श्रीभगवानुवाच।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १॥
मग म्हणे धनंजया | तें ऊर्ध्व गा तरू यया |
येणें रुखेंचि कां जया | ऊर्ध्वता गमे ॥ ७२ ॥
तें ऊर्ध्व=ब्रह्म
(या वृक्षामुळे
त्याला ऊर्ध्वत्व)
(पुढे ज्ञानदेव पुन्हा
थोडक्यात ब्रह्म वर्णन करतात)
एऱ्हवीं मध्योर्ध्व अध | हे नाहीं जेथ भेद |
अद्वयासीं एकवद | जया ठायीं ॥ ७३ ॥
एकवद=एक वाक्यता
जो नाइकिजतां नादु | जो असौरभ्य मकरंदु |
जो आंगाथिला आनंदु | सुरतेविण ॥ ७४ ॥
असौरभ्य =गंधावाचून सुरतेविण=शरीरावीन
जया जें आऱ्हां परौतें | जया जें पुढें मागौतें |
दिसतेविण दिसतें | अदृश्य जें ॥ ७५ ॥
आऱ्हां=अलिकडे परौतें=पलिकडचे
उपाधीचा दुसरा | घालितां वोपसरा |
नामरूपाचा संसारा | होय जयातें ॥ ७६ ॥
नामरूपाचा संसारा | होय जयातें ॥ ७६ ॥
वोपसरा=संबंध
ज्ञातृज्ञेयाविहीन | नुसधेंचि जें ज्ञान |
सुखा भरलें गगन | गाळींव जें ॥ ७७ ॥
ज्ञातृज्ञेया=जाणणारा व जाणण्याची वस्तू
जें कार्य ना कारण | जया दुजें ना एकपण |
आपणयां जें जाण | आपणचि ॥ ७८ ॥
ऐसें वस्तु जें साचें | तें ऊर्ध्व गा यया तरूचें |
**
तेथ आर घेणें मूळाचें | तें ऐसें असे ॥ ७९ ॥
तेथ आर घेणें मूळाचें | तें ऐसें असे ॥ ७९ ॥
आर=अंकुर
तरी माया ऐसी ख्याती | नसतीच यया आथी |
कां वांझेची संतती | वानणें जैशी ॥ ८० ॥
आथी =आहे वानणें=वर्णन करणे
तैशी सत् ना असत् होये | जे विचाराचें नाम न साहे |
ऐसेया परीची आहे | अनादि म्हणती ॥ ८१ ॥
जे नानातत्त्वांची मांदुस | जे जगदभ्राचें आकाश |
जे आकारजाताचें दुस | घडी केलें ॥ ८२ ॥
मांदुस =पेटी दुस=वस्त्र
जे भवद्रुमबीजिका | जे प्रपंचचित्र भूमिका |
विपरीत ज्ञानदीपिका | सांचली जे ॥ ८३ ॥
भूमिका=पार्श्वभूमी विपरीत=उलट चुकीची
ते माया वस्तूच्या ठायीं | असे जैसेनि नाहीं |
मग वस्तुप्रभाचि पाही | प्रगट होये ॥ ८४ ॥
जेव्हां आपणया आली निद | करी आपणपें जेवीं मुग्ध |
कां काजळी आणी मंद | प्रभा दीपीं ॥ ८५ ॥
स्वप्नीं प्रियापुढें तरुणांगी | निदेली चेववूनि वेगीं |
आलिंगिलेनिवीण आलिंगी | सकामु करी ॥ ८६ ॥
तैसी स्वरूपीं जाली माया | आणी स्वरूप नेणे धनंजया |
तेंचि रुखा यया | मूळ पहिलें ॥ ८७ ॥
वस्तूसी आपुला जो अबोधु | तो ऊर्ध्वीं आठुळैजे कंदु |
वेदांतीं हाचि प्रसिद्धु | बीजभावो ॥ ८८ ॥
आठुळैजे=घट्ट होणे ,घनावने बनणे
घन अज्ञान सुषुप्ती | तो बीजांकुरभावो म्हणती |
येर स्वप्न हन जागृती | हा फळभावो तियेचा ॥ ८९ ॥
सुषुप्ती=झोप
ऐसी यया वेदांतीं | निरूपणभाषाप्रतीती |
