Tuesday, August 15, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा,ओव्या ७२ ते १४३ संत ज्ञानेश्वर


श्रीभगवानुवाच।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १॥


मग म्हणे धनंजया | तें ऊर्ध्व गा तरू यया |
येणें रुखेंचि कां जया | ऊर्ध्वता गमे ॥ ७२

तें ऊर्ध्व=ब्रह्म
(या वृक्षामुळे त्याला ऊर्ध्वत्व)
(पुढे ज्ञानदेव पुन्हा थोडक्यात ब्रह्म वर्णन करतात)
 
एऱ्हवीं मध्योर्ध्व अध | हे नाहीं जेथ भेद |
अद्वयासीं एकवद | जया ठायीं ॥ ७३

एकवद=एक वाक्यता

जो नाइकिजतां नादु | जो असौरभ्य मकरंदु |
जो आंगाथिला आनंदु | सुरतेविण ॥ ७४ ॥


असौरभ्य =गंधावाचून   सुरतेविण=शरीरावीन


जया जें आऱ्हां परौतें | जया जें पुढें मागौतें |
दिसतेविण दिसतें | अदृश्य जें ॥ ७५ ॥

आऱ्हां=अलिकडे परौतें=पलिकडचे

उपाधीचा दुसरा | घालितां वोपसरा |
नामरूपाचा संसारा | होय जयातें ॥ ७६ ॥

वोपसरा=संबंध

ज्ञातृज्ञेयाविहीन | नुसधेंचि जें ज्ञान |
सुखा भरलें गगन | गाळींव जें ॥ ७७ ॥

ज्ञातृज्ञेया=जाणणारा व जाणण्याची वस्तू

जें कार्य ना कारण | जया दुजें ना एकपण |
आपणयां जें जाण | आपणचि ॥ ७८ ॥


ऐसें वस्तु जें साचें | तें ऊर्ध्व गा यया तरूचें |
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तेथ आर घेणें मूळाचें | तें ऐसें असे ॥ ७९ ॥

आर=अंकुर

तरी माया ऐसी ख्याती | नसतीच यया आथी |
कां वांझेची संतती | वानणें जैशी ॥ ८० ॥

आथी =आहे    वानणें=वर्णन करणे

तैशी सत् ना असत् होये | जे विचाराचें नाम न साहे |
ऐसेया परीची आहे | अनादि म्हणती ॥ ८१ ॥

जे नानातत्त्वांची मांदुस | जे जगदभ्राचें आकाश |
जे आकारजाताचें दुस | घडी केलें ॥ ८२ ॥

मांदुस =पेटी दुस=वस्त्र

जे भवद्रुमबीजिका | जे प्रपंचचित्र भूमिका |
विपरीत ज्ञानदीपिका | सांचली जे ॥ ८३ ॥

भूमिका=पार्श्वभूमी विपरीत=उलट चुकीची

ते माया वस्तूच्या ठायीं | असे जैसेनि नाहीं |
मग वस्तुप्रभाचि पाही | प्रगट होये ॥ ८४ ॥

जेव्हां आपणया आली निद | करी आपणपें जेवीं मुग्ध |
कां काजळी आणी मंद | प्रभा दीपीं ॥ ८५ ॥

स्वप्नीं प्रियापुढें तरुणांगी | निदेली चेववूनि वेगीं |
आलिंगिलेनिवीण आलिंगी | सकामु करी ॥ ८६ ॥

तैसी स्वरूपीं जाली माया | आणी स्वरूप नेणे धनंजया |
तेंचि रुखा यया | मूळ पहिलें ॥ ८७ ॥

वस्तूसी आपुला जो अबोधु | तो ऊर्ध्वीं आठुळैजे कंदु |
वेदांतीं हाचि प्रसिद्धु | बीजभावो ॥ ८८ ॥

आठुळैजे=घट्ट होणे ,घनावने बनणे

घन अज्ञान सुषुप्ती | तो बीजांकुरभावो म्हणती |
येर स्वप्न हन जागृती | हा फळभावो तियेचा ॥ ८९ ॥

सुषुप्ती=झोप

ऐसी यया वेदांतीं | निरूपणभाषाप्रतीती |
परी तें असो प्रस्तुतीं | अज्ञान मूळ ॥ ९० ॥

