ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या २०० ते २७७
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सण्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ ९॥
तरी स्वाधिकाराचेनि नांवें | जें वांटिया आलें स्वभावें |
तें आचरे विधिगौरवें | शृंगारोनि ॥ २०० ॥
सण्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ ९॥
तरी स्वाधिकाराचेनि नांवें | जें वांटिया आलें स्वभावें |
तें आचरे विधिगौरवें | शृंगारोनि ॥ २०० ॥
परी हें मी करितु असें | ऐसा आठवु त्यजी मानसें |
तैसेचि पाणी दे आशे | फळाचिये ॥ २०१ ॥
पैं अवज्ञा आणि कामना | मातेच्या ठायीं अर्जुना |
केलिया दोनी पतना | कारण होती ॥ २०२ ॥
तरी दोनीं यें त्यजावीं | मग माताची ते भजावी |
वांचूनि मुखालागीं वाळावी | गायचि सगळी ? ॥ २०३ ॥
मुखालागीं =गाय तोंडाने काहीही खाते
म्हणून
आवडतियेही फळीं | असारें साली आंठोळीं |
त्यासाठीं अवगळी | फळातें कोण्ही ? ॥ २०४ ॥
अवगळी=त्याग करतो
तैसा कर्तृत्वाचा मदु | आणि कर्मफळाचा आस्वादु |
या दोहींचें नांव बंधु | कर्माचा कीं ॥ २०५ ॥
तरी या दोहींच्या विखीं | जैसा बापु नातळे लेंकीं |
तैसा हों न शके दुःखी | विहिता क्रिया ॥ २०६ ॥
हा तो त्याग तरुवरु | जो गा मोक्षफळें ये थोरु |
सात्विक ऐसा डगरु | यासींच जगीं ॥ २०७ ॥
डगरु = किर्ती
आतां जाळूनि बीज जैसें | झाडा कीजे निर्वंशें |
फळ त्यागूनि कर्म तैसें | त्यजिलें जेणें ॥ २०८ ॥
लोह लागतखेंवो परीसीं | धातूची गंधिकाळिमा जैसी |
जाती रजतमें तैसीं | तुटलीं दोन्ही ॥ २०९ ॥
मग सत्वें चोखाळें | उघडती आत्मबोधाचे डोळे |
तेथ मृगांबु सांजवेळे | होय जैसें ॥ २१० ॥
चोखाळें=शुध्द मृगांबु=मृगजळ
तैसा बुद्ध्यादिकांपुढां | असतु विश्वाभासु हा येवढा |
तो न देखे कवणीकडां | आकाश जैसें ॥ २११ ॥
बुद्ध्यादिकांपुढां =बुध्दी आदि पुढे कवणीकडां=कोठेही
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥ १०॥
म्हणौनि प्राचिनाचेनि बळें | अलंकृतें कुशलाकुशलें |
तियें व्योमाआंगीं आभाळें | जिरालीं जैसीं ॥ २१२ ॥
प्राचिनाचेनि=प्रारब्धाने कुशलाकुशलें= चांगली वाईट
तैसीं तयाचिये दिठी | कर्में चोखाळलीं किरीटी |
म्हणौनि सुखदुःखीं उठी | पडेना तो ॥ २१३ ॥
चोखाळलीं=शुद्ध झाली
तेणें शुभकर्म जाणावें | मग तें हर्षें करावें |
कां अशुभालागीं होआवें | द्वेषिया ना ॥ २१४ ॥
तरी इयाविषयींचा कांहीं | तया एकुही संदेहो नाहीं |
जैसा स्वप्नाच्या ठायीं | जागिन्नलिया ॥ २१५ ॥
म्हणौनि कर्म आणि कर्ता | या द्वैतभावाची वार्ता |
नेणें तो पंडुसुता | सात्विक त्यागु ॥ २१६ ॥
ऐसेनि कर्में पार्था | त्यजिलीं त्यजिती सर्वथा |
अधिकें बांधिती अन्यथा | सांडिलीं तरी ॥ २१७ ॥
