Monday, December 17, 2018

ज्ञानेश्वरी /अध्याय १८ वा ओव्या २०० ते २७७





ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर


ओव्या २०० ते २७७ 
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सण्‌गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ ९॥


तरी स्वाधिकाराचेनि नांवें | जें वांटिया आलें स्वभावें |
तें आचरे विधिगौरवें | शृंगारोनि ॥ २०० ॥


परी हें मी करितु असें | ऐसा आठवु त्यजी मानसें |
तैसेचि पाणी दे आशे | फळाचिये ॥ २०१ ॥

पैं अवज्ञा आणि कामना | मातेच्या ठायीं अर्जुना |
केलिया दोनी पतना | कारण होती ॥ २०२ ॥

तरी दोनीं यें त्यजावीं | मग माताची ते भजावी |
वांचूनि मुखालागीं वाळावी | गायचि सगळी ? ॥ २०३ ॥

मुखालागीं =गाय तोंडाने काहीही खाते म्हणून

आवडतियेही फळीं | असारें साली आंठोळीं |
त्यासाठीं अवगळी | फळातें कोण्ही ? ॥ २०४ ॥

अवगळी=त्याग करतो

तैसा कर्तृत्वाचा मदु | आणि कर्मफळाचा आस्वादु |
या दोहींचें नांव बंधु | कर्माचा कीं ॥ २०५ ॥

तरी या दोहींच्या विखीं | जैसा बापु नातळे लेंकीं |
तैसा हों न शके दुःखी | विहिता क्रिया ॥ २०६ ॥

हा तो त्याग तरुवरु | जो गा मोक्षफळें ये थोरु |
सात्विक ऐसा डगरु | यासींच जगीं ॥ २०७ ॥

डगरु = किर्ती

आतां जाळूनि बीज जैसें | झाडा कीजे निर्वंशें |
फळ त्यागूनि कर्म तैसें | त्यजिलें जेणें ॥ २०८ ॥

लोह लागतखेंवो परीसीं | धातूची गंधिकाळिमा जैसी |
जाती रजतमें तैसीं | तुटलीं दोन्ही ॥ २०९ ॥

मग सत्वें चोखाळें | उघडती आत्मबोधाचे डोळे |
तेथ मृगांबु सांजवेळे | होय जैसें ॥ २१० ॥

चोखाळें=शुध्द   मृगांबु=मृगजळ

तैसा बुद्ध्यादिकांपुढां | असतु विश्वाभासु हा येवढा |
तो न देखे कवणीकडां | आकाश जैसें ॥ २११ ॥

बुद्ध्यादिकांपुढां =बुध्दी आदि पुढे   कवणीकडां=कोठेही


न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥ १०॥


म्हणौनि प्राचिनाचेनि बळें | अलंकृतें कुशलाकुशलें |
तियें व्योमाआंगीं आभाळें | जिरालीं जैसीं ॥ २१२ ॥

प्राचिनाचेनि=प्रारब्धाने कुशलाकुशलें= चांगली वाईट

तैसीं तयाचिये दिठी | कर्में चोखाळलीं किरीटी |
म्हणौनि सुखदुःखीं उठी | पडेना तो ॥ २१३ ॥

चोखाळलीं=शुद्ध झाली

तेणें शुभकर्म जाणावें | मग तें हर्षें करावें |
कां अशुभालागीं होआवें | द्वेषिया ना ॥ २१४ ॥

तरी इयाविषयींचा कांहीं | तया एकुही संदेहो नाहीं |
जैसा स्वप्नाच्या ठायीं | जागिन्नलिया ॥ २१५ ॥

म्हणौनि कर्म आणि कर्ता | या द्वैतभावाची वार्ता |
नेणें तो पंडुसुता | सात्विक त्यागु ॥ २१६ ॥

ऐसेनि कर्में पार्था | त्यजिलीं त्यजिती सर्वथा |
अधिकें बांधिती अन्यथा | सांडिलीं तरी ॥ २१७ ॥

अधिकें=इतर सर्व


न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥ ११॥


आणि हां गा सव्यसाची | मूर्ति लाहोनि देहाची |
खंती करिती कर्माची | ते गांवढे गा ॥ २१८ ॥