प्रतीती=प्रसिद्ध

तें ऊर्ध्व आत्मा निर्मळें | अधोर्ध्व सूचिती मूळें |
बळिया बांधोनि आळें | मायायोगाचें ॥ ९१ ॥

सूचिती=फाकती दावती

मग आधिलीं सदेहांतरें | उठती जियें अपारें |
ते चौपासि घेऊनि आगारें | खोलावती ॥ ९२ ॥

आधिलीं=खालील चौपासि =चौफेर आगारें=अग्रे मुळ्या

ऐसें भवद्रुमाचें मूळ | हें ऊर्ध्वीं करी बळ |
मग आणियांचें बेंचळ | अधीं दावी ॥ ९३ ॥

बेंचळ=जुबांड,झुबके पाना फुलांची गुंतावळ

तेथ् चिद्वृत्ति पहिलें | महत्तत्त्व उमललें |
तें पान वाल्हेंदुल्हें | एक निघे ॥ ९४ ॥

चिद्वृत्ति=जाणीवरूप   वाल्हेंदुल्हें=एखाद दुसरे

मग सत्त्वरजतमात्मकु | त्रिविध अहंकारु जो एकु |
तो तिवणा अधोमुखु | डिरु फुटे ॥ ९५ ॥

तिवणा=तीन पानांचा  डिरु=अंकुर

तो बुद्धीची घेऊनि आगारी | भेदाची वृद्धि करी |
तेथे मनाचे डाळ धरी | साजेपणें ॥ ९६ ॥

आगारी=अग्रे  डाळ=फांदी(मोड) साजेपणें=दृढतेने

ऐसा मूळाचिया गाढिका | विकल्परस कोंवळिका |
चित्तचतुष्टय डाहाळिका | कोंभैजे तो ॥ ९७ ॥

मग आकाश वायु द्योतक | आप पृथ्वी हें पांच फोंक |
महाभूतांचें सरोख | सरळे होती ॥ ९८ ॥

द्योतक =तेज तत्व  सरोख = वेगाने

तैसीं श्रोत्रादि तन्मात्रें | तियें अंगवसां गर्भपत्रें |
लुळलुळितें विचित्रें | उमळती गा ॥ ९९ ॥

अंगवसां =टोकाला गर्भपत्रें=शेवटी आलेली ,पूर्ण न उमललेली
लुळलुळितें=कोवळी  विचित्रें=एकसारखी नसलेली

तेथ शब्दांकुर वरिपडी | श्रोत्रा वाढी देव्हडी |
होता करित कांडीं | आकांक्षेचीं ॥ १०० ॥

वरिपडी=प्राप्त होतात देव्हडी=दीडपट पुष्कळ
कांडीं=पेर कांडे

अंगत्वचेचे वेलपल्लव | स्पर्शांकुरीं घेती धांव |
तेथ बांबळ पडे अभिनव | विकारांचें ॥ १०१ ॥

बांबळ=विस्तार अभिनव=अपूर्व

पाठीं रूपपत्र पालोवेलीं | चक्षु लांब तें कांडें घाली |
ते वेळीं व्यामोहता भली | पाहाळीं जाय ॥ १०२ ॥

पालोवेलीं=पानाची दाटी
व्यामोहता =भ्रम | पाहाळीं =विस्तार

आणि रसाचें आंगवसें | वाढतां वेगें बहुवसें |
जिव्हे आर्तीची असोसें | निघती बेंचें ॥ १०३ ॥

आंगवसें= अंग विस्तारे | असोसें=पुष्कळ
बेंचें=पानास फुटले पान

तैसेंचि कोंभैलेनि गंधें | घ्राणाची डिरी थांबुं बांधे |
तेथ तळु घे स्वानंदें | प्रलोभाचा ॥ १०४ ॥

कोंभैलेनि =कोंभ आल्याने  डिरी=शेंडा
तळु घे= जोर करणे बळावणे

एवं महदहंबुद्धि | मनें महाभूतसमृद्धी |
इया संसाराचिया अवधी | सासनिजे ॥ १०५ ॥

महदहंबुद्धि=महद तत्व अहं बुद्धी
सासनिजे=भरास येणे

किंबहुना इहीं आठें | आंगीं हा अधिक फांटे |
परी शिंपीचियेवढें उमटे | रुपें जेवीं ॥ १०६ ॥

