ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा,
संत ज्ञानेश्वर ओव्या ५२६
ते ५९९
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ॥
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १७॥
आतां अन्यथाज्ञानीं | या दोनी अवस्था जया जनीं |
तया हरपती घनीं | अज्ञानतत्त्वीं ॥ ५२६ ॥
अन्यथाज्ञानीं-=विपरीत ज्ञानी दोनी=(जागृती व स्वप्न )
अज्ञानतत्त्वीं=सुषुप्ती
तें अज्ञान ज्ञानीं बुडालिया
| ज्ञानें कीर्तिमुखत्व केलिया
|
जैसा वन्हि काष्ठ जाळूनियां | स्वयें जळे ॥ ५२७ ॥
जैसा वन्हि काष्ठ जाळूनियां | स्वयें जळे ॥ ५२७ ॥
ज्ञाने कीर्तिमुखत्व=ज्ञानसन्मुख झाल्यावर
(म्हणजे ते ज्ञान नाहीशे
झाल्यावर)
तैसें अज्ञान ज्ञानें नेलें | आपण वस्तु देऊनि गेलें |
ऐसें जाणणेंनिवीण उरलें | जाणतें जें ॥ ५२८ ॥
वस्तु=साक्षात्कार
तें तो गा उत्तम पुरुषु | जो तृतीय कां निष्कर्षु |
दोहींहून आणिकु | मागिला जो ॥ ५२९ ॥
सुषुप्तीं आणि स्वप्ना- | पासूनि बहुवें अर्जुना |
जागणें जैसें आना | बोधाचेंचि ॥ ५३० ॥
बहुवें=पुष्कळ
आना= भिन्न
कां रश्मी हन मृगजळा- | पासूनि अर्कमंडळा |
अफाटु तेवीं वेगळा | उत्तमु गा ॥ ५३१ ॥
हन=आणि अफाटु=अमर्याद
हें ना काष्ठींचा काष्ठाहुनी | अनारिसा जैसा वन्ही |
तैसा क्षराक्षरापासुनी | आनचि तो ॥ ५३२ ॥
पैं ग्रासूनि आपली मर्यादा | एक करीत नदीनदां |
उठी कल्पांतीं उदावादा | एकार्णवाचा ॥ ५३३ ॥
उदावादा = प्रकटपणा
तैसें स्वप्न ना सुषुप्ती | ना जागराची गोठी आथी |
जैसी गिळिली दिवोराती | प्रळयतेजें ॥ ५३४ ॥
मग एकपण ना दुजें | असें नाहीं हें नेणिजे |
अनुभव निर्बुजे | बुडाला जेथें ॥ ५३५ ॥
निर्बुजे= दिड्मुख
ऐसें आथि जें कांहीं | तें तो उत्तम पुरुषु पाहीं |
जें परमात्मा इहीं | बोलिजे नामीं ॥ ५३६ ॥
तेंही एथ न मिसळतां | बोलणें जीवत्वें पंडुसुता |
जैसी बुडणेयाची वार्ता | थडियेचा कीजे ॥ ५३७ ॥
जीवत्वें=जीव सापेक्षाने
तैसें विवेकाचिये कांठीं | उभें ठाकलिया किरीटी |
परावराचिया गोठी | करणें वेदां ॥ ५३८ ॥
परावराचिया =पलिकडलच्या
व अलीकडच्या
म्हणौनि पुरुषु क्षराक्षरु | दोन्ही देखोनि अवरु |
यातें म्हणती परु | आत्मरूप ॥ ५३९ ॥
अवरु= अलिकडील परु=त्या पलीकडचा
अर्जुना ऐसिया परी | परमात्मा शब्दवरी |
सूचिजे गा अवधारीं | पुरुषोत्तमु ॥ ५४० ॥
सूचिजे गा अवधारीं | पुरुषोत्तमु ॥ ५४० ॥
एऱ्हवीं न बोलणेंचि बोलणें | जेथिंचें सर्व नेणिवा जाणणें |
कांहींच न होनि होणें | जे वस्तु गा ॥ ५४१ ॥
सोऽहं तेंही अस्तवलें | जेथ सांगतेंचि सांगणें जालें |
द्रष्टत्वेंसी गेलें | दृश्य जेथ ॥ ५४२ ॥
आतां बिंबा आणि प्रतिबिंबा- | माजीं कैंची हें म्हणों नये प्रभा ? |
