ज्ञानेश्वरी
/अध्याय पंधरावा /संत ज्ञानेश्वर
ओव्या २१० ते २६६
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३॥
परी तुझ्या हन पोटीं | ऐसें गमेल किरीटी |
जे एवढें झाड उत्पाटी | ऐसें कायि असे ? ॥ २१० ॥
उत्पाटी=उपटण्यास
कें ब्रह्मयाच्या शेवटवरी | ऊर्ध्व शाखांची थोरी |
आणि मूळ तंव निराकारीं | ऊर्ध्वीं असे ॥ २११ ॥
हा स्थावराही तळीं | फांकत असे अधींच्या डाळीं |
माजीं धांवतसे दुजा मूळीं | मनुष्यरूपीं ॥ २१२ ॥
ऐसा गाढा आणि अफाटु | आतां कोण करी यया शेवटु |
तरी झणीं हा हळुवटु | धरिसी भावो ॥ २१३ ॥
झणीं =नको हळुवटु=क्षुद्र
परी हा उन्मूळावया दोषें | येथ सायासचि कायिसे |
काय बाळा बागुल देशें | दवडावा आहे ? ॥ २१४ ॥
गंधर्वदुर्ग कायी पाडावे | काय शशविषाण मोडावें |
होआवें मग तोडावें | खपुष्प कीं ? ॥ २१५ ॥
गंधर्वदुर्ग=ढगांचा महाल शशविषाण=सश्याचे शिंग
खपुष्प=आकाश फुले
तैसा संसारु हा वीरा | रुख नाहीं साचोकारा |
मा उन्मूळणीं दरारा | कायिसा तरी ? ॥ २१६ ॥
दरारा=भीती
आम्हीं सांगितली जे परी | मूळडाळांची उजरी |
ते वांझेचीं घरभरी | लेकुरें जैशीं ॥ २१७ ॥
उजरी=वाढ उत्कर्ष
कय कीजती चेइलेपणीं | स्वप्नींचीं तिये बोलणीं |
तैशी जाण ते काहाणी | दुगळींचि ते ॥ २१८ ॥
दुगळींचि=पोकळ
वांचूनि आम्हीं निरूपिलें जैसें | ययाचे अचळ मूळ असे तैसें |
आणि तैसाचि जरी हा असे | साचोकारा ॥ २१९ ॥
तरी कोणाचेनि संतानें | निपजती तया उन्मूळणें |
काय फुंकिलिया गगनें | जाइजेल गा ॥ २२० ॥
संतानें=जन्म घेणे
म्हणौनि पैं धनंजया | आम्हीं वानिलें रूप तें माया |
कासवीचेनि तुपें राया | वोगरिलें जैसें ॥ २२१ ॥
मृगजळाचीं गा तळीं | तिये दिठी दुरूनि न्याहाळीं |
वांचूनि तेणें पाणियें साळी केळी | लाविसी काई ? ॥ २२२ ॥
मूळ अज्ञानचि तंव लटिकें | मा तयाचें कार्य हें केतुकें |
म्हणौनि संसाररुख सतुकें | वावोचि गा ॥ २२३ ॥
सतुकें=तसे पाहता ,तुलनात्मक दृष्टीने
आणि अंतु यया नाहीं | ऐसें बोलिजे जें कांहीं |
तेंही साचचि पाहीं | येकें परी ॥ २२४ ॥
तरी प्रबोधु जंव नोहे | तंव निद्रे काय अंतु आहे ? |
कीं रात्री न सरे तंव न पाहे | तया आरौतें ? ॥ २२५ ॥
प्रबोधु =जाग पाहे =पहाट आरौतें =अलिकडे पूर्वी
तैसा जंव पार्था | विवेकु नुधवी माथा |
तंव अंतु नाहीं अश्वत्था | भवरूपा या ॥ २२६ ॥
नुधवी=उदय होणे
वाजतें वारें निवांत | जंव न राहे जेथिंचें तेथ |
तंव तरंगतां अनंत | म्हणावीचि कीं ॥ २२७ ॥
म्हणौनि सूर्यु जैं हारपे | तैं मृगजळाभासु लोपे |
कां प्रभा जाय दीपें | मालवलेनि ॥ २२८ ॥
तैसें मूळ अविद्या खाये | तें ज्ञान जैं उभें होये |
