Monday, December 31, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या ४०३ ते ४६०


ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ४०३ ते ४६०

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वाऽपि स इमा.ण्ल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ १७॥

ज्यास अहंभाव नाही ,बुध्दी लिप्त नाही त्याने सर्व लोक मारूनही ते कर्म त्यास बांधत नाही

तरी अविद्येचिया निदा | विश्वस्वप्नाचा हा धांदा |
भोगीत होता प्रबुद्धा | अनादि जो ॥ ४०३ ॥

तो महावाक्याचेनि नांवें | गुरुकृपेचेनि थांवें |
माथां हातु ठेविला नव्हे | थापटिला जैसा ॥ ४०४ ॥

थांवें=बळे

तैसा विश्वस्वप्नेंसीं माया | नीद सांडूनि धनंजया |
सहसा चेइला अद्वया\- | नंदपणें जो ॥ ४०५ ॥

तेव्हां मृगजळाचे पूर | दिसते एक निरंतर |
हारपती कां चंद्रकर | फांकतां जैसे ॥ ४०६ ॥

कां बाळत्व निघोनि जाय | तैं बागुला नाहीं त्राय |
पैं जळालिया इंधन न होय | इंधन जेवीं ॥ ४०७ ॥

त्राय=भय

नाना चेवो आलिया पाठीं | तैं स्वप्न न दिसे दिठी |
तैसी अहं ममता किरीटी | नुरेचि तया ॥ ४०८ ॥

मग सूर्यु आंधारालागीं | रिघो कां भलते सुरंगीं |
परी तो तयाच्या भागीं | नाहींचि जैसा ॥ ४०९ ॥

सुरंगीं=भुयार

तैसा आत्मत्वें वेष्टिला होये | तो जया जया दृश्यातें पाहें |
तें दृष्य द्रष्टेपणेंसीं होत जाये | तयाचेंचि रूप ॥ ४१० ॥

जैसा वन्हि जया लागे | तें वन्हिचि जालिया आंगें |
दाह्यदाहकविभागें | सांडिजे तें ॥ ४११ ॥

तैसा कर्माकारा दुजेया | तो कर्तेपणाचा आत्मया |
आळु आला तो गेलिया | कांहीं बाहीं जें उरे ॥ ४१२ ॥

तिये आत्मस्थितीचा जो रावो | मग तो देहीं इये जाणेल ठावो ? |
काय प्रलयांबूचा उन्नाहो | वोघु मानी ? ॥ ४१३ ॥

उन्नाहो= महापूर

तैसी ते पूर्ण अहंता | काई देहपणें पंडुसुता |
आवरे काई सविता | बिंबें धरिला ? ॥ ४१४ ॥

पूर्ण अहंता =अहंब्रहम भाव   बिंबें=प्रतिबिंब

पैं मथूनि लोणी घेपे | तें मागुती ताकीं घापे |
तरी तें अलिप्तपणें सिंपे | तेणेंसी काई ? ॥ ४१५ ॥

सिंपे=मिसळणे  (भिजणे)

नाना काष्ठौनि वीरेशा | वेगळा केलिया हुताशा |
राहे काष्ठाचिया मांदुसा | कोंडलेपणें ? ॥ ४१६ ॥

मांदुसा=पेटीत

कां रात्रीचिया उदराआंतु | निघाला जो हा भास्वतु |
तो रात्री ऐसी मातु | ऐके कायी ? ॥ ४१७ ॥

तैसें वेद्य वेदकपणेंसी | पडिलें कां जयाचे ग्रासीं |
तया देह मी ऐसी | अहंता कैंची ? ॥ ४१८ ॥

वेद्य =ज्ञेय   वेदकपणेंसी =ज्ञाता

आणि आकाशें जेथें जेथुनी | जाइजे तेथ असे भरोनी |
म्हणौनि ठेलें कोंदोनी | आपेंआप ॥ ४१९ ॥

आपेंआप =गगन गगनाने   

तैसें जें तेणें करावें | तो तेंचि आहे स्वभावें |
मा कोणें कर्मीं वेष्टावें | कर्तेपणें ? ॥ ४२० ॥

नुरेचि गगनावीण ठावो | नोहेचि समुद्रा प्रवाहो |
नुठीचि ध्रुवा जावों | तैसें जाहालें ॥ ४२१ ॥