जऱ्ही कैसेनि हे लाभा | जायेचि ना ॥ ५४३ ॥
माजीं कैची हे =मधली कसली ही
हे लाभा | जायेचि ना= कुठल्याही उपयोगानी
घेता आले नाही तरी
कां घ्राणा फुला दोहीं | द्रुती असे जे माझारिलां ठायीं |
ते न दिसे तरी नाहीं | ऐसें बोलों नये ॥ ५४४ ॥
द्रुती=गंध
तैसें द्रष्टा दृश्य हें जाये | मग कोण म्हणे काय आहे |
हेंचि अनुभवें तेंचि पाहें | रूप तया ॥ ५४५ ॥
जो प्रकाश्येंवीण प्रकाशु | ईशितव्येंवीण ईशु |
आपणेंनीचि अवकाशु | वसवीत असे जो ॥ ५४६ ॥
ईशितव्येंवीण ईश=नियम्य नसून नियामक
( स्वामित्वा
वाचून स्वामी )
जो नादें ऐकिजता नादु | स्वादें चाखिजता स्वादु |
जो भोगिजतसे आनंदु | आनंदेंचि ॥ ५४७ ॥
जो पूर्णतेचा परिणामु | पुरुषु गा पुरुषोत्तमु |
विश्रांतीचाही विश्रामु | विराला जेथें ॥ ५४८ ॥
सुखासि सुख जोडिलें | जें तेज तेजासि सांपडलें |
शून्यही बुडालें | महाशून्यीं जिये ॥ ५४९ ॥
जो विकासाहीवरी उरता | ग्रासातेंही ग्रासूनि पुरता |
जो बहुतें पाडें बहुतां- | पासूनि बहु ॥ ५५० ॥
विकासाहीवरी=विस्तारा व्यापुनी
ग्रासातेंही=लयासी
पैं नेणतयाप्रती | रुपेपणाची प्रतीती |
रुपें न होनि शुक्ती | दावी जेवीं ॥ ५५१ ॥
कां नाना अलंकारदशे | सोनें न लपत लपालें असे |
विश्व न होनियां तैसें | विश्व जो धरी ॥ ५५२ ॥
हें असो जलतरंगा | नाहीं सिनानेपण जेवीं गा |
तेवीं दिसता प्रकाशु जगा | आपणचि जो ॥ ५५३ ॥
सिनानेपण=वेगळेपण
आपुलिया संकोचविकाशा | आपणचि रूप वीरेशा |
हा जळीं चंद्र हन जैसा | समग्र गा ॥ ५५४ ॥
तैसा विश्वपणें कांहीं होये | विश्वलोपीं कहीं न जाये |
जैसा रात्रीं दिवसें नोहे | द्विधा रवि ॥ ५५५ ॥
तैसा कांहींचि कोणीकडे | कायिसेनिहि वेंचीं न पडे |
जयाचें सांगडें | जयासीचि ॥ ५५६ ॥
वेंचीं =खर्च करणे नष्ट होणे सांगडें=तुलना
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १८॥
जो आपणपेंचि आपणया | प्रकाशीतसे धनंजया |
काय बहु बोलों जया | नाहीं दुजें ॥ ५५७ ॥
तो गा मी निरुपाधिकु | क्षराक्षरोत्तमु एकु |
म्हणौनि म्हणे वेद लोकु | पुरुषोत्तमु ॥ ५५८ ॥
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ १९॥
परी हें असो ऐसिया | मज पुरुषोत्तमातें धनंजया |
जाणे जो पाहलेया | ज्ञानमित्रें ॥ ५५९ ॥
ज्ञानमित्रें=ज्ञान सूर्य
चेइलिया आपुलें ज्ञान | जैसें नाहींचि होय स्वप्न |
तैसें स्फुरतें त्रिभुवन | वावों जालें ॥ ५६० ॥
चेइलिया=उठल्यावर, जागे झाल्यावर
वावों=मिथ्या
कां हातीं घेतलिया माळा | फिटे सर्पाभासाचा कांटाळा |
तैसा माझेनि बोधें टवाळा | नागवे तो ॥ ५६१ ॥
कांटाळा=भिती (अंगावरील काटा )
टवाळा=घोटाळा (ढोंग )मिथ्यत्व)
नागवे=सापडत नाही
लेणें सोनेंचि जो जाणें | तो लेणेंपण तें वावो म्हणे |