अधिकें=इतर सर्व
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥ ११॥
आणि हां गा सव्यसाची | मूर्ति लाहोनि देहाची |
खंती करिती कर्माची | ते गांवढे गा ॥ २१८ ॥
मृत्तिकेचा वीटु | घेऊनि काय करील घटु ? |
केउता ताथु पटु | सांडील तो ? ॥ २१९ ॥
ताथु=धागा
तेवींचि वन्हित्व आंगीं | आणि उबे उबगणें आगी |
कीं तो दीपु प्रभेलागीं | द्वेषु करील काई ? ॥ २२० ॥
हिंगु त्रासिला घाणी | तरी कैचें सुगंधत्व आणी ? |
द्रवपण सांडूनि पाणी | कें राहे तें ? ॥ २२१ ॥
तैसा शरीराचेनि आभासें | नांदतु जंव असे |
तंव कर्मत्यागाचें पिसें | काइसें तरी ? ॥ २२२ ॥
आपण लाविजे टिळा | म्हणौनि पुसों ये वेळोवेळा |
मा घाली फेडी निडळा | कां करूं ये गा ? ॥ २२३ ॥
घाली
फेडी =घेणे व त्यागणे
तैसें विहित स्वयें आदरिलें | म्हणौनि त्यजूं ये त्यजिलें |
परी कर्मचि देह आतलें | तें कां सांडील गा ? ॥ २२४ ॥
जें श्वासोच्छ्वासवरी | होत निजेलियाहीवरी |
कांहीं न करणेंयाचि परी | होती जयाची ॥ २२५ ॥
या शरीराचेनि मिसकें | कर्मची लागलें असिकें |
जितां मेलया न ठाके | इया रीती ॥ २२६ ॥
मिसकें=मिषाने निमित्ताने असिकें=पुर्णपणे
यया कर्मातें सांडिती परी | एकीचि ते अवधारीं |
जे करितां न जाइजे हारीं | फळशेचिये ॥ २२७ ॥
हारीं=ताबा
कर्मफळ ईश्वरीं अर्पे | तत्प्रसादें बोधु उद्दीपें |
तेथ रज्जुज्ञानें लोपे | व्याळशंका ॥ २२८ ॥
तेणें आत्मबोधें तैसें | अविद्येसीं कर्म नाशे |
पार्था त्यजिजे जैं ऐसें | तैं त्यजिलें होय ॥ २२९ ॥
म्हणौनि इयापरी जगीं | कर्में करितां मानूं त्यागी |
येर मुर्छने नांव रोगी | विसांवा जैसा ॥ २३० ॥
तैसा कर्मीं शिणे एकीं | तो विसांवो पाहे आणिकीं |
दांडेयाचे घाय बुकी | धाडणें जैसें ॥ २३१ ॥
आणिकीं=दुसर्या कर्मात विश्रांति
शोधतो
दांडेयाचे
घाय बुकी धाडणें = दंडुक्याचा मार बुक्क्यांवर
नेणे
परी हें असो पुढती | तोचि त्यागी त्रिजगतीं |
जेणें फळत्यागें निष्कृती | नेलें कर्म ॥ २३२ ॥
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ॥ १२॥
येऱ्हवीं तरी धनंजया | त्रिविधा कर्मफळा गा यया |
समर्थ ते कीं भोगावया | जे न सांडितीचि आशा ॥ २३३ ॥
समर्थ=पात्र योग्य
आपणचि विऊनि दुहिता | कीं न मम म्हणे पिता |
तो सुटे कीं प्रतिग्रहीता | जांवई शिरके ॥ २३४ ॥
शिरके=गुंतणे अडकणे
विषाचे आगरही वाहती | तें विकितां सुखें लाभे जिती |
येर निमालें जे घेती | वेंचोनि मोलें ॥ २३५ ॥
निमालें=मेले
तैसें कर्ता कर्म करू | अकर्ता फळाशा न धरू |
एथ न शके आवरूं | दोहींतें कर्म ॥ २३६ ॥
वाटे पिकलिया रुखाचें | फळ अपेक्षी तयाचें |
तेवीं साधारण कर्माचें | फळ घे तया ॥ २३७ ॥
परी करूनि फळ नेघे | तो जगाच्या कामीं न रिघे |