तैंचि यया अंतु आहे | एऱ्हवीं नाहीं ॥ २२९ ॥
तेवींचि हा अनादी | ऐसी ही आथी शाब्दी |
तो आळु नोहे अनुरोधी | बोलातें या ॥ २३० ॥
शाब्दी =केवळ वर्णन ,बोल आळु=खोटे
अनुरोधी=तर वरील विवेचनाला धरून
जें संसारवृक्षाच्या ठायीं | साचोकार तंव नाहीं |
मा नाहीं तया आदि काई | कोण होईल ? ॥ २३१ ॥
साचोकार=खरेपण
जो साच जेथूनि उपजे | तयातें आदि हें साजे |
आतां नाहींचि तो म्हणिजे | कोठूनियां ? ॥ २३२ ॥
म्हणौनि जन्मे ना आहे | ऐसिया सांगों कवण माये |
यालागीं नाहींपणेंचि होये | अनादि हा ॥ २३३ ॥
वांझेचिया लेंका | कैंची जन्मपत्रिका |
नभीं निळी भूमिका | कें कल्पूं पां ॥ २३४ ॥
निळी भूमिका=निळे रंग रूप
व्योमकुसुमांचा पांडवा | कवणें देंठु तोडावा |
म्हणौनि नाहीं ऐसिया भवा | आदि कैंची ? ॥ २३५ ॥
जैसें घटाचें नाहींपण | असतचि असे केलेनिवीण |
तैसा समूळ वृक्षु जाण | अनादि हा ॥ २३६ ॥
केलेनिवीण = केल्या वाचून
अर्जुना ऐसेनि पाहीं | आद्यंतु ययासि नाहीं |
माजीं स्थिती आभासे कांहीं | परी टवाळ ते ॥ २३७ ॥
टवाळ=खोटे
ब्रह्मगिरीहूनि न निगे | आणि समुद्रींही कीर न रिगे |
माजीं दिसे वाउगें | मृगांबु जैसें ॥ २३८ ॥
तेसा आद्यंती कीर नाहीं | आणि साचही नोहे कहीं |
परी लटिकेपणाची नवाई | पडिभासे गा ॥ २३९ ॥
पडिभासे=भासते
नाना रंगीं गजबजे | जैसें इंद्रधनुष्य देखिजे |
तैसा नेणतया आपजे | आहे ऐसा ॥ २४० ॥
आपजे=वाटतो
ऐसेनि स्थितीचिये वेळे | भुलवी अज्ञानाचे डोळे |
लाघवी हरी मेखळे | लोकु जैसा ॥ २४१ ॥
लाघवी=बहुरूपी हरी मेखळे=भूल घालतो
,वेषांतराने
आणि नसतीचि श्यामिका | व्योमीं दिसे तैसी दिसो कां |
तरी दिसणेंही क्षणा एका | होय जाय ॥ २४२ ॥
श्यामिका=निळाई
स्वप्नींही मानिलें लटिकें | तरी निर्वाहो कां एकसारिखें |
तेवीं आभासु हा क्षणिकें | रिताचि गा ॥ २४३ ॥
मानिलें =खरे मानले
एकसारिखें=सतत
देखतां आहे आवडें | घेऊं जाइजे तरी नातुडे |
जैसा टिकु कीजे माकडें | जळामाजीं ॥ २४४ ॥
आवडें=वाटते नातुडे=सापडत नाही
टिकु कीजे=पाण्यात बोट घालणे .(प्रतिमा पकडण्यास)
तरंगभंगु सांडीं पडे | विजूही न पुरे होडे |
आभासासि तेणें पाडें | होणें जाणें गा ॥ २४५ ॥
तरंगभंगु सांडीं पडे = मागे पडणे
विजूही=वीज होडे =शर्यतीत हार
खाणे
जैसा ग्रीष्मशेषींचा वारा | नेणिजे समोर कीं पाठीमोरा |
तैसी स्थिती नाहीं तरुवरा | भवरूपा यया ॥ २४६ ॥
एवं आदि ना अंतु स्थिती | ना रूप ययासि आथी |
आतां कायसी कुंथाकुंथी | उन्मूळणी गा ॥ २४७ ॥
कुंथाकुंथी=कष्ट
आपुलिया अज्ञानासाठीं | नव्हता थांवला किरीटी |
तरी आतां आत्माज्ञानाच्या लोटीं | खांडेनि गा ॥ २४८ ॥
