Thursday, December 21, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा, ओव्या ५२६ ते ५९९ संपूर्ण




ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा, संत ज्ञानेश्वर ओव्या ५२६ ते ५९९



उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ॥
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १७॥


आतां अन्यथाज्ञानीं | या दोनी अवस्था जया जनीं |
तया हरपती घनीं | अज्ञानतत्त्वीं ॥ ५२६ ॥

अन्यथाज्ञानीं-=विपरीत ज्ञानी दोनी=(जागृती व स्वप्न )
अज्ञानतत्त्वीं=सुषुप्ती

तें अज्ञान ज्ञानीं बुडालिया | ज्ञानें कीर्तिमुखत्व केलिया |
जैसा वन्हि काष्ठ जाळूनियां | स्वयें जळे ॥ ५२७ ॥

ज्ञाने कीर्तिमुखत्व=ज्ञानसन्मुख झाल्यावर
(म्हणजे ते ज्ञान नाहीशे झाल्यावर)


तैसें अज्ञान ज्ञानें नेलें | आपण वस्तु देऊनि गेलें |
ऐसें जाणणेंनिवीण उरलें | जाणतें जें ॥ ५२८ ॥

वस्तु=साक्षात्कार

तें तो गा उत्तम पुरुषु | जो तृतीय कां निष्कर्षु |
दोहींहून आणिकु | मागिला जो ॥ ५२९ ॥

सुषुप्तीं आणि स्वप्ना- | पासूनि बहुवें अर्जुना |
जागणें जैसें आना | बोधाचेंचि ॥ ५३० ॥

बहुवें=पुष्कळ   आना= भिन्न  

कां रश्मी हन मृगजळा- | पासूनि अर्कमंडळा |
अफाटु तेवीं वेगळा | उत्तमु गा ॥ ५३१ ॥

हन=आणि   अफाटु=अमर्याद

हें ना काष्ठींचा काष्ठाहुनी | अनारिसा जैसा वन्ही |
तैसा क्षराक्षरापासुनी | आनचि तो ॥ ५३२ ॥

पैं ग्रासूनि आपली मर्यादा | एक करीत नदीनदां |
उठी कल्पांतीं उदावादा | एकार्णवाचा ॥ ५३३ ॥

उदावादा = प्रकटपणा

तैसें स्वप्न ना सुषुप्ती | ना जागराची गोठी आथी |
जैसी गिळिली दिवोराती | प्रळयतेजें ॥ ५३४ ॥

मग एकपण ना दुजें | असें नाहीं हें नेणिजे |
अनुभव निर्बुजे | बुडाला जेथें ॥ ५३५ ॥

निर्बुजे= दिड्मुख

ऐसें आथि जें कांहीं | तें तो उत्तम पुरुषु पाहीं |
जें परमात्मा इहीं | बोलिजे नामीं ॥ ५३६ ॥

तेंही एथ न मिसळतां | बोलणें जीवत्वें पंडुसुता |
जैसी बुडणेयाची वार्ता | थडियेचा कीजे ॥ ५३७ ॥

जीवत्वें=जीव सापेक्षाने

तैसें विवेकाचिये कांठीं | उभें ठाकलिया किरीटी |
परावराचिया गोठी | करणें वेदां ॥ ५३८ ॥

परावराचिया =पलिकडलच्या व  अलीकडच्या  

म्हणौनि पुरुषु क्षराक्षरु | दोन्ही देखोनि अवरु |
यातें म्हणती परु | आत्मरूप ॥ ५३९ ॥

अवरु= अलिकडील     परु=त्या पलीकडचा  

अर्जुना ऐसिया परी | परमात्मा शब्दवरी |
सूचिजे गा अवधारीं | पुरुषोत्तमु ॥ ५४० ॥

एऱ्हवीं न बोलणेंचि बोलणें | जेथिंचें सर्व नेणिवा जाणणें |
कांहींच न होनि होणें | जे वस्तु गा ॥ ५४१ ॥

सोऽहं तेंही अस्तवलें | जेथ सांगतेंचि सांगणें जालें |
द्रष्टत्वेंसी गेलें | दृश्य जेथ ॥ ५४२ ॥

आतां बिंबा आणि प्रतिबिंबा- | माजीं कैंची हें म्हणों नये प्रभा ? |
जऱ्ही कैसेनि हे लाभा | जायेचि ना ॥ ५४३ ॥