जे त्रिविध जग अवघें | कर्मफळ हें ॥ २३८ ॥
कामीं न
रिघे= कर्मात गुंता नाही
देव मनुष्य स्थावर | यया नांव जगडंबर |
आणि हे तंव तिन्ही प्रकार | कर्मफळांचे ॥ २३९ ॥
तेंचि एक गा अनिष्ट | एक तें केवळ इष्ट |
आणि एक इष्टानिष्ट | त्रिविध ऐसें ॥ २४० ॥
परी विषयमंतीं बुद्धी | आंगीं सूनि अविधी |
प्रवर्तती जे निषिद्धीं | कुव्यापारीं ॥ २४१ ॥
आंगीं
सूनि=प्रवेशून अविधी=पाप दुराचार
विधी असमंत
तेथ कृमि कीट लोष्ट | हे देह लाहती निकृष्ट |
तया नाम तें अनिष्ट | कर्मफळ ॥ २४२ ॥
लोष्ट=मातीचे ढेकूळ
कां स्वधर्मा मानु देतां | स्वाधिकारु पुढां सूतां |
सुकृत कीजे पुसतां | आम्नायातें ॥ २४३ ॥
पुढां
सूतां =पाहून आम्नायातें=वेदास
तैं इंद्रादिक देवांचीं | देहें लाहिजती सव्यसाची |
तया कर्मफळा इष्टाची | प्रसिद्धि गा ॥ २४४ ॥
आणि गोड आंबट मिळे | तेथ रसांतर फरसाळें |
उठी दोंही वेगळें | दोहीं जिणतें ॥ २४५ ॥
फरसाळें=वेगळे भिन्न जिणतें=जिंकणारे वरचढ
रेचकुचि योगवशें | होय स्तंभावयादोषें |
तेवीं सत्यासत्य समरसें | सत्यासत्यचि जिणिजे ॥ २४६ ॥
स्तंभावयादोषें=कुंभकाला कारण
म्हणौनि समभागें शुभाशुभें | मिळोनि अनुष्ठानाचें उभें |
तेणें मनुष्यत्व लाभे | तें मिश्र फळ ॥ २४७ ॥
ऐसें त्रिविध यया भागीं | कर्मफळ मांडलेसें जगीं |
हें न सांडी तयां भोगीं | जें सूदले आशा ॥ २४८ ॥
सूदले=गुंतले
जेथें जिव्हेचा हातु फांटे | तंव जेवितां वाटे गोमटें |
मग परीणामीं शेवटें | अवश्य मरण ॥ २४९ ॥
संवचोरमैत्री चांग | जंव न पविजे तें दांग |
सामान्या भली आंग | न शिवे तंव ॥ २५० ॥
दांग=अरण्य सामान्या =वारांगना
तैसीं कर्में करितां शरीरीं | लाहती महत्त्वाची फरारी |
पाठीं निधनीं एकसरी | पावती फळें ॥ २५१ ॥
महत्त्वाची=मोठेपणा फरारी = भरभराट
समर्थु आणि ऋणिया | मागों आला बाइणिया |
न लोटे तैसा प्राणिया | पडे तो भोगु ॥ २५२ ॥
न लोटे तैसा प्राणिया | पडे तो भोगु ॥ २५२ ॥
बाइणिया=वायदा
मग कणिसौनि कणु झडे | तो विरूढला कणिसा चढे |
पुढती भूमी पडे | पुढती उठी ॥ २५३ ॥
तैसें भोगीं जें फळ होय | तें फळांतरें वीत जाय |
चालतां पावो पाय | जिणिजे जैसा ॥ २५४ ॥
पावो
पाय=पावलाने पावुल{(चालणे)}{जिंकत} वाढत जाते
उताराचिये सांगडी | ठाके, ते ऐलीच थडी |
तेवीं न मुकीजती वोढी | भोग्याचिये ॥ २५५ ॥
उताराचिये
=नदी पार करण्या सांगडी= तराफा
वोढी=श्रम
पैं साध्यसाधनप्रकारें | फळभोगु तो पसरे |
एवं गोंविले संसारें | अत्यागी ते ॥ २५६ ॥
येऱ्हवीं जाईचियां फुलां फांकणें | त्याचि नाम जैसें सुकणें |
तैसें कर्ममिषें न करणें | केलें जिहीं ॥ २५७ ॥
जिहीं=ज्यांनी (दुसरे जे लोक)
बीजचि वरोसि वेंचे | तेथ वाढती कुळवाडी खांचे |
तेवीं फळत्यागें कर्माचें | सारिलें काम ॥ २५८ ॥