ठावो =ठिकाण मुक्काम

ऐसेनि अहंकृतिभावो | जयाचा बोधीं जाहला वावो |
तऱ्ही देहा जंव निर्वाहो | तंव आथी कर्में ॥ ४२२ ॥

वारा जरी वाजोनि वोसरे | तरी तो डोल रुखीं उरे |
कां सेंदें द्रुति राहे कापुरें | वेंचलेनी ॥ ४२३ ॥

सेंदें = डबी करंडा

कां सरलेया गीताचा समारंभु | न वचे राहवलेपणाचा क्षोभु |
भूमी लोळोनि गेलिया अंबु | वोल थारे ॥ ४२४ ॥

राहवलेपणाचा क्षोभु = परिणाम , तरंग उर्मि
अंबु=पाणी

अगा मावळलेनि अर्कें | संध्येचिये भूमिके |
ज्योतिदीप्ति कौतुकें | दिसे जैसी ॥ ४२५ ॥

पैं लक्ष भेदिलियाहीवरी | बाण धांवेचि तंववरी |
जंव भरली आथी उरी | बळाची ते ॥ ४२६ ॥

नाना चक्रीं भांडें जालें | तें कुलालें परतें नेलें |
परी भ्रमेंचि तें मागिले | भोवंडिलेपणें ॥ ४२७ ॥

तैसा देहाभिमानु गेलिया | देह जेणें स्वभावें धनंजया |
जालें तें अपैसया | चेष्टवीच तें ॥ ४२८ ॥

संकल्पेंवीण स्वप्न | न लावितां दांगीचें बन |
न रचितां गंधर्वभुवन | उठी जैसें ॥ ४२९ ॥

दांगीचें=जंगलाचे


आत्मयाचेनि उद्यमेंवीण | तैसें देहादिपंचकारण |
होय आपणयां आपण | क्रियाजात ॥ ४३० ॥

क्रियाजात=कर्म करणे

पैं प्राचीनसंस्कारवशें | पांचही कारणें सहेतुकें |
कामवीजती गा अनेकें | कर्माकारें ॥ ४३१ ॥

कामवीजती=उत्पन्न होती

तया कर्मामाजीं मग | संहरो आघवें जग |
अथवा नवें चांग | अनुकरो ॥ ४३२ ॥

अनुकरो=घडो

परी कुमुद कैसेनि सुके | कैसें तें कमळ फांके |
हीं दोन्ही रवी न देखे | जयापरी ॥ ४३३ ॥

कां वीजु वर्षोनि आभाळ | ठिकरिया आतो भूतळ |
अथवा करूं शाड्वळ | प्रसन्नावृष्टी ॥ ४३४ ॥

शाड्वळ =मेघ

तरी तया दोहींतें जैसें | नेणिजेचि कां आकाशें |
तैसा देहींच जो असे | विदेहदृष्टी ॥ ४३५ ॥

तो देहादिकीं चेष्टीं | घडतां मोडतां हे सृष्टी |
न देखे स्वप्न दृष्टी | चेइला जैसा ॥ ४३६ ॥

येऱ्हवीं चामाचे डोळेवरी | जे देखती देहचिवरी |
ते कीर तो व्यापारी | ऐसेंचि मानिती ॥ ४३७ ॥

ते = इतरजन  व्यापारी=वर्तती

कां तृणाचा बाहुला | जो आगरामेरें ठेविला |
तो साचचि राखता कोल्हा | मानिजे ना ? ॥ ४३८ ॥

आगरामेरें = शेता  मध्ये

पिसें नेसलें कां नागवें | हें लोकीं येऊनि जाणावें |
ठाणोरियांचें मवावें | आणिकीं घाय ॥ ४३९ ॥

कां महासतीचे भोग | देखे कीर सकळ जग |
परी ते आगी ना आंग | ना लोकु देखे ॥ ४४० ॥

भोग=शृंगार

तैसा स्वस्वरूपें उठिला | जो दृश्येंसी द्रष्टा आटला |
तो नेणें काय राहटला | इंद्रियग्रामु ॥ ४४१ ॥