नव्हता =नसलेला थांवला=बळावला
खांडेनि=तलवारीने
वांचूणि ज्ञानेवीण ऐकें | उपाय करिसी जितुके |
तिहीं गुंफसि अधिकें | रुखीं इये ॥ २४९ ॥
गुंफसि=अडकणे
मग किती खांदोखांदीं | यया हिंडावें ऊर्ध्वीं अधीं |
म्हणौनि मूळचि अज्ञान छेदीं | सम्यक् ज्ञानें ॥ २५० ॥
खांदोखांदीं=फांदोफांदी
एऱ्हवीं दोरीचिया उरगा | डांगा मेळवितां पैं गा |
तो शिणुचि वाउगा | केला होय ॥ २५१ ॥
उरगा=साप डांगा=काठी
तरावया मृगजळाची गंगा | डोणीलागीं धांवतां दांगा- |
माजीं वोहळें बुडिजे पैं गा | साच जेवीं ॥ २५२ ॥
दांगा=रान
तेवीं नाथिलिया संसारा | उपाईं जाचतया वीरा |
आपणपें लोपे वारा | विकोपीं जाय ॥ २५३ ॥
उपाईं जाचतया= उपाय करण्याचे कष्ट
आपणपें लोपे...= साधनाचा जीवापाड श्रम होवून तो मरतो
म्हणौनि स्वप्नींचिया घाया | ओखद चेवोचि धनंजया |
तेवीं अज्ञानमूळा यया | ज्ञानचि खड्ग ॥ २५४ ॥
परी तेचि लीला परजवे | तैसें वैराग्याचें नवें |
अभंगबळ होआवें | बुद्धीसी गा ॥ २५५ ॥
उठलेनि वैराग्यें जेणें | हा त्रिवर्गु ऐसा सांडणें |
जैसें वमुनियां सुणें | आतांचि गेलें ॥ २५६ ॥
हा ठायवरी पांडवा | पदार्थजातीं आघवा |
विटवी तो होआवा | वैराग्य लाठु ॥ २५७ ॥
ठायवरी=कल्पना लाठु =बलवान
मग देहाहंतेचें दळें | सांडूनि एकेचि वेळे |
प्रत्यक्बुद्धी करतळें | हातवसावें ॥ २५८ ॥
मी आत्मा आहे ही बुद्धी करतळी
घेवून
निसळें विवेकसाहणें | जें ब्रह्माहमस्मिबोधें सणाणें |
मग पुरतेनि बोधें उटणें | एकलेचि ॥ २५९ ॥
निसळें=धार लावणे सणाणें=तीक्ष्ण होणे
उटणें=उठणे
परी निश्चयाचें मुष्टिबळ | पाहावें एकदोनी वेळ |
मग तुळावें अति चोखाळ | मननवरी ॥ २६० ॥
तुळावें=हातात तोलून धरावे
पाठीं हतियेरां आपणयां | निदिध्यासें एक जालिया |
पुढें दुजें नुरेल घाया- | पुरतें गा ॥ २६१ ॥
हत्यार व आपण एकाच होणे
घाया-
| पुरतें= प्रहारा पुढे
तें आत्मज्ञानाचें खांडें | अद्वैतप्रभेचेनि वाडें |
नेदील उरों कवणेकडे | भववृक्षासी ॥ २६२ ॥
खांडें=तलवार वाडें=विस्तार
शरदागमींचा वारा | जैसा केरु फेडी अंबरा |
का उदयला रवी आंधारा | घोंटु भरी ॥ २६३ ॥
नाना उपवढ होतां खेंवो | नुरे स्वप्नसंभ्रमाचा ठावो |
स्वप्नप्रतीतिधारेचा वाहो | करील तैसें ॥ २६४ ॥
उपवढ=जागे होता खेंवो=लगेच
तेव्हां ऊर्ध्वींचें मूळ | कां अधींचें हन शाखाजाळ |
तें कांहींचि न दिसे मृगजळ | चांदिणा जेवीं ॥ २६५ ॥
ऐसेनि गा वीरनाथा | आत्मज्ञानाचिया खड्गलता |
छेदुनिया भवाश्वत्था | ऊर्ध्वमूळातें ॥ २६६ ॥
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by dr. vikrant tikone