वरोसि=रोजच्या
अन्न सामुग्रीसाठी (खाण्यासाठी )
कुळवाडी=शेत खांचे= कमी होणे
ते सत्वशुद्धि साहाकारें | गुरुकृपामृततुषारें |
सासिन्नलेनि बोधें वोसरे | द्वैतदैन्य ॥ २५९ ॥
साहाकारें= मदतीने सासिन्नलेनि=भरास येणे
वोसरे= कमी होणे
तेव्हां जगदाभासमिषें | स्फुरे तें त्रिविध फळ नाशे |
एथ भोक्ता भोग्य आपैसें | निमालें हें ॥ २६० ॥
घडे ज्ञानप्रधानु हा ऐसा | संन्यासु जयां वीरेशा |
तेचि फलभोग सोसा | मुकले गा ॥ २६१ ॥
आणि येणें कीर संन्यासें | जैं आत्मरूपीं दिठी पैसे |
तैं कर्म एक ऐसें | देखणें आहे ? ॥ २६२ ॥
स्वरूपाहून
कर्म वेगळे कुठे दिसते
पडोनि गेलिया भिंती | चित्रांची केवळ होय माती |
कां पाहालेया राती | आंधारें उरे ? ॥ २६३ ॥
पाहालेया=पहाटे॰ उजाडता
जैं रूपचि नाहीं उभें | तैं साउली काह्याची शोभे ?|
दर्पणेवीण बिंबें | वदन कें पां? ॥ २६४ ॥
फिटलिया निद्रेचा ठावो | कैचा स्वप्नासि प्रस्तावो ? |
मग साच का वावो | कोण म्हणे ? ॥ २६५ ॥
तैसें गा संन्यासें येणें | मूळ अविद्येसीचि नाहीं जिणें |
मा तियेचें कार्य कोणें | घेपे दीजे ? ॥ २६६ ॥
म्हणौनि संन्यासी ये पाहीं | कर्माची गोठी कीजेल काई |
परी अविद्या आपुलां देहीं | आहे जै कां ॥ २६७ ॥
जैं कर्तेपणाचेनि थांवें | आत्मा शुभाशुभीं धांवें |
दृष्टि भेदाचिये राणिवे | रचलीसे जैं ॥ २६८ ॥
थांवें=बळे
तैं तरी गा सुवर्मा | बिजावळी आत्मया कर्मा |
अपाडें जैसी पश्चिमा | पूर्वेसि कां ॥ २६९ ॥
बिजावळी=संबंध
नातरी आकाशा का आभाळा | सूर्या आणि मृगजळा |
बिजावळी भूतळा | वायूसि जैसी ॥ २७० ॥ .
पांघरौनि नईचें उदक | असे नईचिमाजीं खडक |
परी जाणिजे का वेगळिक | कोडीची ते ॥ २७१ ॥
कोडीची=फार भिन्न
हो कां उदकाजवळी | परी सिनानीचि ते बाबुळी |
काय संगास्तव काजळी | दीपु म्हणों ये ? ॥ २७२ ॥
सिनानीचि
=वेगळीच बाबुळी=शेवाळ
जरी चंद्रीं जाला कलंकु | तरी चंद्रेसीं नव्हे एकु |
आहे दृष्टी डोळ्यां विवेकु | अपाडु जेतुला ॥ २७३ ॥
अपाडु=मोठा(भेद) विवेकु= विचार
नाना वाटा वाटे जातया | वोघा वोघीं वाहातया |
आरसा आरसां पाहातया | अपाडु जेतुला ॥ २७४ ॥
वाटे
जातया=वाटसरु
पार्था गा तेतुलेनि मानें | आत्मेंनिसीं कर्म सिनें |
परी घेवविजे अज्ञानें | तें कीर ऐसें ॥ २७५ ॥
सिनें=वेगळे
विकाशें रवीतें उपजवी | द्रुती अलीकरवी भोगवी |
ते सरोवरीं कां बरवी | अब्जिनी जैसी ॥ २७६ ॥
विकाशें=उमलून रवीतें उपजवी =रवी आल्याचे सूचित करते
द्रुती=सुगंध अब्जिनी=कमळीनी
पुढतपुढती आत्मक्रिया | अन्यकारणकाचि तैशिया |
करूं पांचांही तयां | कारणां रूप ॥ २७७ ॥
आत्मक्रिया=आत्म्या ठायी भासणरे कर्म
अन्यकारणकाचि=अन्य कारणाने
by dr. vikrant tikone
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