माजीं कैची हे =मधली कसली ही
हे लाभा | जायेचि ना= कुठल्याही उपयोगानी घेता आले नाही तरी
 
कां घ्राणा फुला दोहीं | द्रुती असे जे माझारिलां ठायीं |
ते न दिसे तरी नाहीं | ऐसें बोलों नये ॥ ५४४ ॥

द्रुती=गंध

तैसें द्रष्टा दृश्य हें जाये | मग कोण म्हणे काय आहे |
हेंचि अनुभवें तेंचि पाहें | रूप तया ॥ ५४५ ॥

जो प्रकाश्येंवीण प्रकाशु | ईशितव्येंवीण ईशु |
आपणेंनीचि अवकाशु | वसवीत असे जो ॥ ५४६ ॥

ईशितव्येंवीण ईश=नियम्य नसून नियामक
( स्वामित्वा वाचून स्वामी  )

जो नादें ऐकिजता नादु | स्वादें चाखिजता स्वादु |
जो भोगिजतसे आनंदु | आनंदेंचि ॥ ५४७ ॥

जो पूर्णतेचा परिणामु | पुरुषु गा पुरुषोत्तमु |
विश्रांतीचाही विश्रामु | विराला जेथें ॥ ५४८ ॥

सुखासि सुख जोडिलें | जें तेज तेजासि सांपडलें |
शून्यही बुडालें | महाशून्यीं जिये ॥ ५४९ ॥

जो विकासाहीवरी उरता | ग्रासातेंही ग्रासूनि पुरता |
जो बहुतें पाडें बहुतां- | पासूनि बहु ॥ ५५० ॥

विकासाहीवरी=विस्तारा व्यापुनी
ग्रासातेंही=लयासी

पैं नेणतयाप्रती | रुपेपणाची प्रतीती |
रुपें न होनि शुक्ती | दावी जेवीं ॥ ५५१ ॥ 

कां नाना अलंकारदशे | सोनें न लपत लपालें असे |
विश्व न होनियां तैसें | विश्व जो धरी ॥ ५५२ ॥

हें असो जलतरंगा | नाहीं सिनानेपण जेवीं गा |
तेवीं दिसता प्रकाशु जगा | आपणचि जो ॥ ५५३ ॥

सिनानेपण=वेगळेपण

आपुलिया संकोचविकाशा | आपणचि रूप वीरेशा |
हा जळीं चंद्र हन जैसा | समग्र गा ॥ ५५४ ॥

तैसा विश्वपणें कांहीं होये | विश्वलोपीं कहीं न जाये |
जैसा रात्रीं दिवसें नोहे | द्विधा रवि ॥ ५५५ ॥

तैसा कांहींचि कोणीकडे | कायिसेनिहि वेंचीं न पडे |
जयाचें सांगडें | जयासीचि ॥ ५५६ ॥

वेंचीं =खर्च करणे नष्ट होणे सांगडें=तुलना

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १८॥


जो आपणपेंचि आपणया | प्रकाशीतसे धनंजया |
काय बहु बोलों जया | नाहीं दुजें ॥ ५५७ ॥

तो गा मी निरुपाधिकु | क्षराक्षरोत्तमु एकु |
म्हणौनि म्हणे वेद लोकु | पुरुषोत्तमु ॥ ५५८ ॥


यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ १९॥


परी हें असो ऐसिया | मज पुरुषोत्तमातें धनंजया |
जाणे जो पाहलेया | ज्ञानमित्रें ॥ ५५९ ॥

ज्ञानमित्रें=ज्ञान सूर्य

चेइलिया आपुलें ज्ञान | जैसें नाहींचि होय स्वप्न |
तैसें स्फुरतें त्रिभुवन | वावों जालें ॥ ५६० ॥

चेइलिया=उठल्यावर, जागे झाल्यावर
वावों=मिथ्या

कां हातीं घेतलिया माळा | फिटे सर्पाभासाचा कांटाळा |
तैसा माझेनि बोधें टवाळा | नागवे तो ॥ ५६१ ॥

कांटाळा=भिती (अंगावरील काटा )
टवाळा=घोटाळा (ढोंग )मिथ्यत्व)
 नागवे=सापडत नाही

लेणें सोनेंचि जो जाणें | तो लेणेंपण तें वावो म्हणे |
तेवीं मी जाणोनि जेणें | वाळिला भेदु ॥ ५६२ ॥