परी तें असो प्रस्तुतीं | अज्ञान मूळ ॥ ९० ॥
प्रतीती=प्रसिद्ध
तें ऊर्ध्व आत्मा निर्मळें | अधोर्ध्व सूचिती मूळें |
बळिया बांधोनि आळें | मायायोगाचें ॥ ९१ ॥
सूचिती=फाकती दावती
मग आधिलीं सदेहांतरें | उठती जियें अपारें |
ते चौपासि घेऊनि आगारें | खोलावती ॥ ९२ ॥
आधिलीं=खालील चौपासि =चौफेर आगारें=अग्रे मुळ्या
ऐसें भवद्रुमाचें मूळ | हें ऊर्ध्वीं करी बळ |
मग आणियांचें बेंचळ | अधीं दावी ॥ ९३ ॥
बेंचळ=जुबांड,झुबके
पाना फुलांची गुंतावळ
तेथ् चिद्वृत्ति पहिलें | महत्तत्त्व उमललें |
तें पान वाल्हेंदुल्हें | एक निघे ॥ ९४ ॥
चिद्वृत्ति=जाणीवरूप वाल्हेंदुल्हें=एखाद दुसरे
मग सत्त्वरजतमात्मकु | त्रिविध अहंकारु जो एकु |
तो तिवणा अधोमुखु | डिरु फुटे ॥ ९५ ॥
तिवणा=तीन पानांचा डिरु=अंकुर
तो बुद्धीची घेऊनि आगारी | भेदाची वृद्धि करी |
तेथे मनाचे डाळ धरी | साजेपणें ॥ ९६ ॥
आगारी=अग्रे डाळ=फांदी(मोड) साजेपणें=दृढतेने
ऐसा मूळाचिया गाढिका | विकल्परस कोंवळिका |
चित्तचतुष्टय डाहाळिका | कोंभैजे तो ॥ ९७ ॥
मग आकाश वायु द्योतक | आप पृथ्वी हें पांच फोंक |
महाभूतांचें सरोख | सरळे होती ॥ ९८ ॥
द्योतक =तेज तत्व सरोख = वेगाने
तैसीं श्रोत्रादि तन्मात्रें | तियें अंगवसां गर्भपत्रें |
लुळलुळितें विचित्रें | उमळती गा ॥ ९९ ॥
अंगवसां =टोकाला गर्भपत्रें=शेवटी आलेली ,पूर्ण न उमललेली
लुळलुळितें=कोवळी विचित्रें=एकसारखी नसलेली
तेथ शब्दांकुर वरिपडी | श्रोत्रा वाढी देव्हडी |
होता करित कांडीं | आकांक्षेचीं ॥ १०० ॥
वरिपडी=प्राप्त होतात देव्हडी=दीडपट पुष्कळ
कांडीं=पेर कांडे
अंगत्वचेचे वेलपल्लव | स्पर्शांकुरीं घेती धांव |
तेथ बांबळ पडे अभिनव | विकारांचें ॥ १०१ ॥
बांबळ=विस्तार अभिनव=अपूर्व
पाठीं रूपपत्र पालोवेलीं | चक्षु लांब तें कांडें घाली |
ते वेळीं व्यामोहता भली | पाहाळीं जाय ॥ १०२ ॥
पालोवेलीं=पानाची दाटी
व्यामोहता =भ्रम |
पाहाळीं =विस्तार
आणि रसाचें आंगवसें | वाढतां वेगें बहुवसें |
जिव्हे आर्तीची असोसें | निघती बेंचें ॥ १०३ ॥
आंगवसें= अंग विस्तारे | असोसें=पुष्कळ
बेंचें=पानास फुटले पान
तैसेंचि कोंभैलेनि गंधें | घ्राणाची डिरी थांबुं बांधे |
तेथ तळु घे स्वानंदें | प्रलोभाचा ॥ १०४ ॥
कोंभैलेनि =कोंभ आल्याने डिरी=शेंडा
तळु घे= जोर करणे बळावणे
एवं महदहंबुद्धि | मनें महाभूतसमृद्धी |
इया संसाराचिया अवधी | सासनिजे ॥ १०५ ॥
महदहंबुद्धि=महद तत्व अहं बुद्धी
सासनिजे=भरास येणे