मृत्तिकेचा वीटु | घेऊनि काय करील घटु ? |
केउता ताथु पटु | सांडील तो ? ॥ २१९ ॥

ताथु=धागा

तेवींचि वन्हित्व आंगीं | आणि उबे उबगणें आगी |
कीं तो दीपु प्रभेलागीं | द्वेषु करील काई ? ॥ २२० ॥

हिंगु त्रासिला घाणी | तरी कैचें सुगंधत्व आणी ? |
द्रवपण सांडूनि पाणी | कें राहे तें ? ॥ २२१ ॥
तैसा शरीराचेनि आभासें | नांदतु जंव असे |
तंव कर्मत्यागाचें पिसें | काइसें तरी ? ॥ २२२ ॥

आपण लाविजे टिळा | म्हणौनि पुसों ये वेळोवेळा |
मा घाली फेडी निडळा | कां करूं ये गा ? ॥ २२३ ॥

घाली फेडी =घेणे व त्यागणे  

तैसें विहित स्वयें आदरिलें | म्हणौनि त्यजूं ये त्यजिलें |
परी कर्मचि देह आतलें | तें कां सांडील गा ? ॥ २२४ ॥

जें श्वासोच्छ्वासवरी | होत निजेलियाहीवरी |
कांहीं न करणेंयाचि परी | होती जयाची ॥ २२५ ॥

या शरीराचेनि मिसकें | कर्मची लागलें असिकें |
जितां मेलया न ठाके | इया रीती ॥ २२६ ॥

मिसकें=मिषाने निमित्ताने असिकें=पुर्णपणे

यया कर्मातें सांडिती परी | एकीचि ते अवधारीं |
जे करितां न जाइजे हारीं | फळशेचिये ॥ २२७ ॥

हारीं=ताबा

कर्मफळ ईश्वरीं अर्पे | तत्प्रसादें बोधु उद्दीपें |
तेथ रज्जुज्ञानें लोपे | व्याळशंका ॥ २२८ ॥

तेणें आत्मबोधें तैसें | अविद्येसीं कर्म नाशे |
पार्था त्यजिजे जैं ऐसें | तैं त्यजिलें होय ॥ २२९ ॥

म्हणौनि इयापरी जगीं | कर्में करितां मानूं त्यागी |
येर मुर्छने नांव रोगी | विसांवा जैसा ॥ २३० ॥
तैसा कर्मीं शिणे एकीं | तो विसांवो पाहे आणिकीं |
दांडेयाचे घाय बुकी | धाडणें जैसें ॥ २३१ ॥

आणिकीं=दुसर्‍या कर्मात विश्रांति शोधतो
दांडेयाचे घाय बुकी धाडणें = दंडुक्याचा मार बुक्क्यांवर नेणे


परी हें असो पुढती | तोचि त्यागी त्रिजगतीं |
जेणें फळत्यागें निष्कृती | नेलें कर्म ॥ २३२ ॥


अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ॥ १२॥


येऱ्हवीं तरी धनंजया | त्रिविधा कर्मफळा गा यया |
समर्थ ते कीं भोगावया | जे न सांडितीचि आशा ॥ २३३ ॥

समर्थ=पात्र योग्य

आपणचि विऊनि दुहिता | कीं न मम म्हणे पिता |
तो सुटे कीं प्रतिग्रहीता | जांवई शिरके ॥ २३४ ॥

शिरके=गुंतणे अडकणे

विषाचे आगरही वाहती | तें विकितां सुखें लाभे जिती |
येर निमालें जे घेती | वेंचोनि मोलें ॥ २३५ ॥

निमालें=मेले

तैसें कर्ता कर्म करू | अकर्ता फळाशा न धरू |
एथ न शके आवरूं | दोहींतें कर्म ॥ २३६ ॥

वाटे पिकलिया रुखाचें | फळ अपेक्षी तयाचें |
तेवीं साधारण कर्माचें | फळ घे तया ॥ २३७ ॥

परी करूनि फळ नेघे | तो जगाच्या कामीं न रिघे |
जे त्रिविध जग अवघें | कर्मफळ हें ॥ २३८ ॥

कामीं न रिघे= कर्मात गुंता नाही


देव मनुष्य स्थावर | यया नांव जगडंबर |
आणि हे तंव तिन्ही प्रकार | कर्मफळांचे ॥ २३९ ॥