शिंपी=शिंपले

कां समुद्राचेनि पैसारें | वरी तरंगता आसारे |
तैसें ब्रह्मचि होय वृक्षाकारें | अज्ञानमूळ ॥ १०७ ॥

पैसारें =विस्तार   आसारे=पसरता

आतां याचा हाचि विस्तारु | हाचि यया पैसारु |
जैसा आपणपें स्वप्नीं परिवारु | येकाकिया ॥ १०८ ॥

परी तें असो हें ऐसें | कावरें झाड उससे |
यया महदादि आरवसें | अधोशाखा ॥ १०९ ॥

कावरें =भ्रमात्मक उससे =वाढते आरवसें =अंकुर फुटती

आणि अश्वत्थु ऐसें ययातें | म्हणती जे जाणते |
तेंही परिस हो येथें | सांगिजैल ॥ ११० ॥

तरी श्वः म्हणिजे उखा | तोंवरी एकसारिखा |
नाहीं निर्वाहो यया रुखा | प्रपंचरूपा ॥ १११ ॥

उखा=उषा =क्षणिक

जैसा न लोटतां क्षणु | मेघु होय नानावर्णु |
कां विजु नसे संपूर्णु | निमेषभरी ॥ ११२ ॥

ना कांपतया पद्मदळा | वरीलिया बैसका नाहीं जळा |
कां चित्त जैसें व्याकुळा | माणुसाचें ॥ ११३ ॥

तैसीचि ययाची स्थिती | नासत जाय क्षणक्षणाप्रती |
म्हणौनि ययातें म्हणती | अश्वत्थु हा ॥ ११४ ॥

(=नाही श्व=उद्या त्थु=स्थिती )


आणि अश्वत्थु येणें नांवें | पिंपळु म्हणती स्वभावें |
परी तो अभिप्राय नव्हे | श्रीहरीचा ॥ ११५ ॥

एऱ्हवीं पिंपळु म्हणतां विखीं | मियां गति देखिली असे निकी |
परी तें असो काय लौकिकीं | हेतु काज ॥ ११६ ॥

गति=अर्थ

म्हणौनि हा प्रस्तुतु | अलौकिकु परियेसा ग्रंथु |
तरी क्षणिकत्वेंचि अश्वत्थु | बोलिजे हा ॥ ११७ ॥

आणीकुही येकु थोरु | यया अव्ययत्वाचा डगरु |
आथी परी तो भीतरु | ऐसा आहे ॥ ११८ ॥

डगरु=प्रसिद्धी भीतरु=आत

जैसा मेघांचेनि तोंडें | सिंधु एके आंगें काढे |
आणि नदी येरीकडे | भरितीच असती ॥ ११९ ॥

तेथ वोहटे ना चढे | ऐसा परिपूर्णुचि आवडे |
परी ते फुली जंव नुघडे | मेघानदींची ॥ १२० ॥

फुली=भेट नुघडे=न घडणे

ऐसें या रुखाचें होणें जाणें | न तर्के होतेनि वहिलेपणें |
म्हणौनि ययातें लोकु म्हणे | अव्ययु हा ॥ १२१ ॥

वहिलेपणें= वाहणे गतिमान वेगळेपण
(तर्काने कळत नाही )

एऱ्हवीं दानशीळु पुरुषु | वेंचकपणेंचि संचकु |
तैसा व्ययेंचि हा रुखु | अव्ययो गमे ॥ १२२ ॥

जातां वेगें बहुवसें | न वचे कां भूमीं रुतलें असे |
रथाचें चक्र दिसे। जियापरी ॥ १२३ ॥

तैसें काळातिक्रमें जे वाळे | ते भूतशाखा जेथ गळे।
तेथ कोडीवरी उमाळे | उठती आणिक ॥ १२४ ॥

कोडीवरी =खूप कोट्यावधी  उमाळे =अंकुर पुंजके

परी येकी केधवां गेली। शाखाकोडी केधवां जाली |
हें नेणवे जेवीं उमललीं | आषाढाभ्रें ॥ १२५ ॥

