥
जरी नांगिया आपुलिया | विंचू करी गुदगुलिया |
तरी साचा बोली बोलिया | बोलती ते ॥ २९० ॥
आपानाचेनि तोंडें | जरी सुगंधा येणें घडे |
तरी सत्य तयां जोडे | आसुरांतें ॥ २९१ ॥
ऐसें ते न करितां कांहीं | आंगेंचि वोखटे पाहीं |
आतां बोलती ते नवाई | सांगिजैल ॥ २९२ ॥
वोखटे=वाईट असतात पहा
एऱ्हवीं करेयाच्या ठायीं चांग | तें तयासि कैचें नीट आंग |
तैसा आसुरांचा प्रसंग | प्रसंगें परीस ॥ २९३ ॥
करेयाच्या=उंट
उधवणीचें जेवीं तोंड | उभळी धुंवाचे उभड |
हें जाणिजे तेवीं उघड | सांगों ते बोल ॥ २९४ ॥
उधवणीचें =धुरांडे उभड=लोट
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत् कामहैतुकम् ॥ ८॥
तरी विश्व हा अनादि ठावो | येथ नियंता ईश्वररावो |
चावडिये न्यावो अन्यावो | निवडी वेदु ॥ २९५ ॥
चावडिये=चावडी (ग्रामपंचायत)
वेदीं अन्यायीं पडे | तो निरयभोगें दंडे |
सन्यायी तो सुरवाडें | स्वर्गीं जिये ॥ २९६ ॥
ऐसी हे विश्वव्यवस्था | अनादि जे पार्था |
इयेतें म्हणती ते वृथा | अवघेंचि हें ॥ २९७ ॥
यज्ञमूढ ठकिले यागीं | देवपिसें प्रतिमालिंगीं |
नागविले भगवे योगी | समाधिभ्रमें ॥ २९८ ॥
नागविले भगवे योगी | समाधिभ्रमें ॥ २९८ ॥
येथ आपुलेनि बळें | भोगिजे जें जें वेंटाळें |
हें वांचोनि वेगळें | पुण्य आहे ? ॥ २९९ ॥
ना अशक्तपणें आंगिकें | वेगळवेंटाळीं न टकें |
ऐसा गादिजेवीण विषयसुखें | तेंचि पाप ॥ ३०० ॥
वेगळवेंटाळीं न
टकें=निरनिराळे भोग
गोळा करता येत नाही
गादिजे=पिडीत होणे
प्राण घेपती संपन्नांचे | ते पाप जरी साचें |
तरी सर्वस्व हाता ये तयांचें | हें पुण्यफळ कीं ? ॥ ३०१ ॥
बळी अबळातें खाय | हेंचि बाधित जरी होय |
तरी मासयां कां न होय | निसंतान ? ॥ ३०२ ॥
आणि कुळें शोधूनि दोन्ही | कुमारेंचि शुभलग्नीं |
मेळवीजती प्रजासाधनीं | हेतु जरी ॥ ३०३ ॥
तरी पशुपक्षादि जाती | जया मिती नाहीं संतती |
तयां कोणें प्रतिपत्तीं | विवाह केले ? ॥ ३०४ ॥
चोरियेचें धन आलें | तरी तें कोणासि विष जालें ? |
वालभें परद्वार केलें | कोढी कोणी होय ? ॥ ३०५ ॥
वालभें=पती
म्हणौनि देवो गोसांवी | तो धर्माधर्मु भोगवी |
आणि परत्राच्या गांवीं | करी तो भोगी ॥ ३०६ ॥
परत्राच्या=परलोक
परी परत्र ना देवो | न दिसे म्हणौनि तें वावो |
आणि कर्ता निमे मा ठावो | भोग्यासि कवणु ? ॥ ३०७ ॥
निमे=मरतो
येथ उर्वशिया इंद्र सुखी | जैसा कां स्वर्गलोकीं |
तैसाचि कृमिही नरकीं | लोळतु श्लाघे ॥ ३०८ ॥
श्लाघे=सुखाने
म्हणौनि नरक स्वर्गु | नव्हे पापपुण्यभागु |
जे दोहीं ठायीं सुखभोगु | कामाचाचि तो ॥ ३०९ ॥
याकारणें कामें | स्त्रीपुरुषयुग्में |
मिळती तेथ जन्मे | आघवें जग ॥ ३१० ॥
आणि जें जें अभिलाषें | स्वार्थालागीं हें पोषे |
पाठीं परस्परद्वेषें | कामचि नाशी ॥ ३११ ॥
एवं कामावांचूनि कांहीं | जगा मूळचि आन नाहीं |
ऐसें बोलती पाहीं | आसुर गा ते ॥ ३१२ ॥
आतां असो हें किडाळ | बोली न करूं पघळ |
सांगतांचि सफोल | होतसे वाचा ॥ ३१३ ॥
सुंदर !
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