मग म्हणे सर्वत्र सच्चिदानंदु | मीचि एकु स्वतःसिद्धु |
जो आपणेनसीं भेदु | नेणोनियां जाणे ॥ ५६३ ॥

तेणेंचि सर्व जाणितलें | हेंही म्हणणें थेंकुलें |
जे तया सर्व उरलें | द्वैत नाहीं ॥ ५६४ ॥

थेंकुलें=कमीच

म्हणौनि माझिया भजना | उचितु तोचि अर्जुना |
गगन जैसें आलिंगना | गगनाचिया ॥ ५६५ ॥

क्षीरसागरा परगुणें | कीजे क्षीरसागरचिपणें |
अमृतचि होऊनि मिळणें | अमृतीं जेवीं ॥ ५६६ ॥

परगुणें=पाहुणचार

साडेपंधरा मिसळावें | तैं साडेपंधरेंचि होआवें |
तेवीं मी जालिया संभवे | भक्ति माझी ॥ ५६७ ॥

हां गा सिंधूसि आनी होती | तरी गंगा कैसेनि मिळती ? |
म्हणौनि मी न होतां भक्ती | अन्वयो आहे ? ॥ ५६८ ॥

आनी=भिन्न  अन्वयो=संबंध...

ऐसियालागीं सर्व प्रकारीं | जैसा कल्लोळु अनन्यु सागरीं |
तैसा मातें अवधारीं | भजिन्नला जो ॥ ५६९ ॥

सूर्या आणि प्रभे | एकवंकी जेणें लोभें |
तो पाडु मानूं लाभे | भजना तया ॥ ५७० ॥

एकवंकी=एकरूपता  लोभें=प्रमाणे

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ ॥
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात् कृतकृत्यश्च भारत ॥ २०॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तम योगोनाम पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥


एवं कथिलयादारभ्य | हें जें सर्व शास्त्रैकलभ्य |
उपनिषदां सौरभ्य | कमळदळां जेवीं ॥ ५७१ ॥

कथिलयादारभ्य =पहिल्या अध्याया पासून इथपर्यंत सांगितलेला उपदेश)
शास्त्रैकलभ्य=सर्व शास्त्राचा अभ्यासाचे तत्व

हें शब्दब्रह्माचें मथितें | श्रीव्यासप्रज्ञेचेंनि हातें |
मथुनि काढिलें आयितें | सार आम्हीं ॥ ५७२ ॥

जे ज्ञानामृताची जाह्नवी | जे आनंदचंद्रींची सतरावी |
विचारक्षीरार्णवींची नवी | लक्ष्मी जे हे ॥ ५७३ ॥

म्हणौनि आपुलेनि पदें वर्णें | अर्थाचेनि जीवेंप्राणें |
मीवांचोनि हों नेणें | आन कांहीं ॥ ५७४ ॥

आपुलेनि=(गीतारूपी लक्ष्मी )

क्षराक्षरत्वें समोर जालें | तयांचें पुरुषत्व वाळिलें |
मग सर्वस्व मज दिधलें | पुरुषोत्तमीं ॥ ५७५ ॥

वाळिलें=दूर केले नष्ट केले

म्हणौनि जगीं गीता | मियां आत्मेनि पतिव्रता |
जे हे प्रस्तुत तुवां आतां | आकर्णिली ॥ ५७६ ॥

साचचि बोलाचें नव्हे हें शास्त्र | पैं संसारु जिणतें हें शस्त्र |
आत्मा अवतरविते मंत्र | अक्षरें इयें ॥ ५७७ ॥

परी तुजपुढां सांगितलें | तें अर्जुना ऐसें जालें |
जें गौप्यधन काढिलें | माझें आजि ॥ ५७८ ॥

मज चैतन्यशंभूचा माथां | जो निक्षेपु होता पार्था |
तया गौतमु जालासि आस्था- | निधी तूं गा ॥ ५७९ ॥

निक्षेपु=ठेवा

चोखटिवा आपुलिया | पुढिला उगाणा घेयावया |
तया दर्पणाचीचि परी धनंजया | केली आम्हां ॥ ५८० ॥