उठिला=जागा झाला

अगा थोरीं कल्लोळीं कल्लोळ साने | लोपतां तिरींचेनि जनें |
एकीं एक गिळिलें हें मनें | मानिजे जऱ्ही ॥ ४४२ ॥

थोरीं=मोठ्यात    साने =छोटे
तीरापलीकडील लोक

तऱ्ही उदकाप्रति पाहीं | कोण ग्रसितसे काई |
तैसें पूर्णा दुजें नाहीं | जें तो मारी ॥ ४४३ ॥

सुवर्णाचिया चंडिका | सुवर्णशूळेंचि देखा |
सुवर्णाचिया महिखा | नाशु केला ॥ ४४४ ॥

तो देवलवसिया कडा | व्यवहारु गमला फुडा |
वांचूनि शूळ महिष चामुंडा | सुवर्णचि तें ॥ ४४५ ॥

देवल=पुजारी
कडा =कडून    फुडा =खरा

पैं चित्रींचें जळ हुतांशु | तो दृष्टीचाचि आभासु |
पटीं आगी वोलांशु | दोन्ही नाहीं ॥ ४४६ ॥

मुक्ताचें देह तैसें | हालत संस्कारवशें |
तें देखोनि लोक पिसे | कर्ता म्हणती ॥ ४४७ ॥

आणि तयां करणेया आंतु | घडो तिहीं लोकां घातु |
परी तेणें केला हे मातु | बोलों नये ॥ ४४८ ॥

अगा अंधारुचि देखावा तेजें | मग तो फेडी हें बोलिजे |
तैसें ज्ञानिया नाहीं दुजें | जें तो मारी | ॥ ४४९ ॥

म्हणौनि तयाचि बुद्धी | नेणे पापपुण्याची गंधी |
गंगा मीनलिया नदी | विटाळु जैसा ॥ ४५० ॥

आगीसी आगी झगटलिया | काय पोळे धनंजया |
कीं शस्त्र रुपे आपणया | आपणचि ॥ ४५१ ॥

तैसें आपणपयापरतें | जो नेणें क्रियाजातातें |
तेथ काय लिंपवी बुद्धीतें | तयाचिये ॥ ४५२ ॥

लिंपवी =दूषित करणे

म्हणौनि कार्य कर्ता क्रिया | हें स्वरूपचि जाहलें जया |
नाहीं शरीरादिकीं तया | कर्मी बंधु ॥ ४५३ ॥

जे कर्ता जीव विंदाणीं | काढूनि पांचही खाणी |
घडित आहे करणीं | आउतीं दाहें ॥ ४५४ ॥

विंदाणीं =कौशल्याने  पांचही =पांच भूतात्मक देह
दाहें = दहा इंद्रिये
पांचही खाणी=कर्माची पाच करणे
या ५ खाणी काढून
इंद्रिय रूपी औताणे

तेथ न्यावो आणि अन्यावो | हा द्विविधु साधूनि आवो |
उभविता न लवी खेंवो | कर्मभुवनें ॥ ४५५ ॥

आवो =आकार  न लवी =क्षण न लावता

या थोराडा कीर कामा | विरजा नोहे आत्मा |
परी म्हणसी हन उपक्रमा | हातु लावी ॥ ४५६ ॥

विरजा=साहायक मदतीस

तो साक्षी चिद्रूपु | कर्मप्रवृत्तीचा संकल्पु |
उठी तो कां निरोपु | आपणचि दे ? ॥ ४५७ ॥
निरोपु=आज्ञा परवानगी
संकल्पाला आपणच निरोप देईल का


तरी कर्मप्रवृत्तीहीलागीं | तया आयासु नाहीं आंगीं |
जे प्रवृत्तीचेही उळिगीं | लोकुचि आथी ॥ ४५८ ॥

आयासु=श्रम
उळिगीं=सेवा करणारे
लोकुचि आथी= इतर लोक असतात

म्हणौनि आत्मयाचें केवळ | जो रूपचि जाहला निखिळ |
तया नाहीं बंदिशाळ | कर्माचि हे ॥ ४५९ ॥

परी अज्ञानाच्या पटीं | अन्यथा ज्ञानाचें चित्र उठी |
तेथ चितारणी हे त्रिपुटी | प्रसिद्ध जे कां ॥ ४६० ॥
by dr. vikrant tikone