किंबहुना इहीं आठें | आंगीं हा अधिक फांटे |
परी शिंपीचियेवढें उमटे | रुपें जेवीं ॥ १०६ ॥
शिंपी=शिंपले
कां समुद्राचेनि पैसारें | वरी तरंगता आसारे |
तैसें ब्रह्मचि होय वृक्षाकारें | अज्ञानमूळ ॥ १०७ ॥
पैसारें =विस्तार आसारे=पसरता
आतां याचा हाचि विस्तारु | हाचि यया पैसारु |
जैसा आपणपें स्वप्नीं परिवारु | येकाकिया ॥ १०८ ॥
परी तें असो हें ऐसें | कावरें झाड उससे |
यया महदादि आरवसें | अधोशाखा ॥ १०९ ॥
कावरें =भ्रमात्मक उससे =वाढते आरवसें
=अंकुर फुटती
आणि अश्वत्थु ऐसें ययातें | म्हणती जे जाणते |
तेंही परिस हो येथें | सांगिजैल ॥ ११० ॥
तरी श्वः म्हणिजे उखा | तोंवरी एकसारिखा |
नाहीं निर्वाहो यया रुखा | प्रपंचरूपा ॥ १११ ॥
उखा=उषा =क्षणिक
जैसा न लोटतां क्षणु | मेघु होय नानावर्णु |
कां विजु नसे संपूर्णु | निमेषभरी ॥ ११२ ॥
ना कांपतया पद्मदळा | वरीलिया बैसका नाहीं जळा |
कां चित्त जैसें व्याकुळा | माणुसाचें ॥ ११३ ॥
तैसीचि ययाची स्थिती | नासत जाय क्षणक्षणाप्रती |
म्हणौनि ययातें म्हणती | अश्वत्थु हा ॥ ११४ ॥
(अ=नाही श्व=उद्या त्थु=स्थिती )
आणि अश्वत्थु येणें नांवें | पिंपळु म्हणती स्वभावें |
परी तो अभिप्राय नव्हे | श्रीहरीचा ॥ ११५ ॥
एऱ्हवीं पिंपळु म्हणतां विखीं | मियां गति देखिली असे निकी |
परी तें असो काय लौकिकीं | हेतु काज ॥ ११६ ॥
गति=अर्थ
म्हणौनि हा प्रस्तुतु | अलौकिकु परियेसा ग्रंथु |
तरी क्षणिकत्वेंचि अश्वत्थु | बोलिजे हा ॥ ११७ ॥
आणीकुही येकु थोरु | यया अव्ययत्वाचा डगरु |
आथी परी तो भीतरु | ऐसा आहे ॥ ११८ ॥
डगरु=प्रसिद्धी भीतरु=आत
जैसा मेघांचेनि तोंडें | सिंधु एके आंगें काढे |
आणि नदी येरीकडे | भरितीच असती ॥ ११९ ॥
तेथ वोहटे ना चढे | ऐसा परिपूर्णुचि आवडे |
परी ते फुली जंव नुघडे | मेघानदींची ॥ १२० ॥
फुली=भेट नुघडे=न घडणे
ऐसें या रुखाचें होणें जाणें | न तर्के होतेनि वहिलेपणें |
म्हणौनि ययातें लोकु म्हणे | अव्ययु हा ॥ १२१ ॥
वहिलेपणें= वाहणे गतिमान वेगळेपण
(तर्काने कळत नाही )
एऱ्हवीं दानशीळु पुरुषु | वेंचकपणेंचि संचकु |
तैसा व्ययेंचि हा रुखु | अव्ययो गमे ॥ १२२ ॥
जातां वेगें बहुवसें | न वचे कां भूमीं रुतलें असे |
रथाचें चक्र दिसे। जियापरी ॥ १२३ ॥
तैसें काळातिक्रमें जे वाळे | ते भूतशाखा जेथ गळे।
तेथ कोडीवरी उमाळे | उठती आणिक ॥ १२४ ॥
कोडीवरी =खूप कोट्यावधी उमाळे =अंकुर पुंजके
परी येकी केधवां गेली। शाखाकोडी केधवां जाली |
हें नेणवे जेवीं उमललीं | आषाढाभ्रें ॥ १२५ ॥