तेवीं मी जाणोनि जेणें | वाळिला भेदु ॥ ५६२ ॥
मग म्हणे सर्वत्र सच्चिदानंदु | मीचि एकु स्वतःसिद्धु |
जो आपणेनसीं भेदु | नेणोनियां जाणे ॥ ५६३ ॥
तेणेंचि सर्व जाणितलें | हेंही म्हणणें थेंकुलें |
जे तया सर्व उरलें | द्वैत नाहीं ॥ ५६४ ॥
थेंकुलें=कमीच
म्हणौनि माझिया भजना | उचितु तोचि अर्जुना |
गगन जैसें आलिंगना | गगनाचिया ॥ ५६५ ॥
क्षीरसागरा परगुणें | कीजे क्षीरसागरचिपणें |
अमृतचि होऊनि मिळणें | अमृतीं जेवीं ॥ ५६६ ॥
परगुणें=पाहुणचार
साडेपंधरा मिसळावें | तैं साडेपंधरेंचि होआवें |
तेवीं मी जालिया संभवे | भक्ति माझी ॥ ५६७ ॥
हां गा सिंधूसि आनी होती | तरी गंगा कैसेनि मिळती ? |
म्हणौनि मी न होतां भक्ती | अन्वयो आहे ? ॥ ५६८ ॥
आनी=भिन्न अन्वयो=संबंध...
ऐसियालागीं सर्व प्रकारीं | जैसा कल्लोळु अनन्यु सागरीं |
तैसा मातें अवधारीं | भजिन्नला जो ॥ ५६९ ॥
सूर्या आणि प्रभे | एकवंकी जेणें लोभें |
तो पाडु मानूं लाभे | भजना तया ॥ ५७० ॥
एकवंकी=एकरूपता लोभें=प्रमाणे
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ ॥
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात् कृतकृत्यश्च भारत ॥ २०॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तम योगोनाम पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
एवं कथिलयादारभ्य | हें जें सर्व शास्त्रैकलभ्य |
उपनिषदां सौरभ्य | कमळदळां जेवीं ॥ ५७१ ॥
कथिलयादारभ्य =पहिल्या अध्याया पासून इथपर्यंत
सांगितलेला उपदेश)
शास्त्रैकलभ्य=सर्व शास्त्राचा अभ्यासाचे तत्व
हें शब्दब्रह्माचें मथितें | श्रीव्यासप्रज्ञेचेंनि हातें |
मथुनि काढिलें आयितें | सार आम्हीं ॥ ५७२ ॥
जे ज्ञानामृताची जाह्नवी | जे आनंदचंद्रींची सतरावी |
विचारक्षीरार्णवींची नवी | लक्ष्मी जे हे ॥ ५७३ ॥
म्हणौनि आपुलेनि पदें वर्णें | अर्थाचेनि जीवेंप्राणें |
मीवांचोनि हों नेणें | आन कांहीं ॥ ५७४ ॥
आपुलेनि=(गीतारूपी लक्ष्मी )
क्षराक्षरत्वें समोर जालें | तयांचें पुरुषत्व वाळिलें |
मग सर्वस्व मज दिधलें | पुरुषोत्तमीं ॥ ५७५ ॥
वाळिलें=दूर केले नष्ट केले
म्हणौनि जगीं गीता | मियां आत्मेनि पतिव्रता |
जे हे प्रस्तुत तुवां आतां | आकर्णिली ॥ ५७६ ॥
साचचि बोलाचें नव्हे हें शास्त्र | पैं संसारु जिणतें हें शस्त्र |
आत्मा अवतरविते मंत्र | अक्षरें इयें ॥ ५७७ ॥
परी तुजपुढां सांगितलें | तें अर्जुना ऐसें जालें |
जें गौप्यधन काढिलें | माझें आजि ॥ ५७८ ॥
मज चैतन्यशंभूचा माथां | जो निक्षेपु होता पार्था |
तया गौतमु जालासि आस्था- | निधी तूं गा ॥ ५७९ ॥
निक्षेपु=ठेवा
चोखटिवा आपुलिया | पुढिला उगाणा घेयावया |
