Monday, December 31, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या ३५४ ते ४०२


ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ३५४ ते ४०२

शरीरवाण्‌मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥ १५॥

(देह वाचा मन यांनी केलेली न्याय अन्याय कर्मे या पाचा कडून  होतात)


तरी अवसांत आली माधवी | ते हेतु होय नवपल्लवीं |
पल्लव पुष्पपुंज दावी | पुष्प फळातें ॥ ३५४ ॥

माधवी=वसंत

कां वार्षिये आणिजे मेघु | मेघें वृष्टिप्रसंगु |
वृष्टीस्तव भोगु | सस्यसुखाचा ॥ ३५५ ॥

सस्य= धान्य

नातरी प्राची अरुणातें विये | अरुणें सूर्योदयो होये |
सूर्यें सगळा पाहे | दिवो जैसा ॥ ३५६ ॥

तैसें मन हेतु पांडवा | होय कर्मसंकल्पभावा |
तो संकल्पु लावी दिवा | वाचेचा गा ॥ ३५७ ॥

मग वाचेचा तो दिवटा | दावी कृत्यजातांचिया वाटा |
तेव्हां कर्ता रिगे कामठां | कर्तृत्वाच्या ॥ ३५८ ॥

कृत्यजातांचिया= कार्याच्या
कामठां= ,व्यापारास

तेथ शरीरादिक दळवाडें | शरीरादिकां हेतुचि घडे |
लोहकाम लोखंडें | निर्वाळिजे जैसें ॥ ३५९ ॥

निर्वाळिजे=करणे

कां तांथुवाचा ताणा | तांथु घालितां वैरणा |
तो तंतुचि विचक्षणा | होय पटु ॥ ३६० ॥

तांथुवाचा ताणा =ताणलेल्या तंतु मध्ये
तांथु घालितां वैरणा =आडवे तंतु घालणे

तैसें मनवाचादेहाचें | कर्म मनादि हेतुचि रचे |
रत्नीं घडे रत्नाचें | दळवाडें जेवीं ॥ ३६१ ॥

रत्नीं=रत्न दागिना

एथ शरीरादिकें कारणें | तेंचि हेतु केवीं हें कोणें |
अपेक्षिजे तरी तेणें | अवधारिजो ॥ ३६२ ॥

आइका सूर्याचिया प्रकाशा | हेतु कारण सूर्युचि जैसा |
कां ऊंसाचें कांडें ऊंसा | वाढी हेतु ॥ ३६३ ॥

नाना वाग्देवता वानावी | तैं वाचाचि लागे कामवावी |
कां वेदां वेदेंचि बोलावी | प्रतिष्ठा जेवीं ॥ ३६४ ॥

तैसें कर्मा शरीरादिकें | कारण हें कीर ठाउकें |
परी हेंचि हेतु न चुके | हेंही एथ ॥ ३६५ ॥

न चुके=हे विसरू नको (हे खोटे नाही बरे)  

आणि देहादिकीं कारणीं | देहादि हेतु मिळणीं |
होय जया उभारणी | कर्मजातां ॥ ३६६ ॥

तें शास्त्रार्थें मानिलेया | मार्गा अनुसरे धनंजया |
तरी न्याय तो न्याया | हेतु होय ॥ ३६७ ॥

जैसा पर्जन्योदकाचा लोटु | विपायें धरी साळीचा पाटु |
तो जिरे परी अचाटु | उपयोगु आथी ॥ ३६८ ॥

कां रोषें निघालें अवचटें | पडिलें द्वारकेचिया वाटे |
तें शिणे परी सुनाटें | न वचिती पदें ॥ ३६९ ॥

सुनाटें=व्यर्थ

तैसें हेतुकारण मेळें | उठी कर्म जें आंधळें |
तें शास्त्राचें लाहे डोळे | तैं न्याय म्हणिपे ॥ ३७० ॥

ना दूध वाढिता ठावो पावे | तंव उतोनि जाय स्वभावें |
तोही वेंचु परी नव्हे | वेंचिलें तें ॥ ३७१ ॥

ठावो पावे=भांड्याच्या वर आले
वेंचु=खर्च


तैसें शास्त्रसाह्येंवीण | केलें नोहे जरी अकारण |
तरी लागो कां नागवण | दानलेखीं ॥ ३७२ ॥

नागवण=लूट होणे ,फसवणे

अगा बावन्ना वर्णांपरता | कोण मंत्रु आहे पंडुसुता |
कां बावन्नही नुच्चारितां | जीवु आथी ? ॥ ३७३ ॥

परी मंत्राची कडसणी | जंव नेणिजे कोदंडपाणी |
तंव उच्चारफळ वाणी | न पवे जेवीं ॥ ३७४ ॥

कडसणी=हातोटी  रीत

तेवीं कारणहेतुयोगें | जें बिसाट कर्म निगे |
तें शास्त्राचिये न लगे | कांसे जंव ॥ ३७५ ॥

बिसाट=स्वैर सहज

कर्म होतचि असे तेव्हांही | परी तें होणें नव्हे पाहीं |
तो अन्यायो गा अन्यायीं | हेतु होय ॥ ३७६ ॥

(न्याय मार्ग न्याय कर्माला हेतु होतो या अर्थी )


तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥ १६॥

(आत्म्यास जो कर्ता मानतो तो संस्कारहीन दुर्मति मूढ, तत्व जाणत नाही )

एवं पंचकारणा कर्मा | पांचही हेतु हे सुमहिमा |
आतां एथें पाहें पां, आत्मा | सांपडला असे  ॥ ३७७ ॥