चोखटिवा=सुंदरता      उगाणा=मोजमाप दर्शन

कां भरलें चंद्रतारांगणीं | नभ सिंधू आपणयामाजीं आणी |
तैसा गीतेसीं मी अंतःकरणीं | सूदला तुवां ॥ ५८१ ॥

गीतेसीं=गीतेसवे

जे त्रिविधमळिकटा | तूं सांडिलासि सुभटा |
म्हणौनि गीतेसीं मज वसौटा | जालासि गा ॥ ५८२ ॥

त्रिविधमळिकटा=कायिक वाचिक मानसिक दोष मळ
वसौटा=विश्रांती स्थान

परी हें बोलों काय गीता | जे हे माझी उन्मेषलता |
जाणे तो समस्ता | मोहा मुके ॥ ५८३ ॥

उन्मेषलता=ज्ञान लता

सेविली अमृतसरिता | रोगु दवडूनि पंडुसुता |
अमरपण उचितां | देऊनि घाली ॥ ५८४ ॥

तैसी गीता हे जाणितलिया | काय विस्मयो मोह जावया |
परी आत्मज्ञानें आपणापयां | मिळिजे येथ ॥ ५८५ ॥

जया आत्मज्ञानाच्या ठायीं | कर्म आपुलेया जीविता पाहीं |
होऊनियां उतराई | लया जाय ॥ ५८६ ॥

हरपलें दाऊनि जैसा | मागु सरे वीरविलासा |
ज्ञानचि कळस वळघे तैसा | कर्मप्रासादाचा ॥ ५८७ ॥

मागु=माग काढणे शोधणे
वीरविलासा=अर्जुना

म्हणौनि ज्ञानिया पुरुषा | कृत्य करूं सरलें देखा |
ऐसा अनाथांचा सखा | बोलिला तो ॥ ५८८ ॥

तें श्रीकृष्णवचनामृत | पार्थीं भरोनि असे वोसंडत |
मग व्यासकृपा प्राप्त | संजयासी ॥ ५८९ ॥

तो धृतराष्ट्र राया | सूतसे पान करावया |
म्हणौनि जीवितांतु तया | नोहेचि भारी ॥ ५९० ॥

सूतसे=वाढणे  देणे  जीवितांतु=जीवनशेवट अंत
भारी=जड अवघड

एऱ्हवीं गीताश्रवण अवसरीं | आवडों लागतां अनधिकारी |
परि सेखीं तेचि उजरी | पातला भली ॥ ५९१ ॥

सेखीं तेचि उजरी=शेवटी तोच उजेड

जेव्हां द्राक्षीं दूध घातलें | तेव्हां वायां गेलें गमलें |
परी फळपाकीं दुणावलें | देखिजे जेवीं ॥ ५९२ ॥

तैसी श्रीहरीवक्त्रींचीं अक्षरें | संजयें सांगितलीं आदरें |
तिहीं अंधु तोही अवसरें | सुखिया जाला ॥ ५९३ ॥

तेंचि मऱ्हाटेनि विन्यासें | मियां उन्मेषें ठसेंठोंबसें |
जी जाणें नेणें तैसें | निरोपिलें ॥ ५९४ ॥

विन्यासें=निरुपणे   विन्यासें=ओबडधोबड, वेडे वाकुडे

सेवंतीये अरिसि कांहीं | आंग पाहतां विशेषु नाहीं |
परी सौरभ्य नेलें तिहीं | भ्रमरीं जाणिजे ॥ ५९५ ॥

अरिसि=अरसिकाला

तैसें घडतें प्रमेय घेइजे | उणें तें मज देइजे |
जें नेणणें हेंचि सहजें | रूप कीं बाळा ॥ ५९६ ॥

तरी नेणतें जऱ्ही होये | तऱ्ही देखोनि बाप कीं माये |
हर्ष केंहि न समाये | चोज करिती ॥ ५९७ ॥

तैसें संत माहेर माझें | तुम्ही मिनलिया मी लाडैजें |
तेंचि ग्रंथाचेनि व्याजें | जाणिजो जी ॥ ५९८ ॥

मिनलिया=भेटल्याने   व्याजें=कारण

आतां विश्वात्मकु हा माझा | स्वामी श्रीनिवृत्तिराजा |
तो अवधारू वाक् पूजा | ज्ञानदेवो म्हणे ॥ ५९९ ॥

इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां पंचदशोऽध्यायः ॥


by dr. vikrant tikone