तया दर्पणाचीचि परी धनंजया | केली आम्हां ॥ ५८० ॥
चोखटिवा=सुंदरता
उगाणा=मोजमाप दर्शन
कां भरलें चंद्रतारांगणीं | नभ सिंधू आपणयामाजीं आणी |
तैसा गीतेसीं मी अंतःकरणीं | सूदला तुवां ॥ ५८१ ॥
गीतेसीं=गीतेसवे
जे त्रिविधमळिकटा | तूं सांडिलासि सुभटा |
म्हणौनि गीतेसीं मज वसौटा | जालासि गा ॥ ५८२ ॥
त्रिविधमळिकटा=कायिक वाचिक मानसिक दोष मळ
वसौटा=विश्रांती स्थान
परी हें बोलों काय गीता | जे हे माझी उन्मेषलता |
जाणे तो समस्ता | मोहा मुके ॥ ५८३ ॥
उन्मेषलता=ज्ञान लता
सेविली अमृतसरिता | रोगु दवडूनि पंडुसुता |
अमरपण उचितां | देऊनि घाली ॥ ५८४ ॥
तैसी गीता हे जाणितलिया | काय विस्मयो मोह जावया |
परी आत्मज्ञानें आपणापयां | मिळिजे येथ ॥ ५८५ ॥
जया आत्मज्ञानाच्या ठायीं | कर्म आपुलेया जीविता पाहीं |
होऊनियां उतराई | लया जाय ॥ ५८६ ॥
हरपलें दाऊनि जैसा | मागु सरे वीरविलासा |
ज्ञानचि कळस वळघे तैसा | कर्मप्रासादाचा ॥ ५८७ ॥
मागु=माग काढणे शोधणे
वीरविलासा=अर्जुना
म्हणौनि ज्ञानिया पुरुषा | कृत्य करूं सरलें देखा |
ऐसा अनाथांचा सखा | बोलिला तो ॥ ५८८ ॥
तें श्रीकृष्णवचनामृत | पार्थीं भरोनि असे वोसंडत |
मग व्यासकृपा प्राप्त | संजयासी ॥ ५८९ ॥
तो धृतराष्ट्र राया | सूतसे पान करावया |
म्हणौनि जीवितांतु तया | नोहेचि भारी ॥ ५९० ॥
सूतसे=वाढणे देणे जीवितांतु=जीवनशेवट अंत
भारी=जड अवघड
एऱ्हवीं गीताश्रवण अवसरीं | आवडों लागतां अनधिकारी |
परि सेखीं तेचि उजरी | पातला भली ॥ ५९१ ॥
सेखीं तेचि उजरी=शेवटी तोच उजेड
जेव्हां द्राक्षीं दूध घातलें | तेव्हां वायां गेलें गमलें |
परी फळपाकीं दुणावलें | देखिजे जेवीं ॥ ५९२ ॥
तैसी श्रीहरीवक्त्रींचीं अक्षरें | संजयें सांगितलीं आदरें |
तिहीं अंधु तोही अवसरें | सुखिया जाला ॥ ५९३ ॥
तेंचि मऱ्हाटेनि विन्यासें | मियां उन्मेषें ठसेंठोंबसें |
जी जाणें नेणें तैसें | निरोपिलें ॥ ५९४ ॥
विन्यासें=निरुपणे विन्यासें=ओबडधोबड, वेडे वाकुडे
सेवंतीये अरिसि कांहीं | आंग पाहतां विशेषु नाहीं |
परी सौरभ्य नेलें तिहीं | भ्रमरीं जाणिजे ॥ ५९५ ॥
अरिसि=अरसिकाला
तैसें घडतें प्रमेय घेइजे | उणें तें मज देइजे |
जें नेणणें हेंचि सहजें | रूप कीं बाळा ॥ ५९६ ॥
तरी नेणतें जऱ्ही होये | तऱ्ही देखोनि बाप कीं माये |
हर्ष केंहि न समाये | चोज करिती ॥ ५९७ ॥
तैसें संत माहेर माझें | तुम्ही मिनलिया मी लाडैजें |
तेंचि ग्रंथाचेनि व्याजें | जाणिजो जी ॥ ५९८ ॥
मिनलिया=भेटल्याने व्याजें=कारण
आतां विश्वात्मकु हा माझा | स्वामी श्रीनिवृत्तिराजा |
तो अवधारू वाक् पूजा | ज्ञानदेवो म्हणे ॥ ५९९ ॥
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां पंचदशोऽध्यायः ॥
by dr. vikrant tikone