तेंचि एक गा अनिष्ट | एक तें केवळ इष्ट |
आणि एक इष्टानिष्ट | त्रिविध ऐसें ॥ २४० ॥

परी विषयमंतीं बुद्धी | आंगीं सूनि अविधी |
प्रवर्तती जे निषिद्धीं | कुव्यापारीं ॥ २४१ ॥

आंगीं सूनि=प्रवेशून  अविधी=पाप दुराचार  विधी असमंत

तेथ कृमि कीट लोष्ट | हे देह लाहती निकृष्ट |
तया नाम तें अनिष्ट | कर्मफळ ॥ २४२ ॥

लोष्ट=मातीचे ढेकूळ

कां स्वधर्मा मानु देतां | स्वाधिकारु पुढां सूतां |
सुकृत कीजे पुसतां | आम्नायातें ॥ २४३ ॥

पुढां सूतां =पाहून  आम्नायातें=वेदास

तैं इंद्रादिक देवांचीं | देहें लाहिजती सव्यसाची |
तया कर्मफळा इष्टाची | प्रसिद्धि गा ॥ २४४ ॥

आणि गोड आंबट मिळे | तेथ रसांतर फरसाळें |
उठी दोंही वेगळें | दोहीं जिणतें ॥ २४५ ॥

 फरसाळें=वेगळे भिन्न जिणतें=जिंकणारे वरचढ

रेचकुचि योगवशें | होय स्तंभावयादोषें |
तेवीं सत्यासत्य समरसें | सत्यासत्यचि जिणिजे ॥ २४६ ॥

स्तंभावयादोषें=कुंभकाला कारण

म्हणौनि समभागें शुभाशुभें | मिळोनि अनुष्ठानाचें उभें |
तेणें मनुष्यत्व लाभे | तें मिश्र फळ ॥ २४७ ॥

ऐसें त्रिविध यया भागीं | कर्मफळ मांडलेसें जगीं |
हें न सांडी तयां भोगीं | जें सूदले आशा ॥ २४८ ॥

सूदले=गुंतले

जेथें जिव्हेचा हातु फांटे | तंव जेवितां वाटे गोमटें |
मग परीणामीं शेवटें | अवश्य मरण ॥ २४९ ॥

संवचोरमैत्री चांग | जंव न पविजे तें दांग |
सामान्या भली आंग | न शिवे तंव ॥ २५० ॥

दांग=अरण्य   सामान्या =वारांगना

तैसीं कर्में करितां शरीरीं | लाहती महत्त्वाची फरारी |
पाठीं निधनीं एकसरी | पावती फळें ॥ २५१ ॥

 महत्त्वाची=मोठेपणा  फरारी = भरभराट

समर्थु आणि ऋणिया | मागों आला बाइणिया |
न लोटे तैसा प्राणिया | पडे तो भोगु ॥ २५२ ॥

बाइणिया=वायदा

मग कणिसौनि कणु झडे | तो विरूढला कणिसा चढे |
पुढती भूमी पडे | पुढती उठी ॥ २५३ ॥

तैसें भोगीं जें फळ होय | तें फळांतरें वीत जाय |
चालतां पावो पाय | जिणिजे जैसा ॥ २५४ ॥

पावो पाय=पावलाने पावुल{(चालणे)}{जिंकत} वाढत जाते

उताराचिये सांगडी | ठाके, ते ऐलीच थडी |
तेवीं न मुकीजती वोढी | भोग्याचिये ॥ २५५ ॥

उताराचिये =नदी पार करण्या    सांगडी= तराफा
वोढी=श्रम

पैं साध्यसाधनप्रकारें | फळभोगु तो पसरे |
एवं गोंविले संसारें | अत्यागी ते ॥ २५६ ॥

येऱ्हवीं जाईचियां फुलां फांकणें | त्याचि नाम जैसें सुकणें |
तैसें कर्ममिषें न करणें | केलें जिहीं ॥ २५७ ॥

जिहीं=ज्यांनी (दुसरे जे लोक)
 
बीजचि वरोसि वेंचे | तेथ वाढती कुळवाडी खांचे |
तेवीं फळत्यागें कर्माचें | सारिलें काम ॥ २५८ ॥