महाकल्पाच्या शेवटीं | उदेलिया उमळती सृष्टी |
तैसेंचि आणिखीचें दांग उठी | सासिन्नलें ॥ १२६ ॥

उमळती =नष्ट होती दांग=अरण्य
सासिन्नलें=बहरले

संहारवातें प्रचंडें | पडती प्रळयांतींचीं सालडें |
तंव कल्पादीचीं जुंबाडें | पाल्हेजती ॥ १२७ ॥

सालडें =साली     जुंबाडें=घोस समूह   
पाल्हेजती=भरास येतात विस्तारती

रिगे मन्वंतर मनूपुढें | वंशावरी वंशांचे मांडे |
जैसी इक्षुवृद्धी कांडेंनकांडें | जिंके जेवीं ॥ १२८ ॥

मांडे=विस्तारे

कलियुगांतीं कोरडीं | चहुं युगांची सालें सांडी |
तंव कृतयुगाची पेली देव्हडी | पडे पुढती ॥ १२९ ॥

पेली=पहिली  देव्हडी=दुप्पट ताजी 


वर्ततें वर्ष जाये | तें पुढिला मुळहारी होये |
जैसा दिवसु जात कीं येत आहे | हें चोजवेना ॥ १३० ॥

मुळहारी=बोलावणारा

जैशा वारियाच्या झुळकां | सांदा ठाउवा नव्हे देखा |
तैसिया उठती पडती शाखा | नेणों किती ॥ १३१ ॥

एकी देहाची डिरी तुटे | तंव देहांकुरीं बहुवी फुटे |
ऐसेनि भवतरु हा वाटे | अव्ययो ऐसा ॥ १३२ ॥

जैसें वाहतें पाणी जाय वेगें | तैसेंचि आणिक मिळे मागें |
येथ असंतचि असिजे जगें | मानिजे संत ॥ १३३ ॥

असंतचि=नाशवान संत =अविनाधी

कां लागोनि डोळां उघडे | तंव कोडीवरी घडे मोडे |
नेणतया तरंगु आवडे | नित्यु ऐसा ॥ १३४ ॥

वायसा एकें बुबुळें दोहींकडे | डोळा चाळीतां अपाडें |
दोन्ही आथी ऐसा पडे | भ्रमु जेवीं जगा ॥ १३५ ॥

वायसा=कावळा अपाडें=वेगाने  

पैं भिंगोरी निधिये पडली | ते गमे भूमीसी जैसी जडली |
ऐसा वेगातिशयो भुली | हेतु होय ॥ १३६ ॥

भिंगोरी=भिंगरी चक्र

हें बहु असो झडती | आंधारें भोवंडितां कोलती |
ते दिसे जैसी आयती | चक्राकार ॥ १३७ ॥

हा संसारवृक्षु तैसा | मोडतु मांडतु सहसा |
न देखोनि लोकु पिसा | अव्ययो मानी ॥ १३८ ॥

सहसा=लगेच एकदम    पिसा=वेडे

परि ययाचा वेगु देखे | जो हा क्षणिक ऐसा वोळखे |
जाणे कोडिवेळां निमिखें | होत जात ॥ १३९ ॥

कोडि=कोटी

नाहीं अज्ञानावांचूनि मूळ | ययाचें असिलेंपण टवाळ |
ऐसें झाड सिनसाळ | देखिलें जेणें ॥ १४० ॥

टवाळ=खोटे सिनसाळ=जीर्ण साल (नाशिवंत)

तयातें गा पंडुसुता | मी सर्वज्ञुही म्हणें जाणता |
पैं वाग्ब्रह्म सिद्धांता | वंद्यु तोची ॥ १४१ ॥

वाग्ब्रह्म=वेदातील

योगजाताचें जोडलें | तया एकासीचि उपेगा गेलें |
किंबहुना जियालें | ज्ञानही त्याचेनी ॥ १४२ ॥

हें असो बहु बोलणें | वानिजैल तो कवणें |
जो भवरुखु जाणें | उखि ऐसा ॥ १४३ ॥

उखि=अनित्य
by dr. vikrant tikone


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