महाकल्पाच्या शेवटीं | उदेलिया उमळती सृष्टी |
तैसेंचि आणिखीचें दांग उठी | सासिन्नलें ॥ १२६ ॥
उमळती =नष्ट होती दांग=अरण्य
सासिन्नलें=बहरले
संहारवातें प्रचंडें | पडती प्रळयांतींचीं सालडें |
तंव कल्पादीचीं जुंबाडें | पाल्हेजती ॥ १२७ ॥
सालडें =साली जुंबाडें=घोस समूह
पाल्हेजती=भरास येतात विस्तारती
रिगे मन्वंतर मनूपुढें | वंशावरी वंशांचे मांडे |
जैसी इक्षुवृद्धी कांडेंनकांडें | जिंके जेवीं ॥ १२८ ॥
मांडे=विस्तारे
कलियुगांतीं कोरडीं | चहुं युगांची सालें सांडी |
तंव कृतयुगाची पेली देव्हडी | पडे पुढती ॥ १२९ ॥
पेली=पहिली देव्हडी=दुप्पट ताजी
वर्ततें वर्ष जाये | तें पुढिला मुळहारी होये |
जैसा दिवसु जात कीं येत आहे | हें चोजवेना ॥ १३० ॥
मुळहारी=बोलावणारा
जैशा वारियाच्या झुळकां | सांदा ठाउवा नव्हे देखा |
तैसिया उठती पडती शाखा | नेणों किती ॥ १३१ ॥
एकी देहाची डिरी तुटे | तंव देहांकुरीं बहुवी फुटे |
ऐसेनि भवतरु हा वाटे | अव्ययो ऐसा ॥ १३२ ॥
जैसें वाहतें पाणी जाय वेगें | तैसेंचि आणिक मिळे मागें |
येथ असंतचि असिजे जगें | मानिजे संत ॥ १३३ ॥
असंतचि=नाशवान संत =अविनाधी
कां लागोनि डोळां उघडे | तंव कोडीवरी घडे मोडे |
नेणतया तरंगु आवडे | नित्यु ऐसा ॥ १३४ ॥
वायसा एकें बुबुळें दोहींकडे | डोळा चाळीतां अपाडें |
दोन्ही आथी ऐसा पडे | भ्रमु जेवीं जगा ॥ १३५ ॥
वायसा=कावळा अपाडें=वेगाने
पैं भिंगोरी निधिये पडली | ते गमे भूमीसी जैसी जडली |
ऐसा वेगातिशयो भुली | हेतु होय ॥ १३६ ॥
भिंगोरी=भिंगरी चक्र
हें बहु असो झडती | आंधारें भोवंडितां कोलती |
ते दिसे जैसी आयती | चक्राकार ॥ १३७ ॥
हा संसारवृक्षु तैसा | मोडतु मांडतु सहसा |
न देखोनि लोकु पिसा | अव्ययो मानी ॥ १३८ ॥
सहसा=लगेच एकदम पिसा=वेडे
परि ययाचा वेगु देखे | जो हा क्षणिक ऐसा वोळखे |
जाणे कोडिवेळां निमिखें | होत जात ॥ १३९ ॥
कोडि=कोटी
नाहीं अज्ञानावांचूनि मूळ | ययाचें असिलेंपण टवाळ |
ऐसें झाड सिनसाळ | देखिलें जेणें ॥ १४० ॥
टवाळ=खोटे सिनसाळ=जीर्ण साल (नाशिवंत)
तयातें गा पंडुसुता | मी सर्वज्ञुही म्हणें जाणता |
पैं वाग्ब्रह्म सिद्धांता | वंद्यु तोची ॥ १४१ ॥
वाग्ब्रह्म=वेदातील
योगजाताचें जोडलें | तया एकासीचि उपेगा गेलें |
किंबहुना जियालें | ज्ञानही त्याचेनी ॥ १४२ ॥
हें असो बहु बोलणें | वानिजैल तो कवणें |
जो भवरुखु जाणें | उखि ऐसा ॥ १४३ ॥
उखि=अनित्य
by dr. vikrant tikone
************* ********************