वरोसि=रोजच्या अन्न सामुग्रीसाठी (खाण्यासाठी )
कुळवाडी=शेत   खांचे= कमी होणे

ते सत्वशुद्धि साहाकारें | गुरुकृपामृततुषारें |
सासिन्नलेनि बोधें वोसरे | द्वैतदैन्य ॥ २५९ ॥

साहाकारें=  मदतीने   सासिन्नलेनि=भरास येणे
     वोसरे= कमी होणे

तेव्हां जगदाभासमिषें | स्फुरे तें त्रिविध फळ नाशे |
एथ भोक्ता भोग्य आपैसें | निमालें हें ॥ २६० ॥

घडे ज्ञानप्रधानु हा ऐसा | संन्यासु जयां वीरेशा |
तेचि फलभोग सोसा | मुकले गा ॥ २६१ ॥


आणि येणें कीर संन्यासें | जैं आत्मरूपीं दिठी पैसे |
तैं कर्म एक ऐसें | देखणें आहे ? २६२

स्वरूपाहून कर्म वेगळे कुठे दिसते

पडोनि गेलिया भिंती | चित्रांची केवळ होय माती |
कां पाहालेया राती | आंधारें उरे ? २६३

पाहालेया=पहाटे॰ उजाडता

जैं रूपचि नाहीं उभें | तैं साउली काह्याची शोभे ?|
दर्पणेवीण बिंबें | वदन कें पां? ॥ २६४ ॥

फिटलिया निद्रेचा ठावो | कैचा स्वप्नासि प्रस्तावो ? |
मग साच का वावो | कोण म्हणे ? ॥ २६५ ॥

तैसें गा संन्यासें येणें | मूळ अविद्येसीचि नाहीं जिणें |
मा तियेचें कार्य कोणें | घेपे दीजे ? ॥ २६६ ॥

म्हणौनि संन्यासी ये पाहीं | कर्माची गोठी कीजेल का |
परी अविद्या आपुलां देहीं | आहे जै कां ॥ २६७
 
जैं कर्तेपणाचेनि थांवें | आत्मा शुभाशुभीं धांवें |
दृष्टि भेदाचिये राणिवे | रचलीसे जैं ॥ २६८ ॥

थांवें=बळे

तैं तरी गा सुवर्मा | बिजावळी आत्मया कर्मा |
अपाडें जैसी पश्चिमा | पूर्वेसि कां ॥ २६९ ॥

बिजावळी=संबंध

नातरी आकाशा का आभाळा | सूर्या आणि मृगजळा |
बिजावळी भूतळा | वायूसि जैसी ॥ २७० ॥ .

पांघरौनि नईचें उदक | असे नईचिमाजीं खडक |
परी जाणिजे का वेगळिक | कोडीची ते ॥ २७१ ॥

कोडीची=फार भिन्न

हो कां उदकाजवळी | परी सिनानीचि ते बाबुळी |
काय संगास्तव काजळी | दीपु म्हणों ये ? ॥ २७२ ॥

सिनानीचि =वेगळीच   बाबुळी=शेवाळ

जरी चंद्रीं जाला कलंकु | तरी चंद्रेसीं नव्हे एकु |
आहे दृष्टी डोळ्यां विवेकु | अपाडु जेतुला ॥ २७३ ॥

अपाडु=मोठा(भेद)    विवेकु= विचार

नाना वाटा वाटे जातया | वोघा वोघीं वाहातया |
आरसा आरसां पाहातया | अपाडु जेतुला ॥ २७४ ॥
वाटे जातया=वाटसरु

पार्था गा तेतुलेनि मानें | आत्मेंनिसीं कर्म सिनें |
परी घेवविजे अज्ञानें | तें कीर ऐसें ॥ २७५ ॥

सिनें=वेगळे

विकाशें रवीतें उपजवी | द्रुती अलीकरवी भोगवी |
ते सरोवरीं कां बरवी | अब्जिनी जैसी ॥ २७६ ॥

विकाशें=उमलून  रवीतें उपजवी =रवी आल्याचे सूचित करते
द्रुती=सुगंध अब्जिनी=कमळीनी

पुढतपुढती आत्मक्रिया | अन्यकारणकाचि तैशिया |
करूं पांचांही तयां | कारणां रूप ॥ २७७ ॥

आत्मक्रिया=आत्म्या ठायी भासणरे कर्म
अन्यकारणकाचि=अन्य कारणाने
by dr. vikrant tikone

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