सांपडला असे = असा आहे की जसा

भानु न होनि रूपें जैसीं | चक्षुरूपातें प्रकाशी |
आत्मा न होनि कर्में तैसीं | प्रकटित असे गा ॥ ३७८ ॥

पैं प्रतिबिंब आरिसा | दोन्ही न होनि वीरेशा |
दोहींतें प्रकाशी जैसा | न्याहाळिता तो ॥ ३७९ ॥

प्रकाशी=जाणतो पाहतो

कां अहोरात्र सविता | न होनि करी पंडुसुता |
तैसा आत्मा कर्मकर्ता | न होनि दावी ॥ ३८० ॥

परी देहाहंमान भुली | जयाची बुद्धि देहींचि आतली |
तया आत्मविषयीं जाली | मध्यरात्री गा ॥ ३८१ ॥

आतली=चिकटली स्पर्श करून बसली

जेणें चैतन्या ईश्वरा ब्रह्मा | देहचि केलें परमसीमा |
तया आत्मा कर्ता हे प्रमा | अलोट उपजे ॥ ३८२ ॥

प्रमा=दृढ समजूत, निश्चित ज्ञान

आत्माचि कर्मकर्ता | हाही निश्चयो नाहीं तत्वतां |
देहोचि मी कर्मकर्ता | मानितो साचे ॥ ३८३ ॥

जे आत्मा मी कर्मातीतु | सर्वकर्मसाक्षिभूतु |
हे आपुली कहीं मातु | नायकेचि कानीं ॥ ३८४ ॥

म्हणौनि उमपा आत्मयातें | देहचिवरी मविजे एथें |
विचित्र काई रात्रि दिवसातें | डुडुळ न करी ? ॥ ३८५ ॥

उमपा=अफाट अनुपमेय डुडुळ = घुबड

पैं जेणें आकाशींचा कहीं | सत्य सूर्यु देखिला नाहीं |
तो थिल्लरींचें बिंब काई | मानू न लाहे ? ॥ ३८६ ॥

थिल्लराचेनि जालेपणें | सूर्यासि आणी होणें |
त्याच्या नाशीं नाशणें | कंपें कंपू ॥ ३८७ ॥

आणि निद्रिस्ता चेवो नये | तंव स्वप्न साच हों लाहे |
रज्जु नेणतां सापा बिहे | विस्मो कवण ? ॥ ३८८ ॥

जंव कवळ आथि डोळां | तंव चंद्रु देखावा कीं पिंवळा |
काय मृगींहीं मृगजळा | भाळावें नाहीं ? ॥ ३८९ ॥

कवळ=कावीळ

तैसा शास्त्रगुरूचेनि नांवे | जो वाराही टेंकों नेदी सिवें |
केवळ मौढ्याचेनिचि जीवें | जियाला जो ॥ ३९० ॥

मौढ्याचेनिचि=अज्ञान मूढता

तेणें देहात्मदृष्टीमुळें | आत्मया घापे देहाचें जाळें |
जैसा अभ्राचा वेगु कोल्हें | चंद्रीं मानीं ॥ ३९१ ॥

घापे=घालणे

मग तया मानणयासाठीं | देहबंदीशाळे किरीटी |
कर्माच्या वज्रगांठी | कळासे तो ॥ ३९२ ॥

कळासे= बांधला जातो कोंडला जातो

पाहे पां बद्ध भावना दृढा | नळियेवरी तो बापुडा |
काय मोकळेयाही पायाचा चवडा | न ठकेचि पुंसा | ॥ ३९३ ॥

 पुंसा=पोपट

म्हणौनि निर्मळा आत्मस्वरूपीं | तो प्रकृतीचें केलें आरोपी |
तो कल्पकोडीच्या मापीं | मवीचि कर्में ॥ ३९४ ॥

मवीचि=मोजतो

आता कर्मामाजीं असे | परी तयातें कर्म न स्पर्शे |
वडवानळातें जैसें | समुद्रोदक ॥ ३९५ ॥

वडवानळातें=समुद्रातील अग्नि

तैसेंनि वेगळेपणें | जयाचें कर्मीं असणें |
तो कीर वोळखावा कवणें | तरी सांगो ॥ ३९६ ॥

जे मुक्तातें निर्धारितां | लाभे आपलीच मुक्तता |
जैसी दीपें दिसें पाहतां | आपली वस्तु ॥ ३९७ ॥

निर्धारितां=वर्णन करता

नातरी दर्पणु जंव उटिजे | तंव आपणपयां आपण भेटिजे |
कां तोय पावतां तोय होईजे | लवणें जेंवीं ॥ ३९८ ॥

उटिजे=स्वछ करणे


हें असो परतोनि मागुतें | प्रतिबिंब पाहे बिंबातें |
तंव पाहणें जाउनी आयितें | बिंबचि होय ॥ ३९९ ॥

तैसें हारपलें आपणपें पावे | तैं संतांतें पाहतां गिंवसावें |
म्हणौनि वानावे ऐकावे | तेचि सदा ॥ ४०० ॥

वानावे=गुण गावे

परी कर्मीं असोनि कर्में | जो नावरे समेंविषमें |
चर्मचक्षूंचेनि चामें | दृष्टि जैसी ॥ ४०१ ॥

नावरे=व्यापला जाणे  समेंविषमें=शुभ अशुभ     

तैसा सोडवला जो आहे | तयाचें रूप आतां पाहें |
उपपत्तीची बाहे | उभऊनि सांगों ॥ ४०२ ॥

उपपत्तीची= तत्व दर्शन सिद्धांत , उगम

by dr. vikrant tikone


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