Friday, June 1, 2018

ज्ञानेश्वरी / अध्याय १७ वा संत ज्ञानेश्वर ओव्या ३४ ते ७५




ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ३४ ते ७५


अर्जुन उवाच।
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १॥


तो अर्जुन म्हणे गा तमालश्यामा | इंद्रियां फांवलिया ब्रह्मा |
तुझां बोलु आम्हा | साकांक्षु पैं जी ॥ ३४ ॥

तमालश्यामा= तमाल वृक्षा सारखा सावळा
साकांक्षु=साशंक करणारा

जें शास्त्रेंवांचूनि आणिकें | प्राणिया स्वमोक्षु न देखे |
ऐसें कां कैंपखें | बोलिलासी ॥ ३५ ॥
कैंपखें=कैवार (कोणता पक्ष घेवून )

तरी न मिळेचि तो देशु | नव्हेचि काळा अवकाशु |
जो करवी शास्त्राभ्यासु | तोही दुरी ॥ ३६ ॥

आणि अभ्यासीं विरजिया | होती जिया सामुग्रिया |
त्याही नाहीं आपैतिया | तिये वेळीं ॥ ३७ ॥
विरजिया=साहायक आपैतिया=प्राप्त

उजू नोहेचि प्राचीन | नेदीचि प्रज्ञा संवाहन |
ऐसें ठेलें आपादन | शास्त्राचें जया ॥ ३८ ॥
उजू =योग्य अनुकुल    प्राचीन=पुर्व कर्म
प्रज्ञा =बुद्धी   संवाहन=साहाय्यक     आपादन=संपादन मिळ्वलेले

किंबहुना शास्त्रविखीं | एकही न लाहातीचि नखी |
म्हणौनि उखिविखी | सांडिली जिहीं ॥ ३९ ॥

नखी=नखभर उखिविखी=उठाठेव

परी निर्धारूनि शास्त्रें | अर्थानुष्ठानें पवित्रें |
नांदताति परत्रें | साचारें जे ॥ ४० ॥

परत्रें=स्वर्ग लोकी

तयां{}सें आम्हीं होआवें | ऐसी चाड बांधोनि जीवें |
घेती तयांचें मागावे | आचरावया ॥ ४१ ॥

धड्याचिया आखरां | तळीं बाळ लिहे दातारा |
कां पुढांसूनि पडिकरा | अक्षमु चाले ॥ ४२ ॥

पुढांसूनि =पुढील     पडिकरा=काठी धरणारा(डोळ्स)
अक्षमु=आंधळा

तैसें सर्वशास्त्रनिपुण | तयाचें जें आचरण |
तेंचि करिती प्रमाण | आपलिये श्रद्धे ॥ ४३ ॥

मग शिवादिकें पूजनें | भूम्यादिकें महादानें |
आग्निहोत्रादि यजनें | करिती जे श्रद्धा ॥ ४४ ॥

तयां सत्त्वरजतमां-/ | माजीं कोण पुरुषोत्तमा |
गति होय ते आम्हां | सांगिजो जी ॥ ४५ ॥

तंव वैकुंठपीठींचें लिंग | जो निगमपद्माचा पराग |
जिये जयाचेनि हें जग | अंगच्छाया ॥ ४६ ॥

निगम=वेदरुपी

काळ सावियाचि वाढु | लोकोत्तर प्रौढु |
आद्वितीय गूढु | आनंदघनु ॥ ४७ ॥

काळ सावियाचि वाढु=स्वभावता काळाच्या ठिकणी असलेली प्रबळता

इयें श्लाघिजती जेणें बिकें | तें जयाचें आंगीं असिकें |
तो श्रीकृष्ण स्वमुखें | बोलत असे ॥ ४८ ॥

श्लाघिजती=बोलणे स्तुती करणे  बिकें=सामर्थ

श्री भगवानुवाच।
त्रिविध भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ २॥


म्हणे पार्था तुझा अतिसो | हेंही आम्ही जाणतसों |
जे शास्त्राभ्यासाचा आडसो | मानितोसि कीं ॥ ४९ ॥

अतिसो=इच्छा (तळ्मळ) आडसो=

नुसधियाची श्रद्धा | झोंबों पाहसी परमपदा |
तरी तैसें हें प्रबुद्धा | सोहोपें नोहे ॥ ५० ॥

प्रबुद्धा=प्रज्ञावंता  

श्रद्धा म्हणितलियासाठीं | पातेजों नये किरीटी |
काय द्विजु अंत्यजघृष्टीं | अंत्यजु नोहे ? ॥ ५१ ॥
पातेजों=
गंगोदक जरी जालें | तरी मद्यभांडां आलें |
तें घेऊं नये कांहीं केलें | विचारीं पां ॥ ५२ ॥

चंदनु होय शीतळु | परी अग्नीसी पावे मेळु |
तैं हातीं धरितां जाळूं | न शके काई ? ॥ ५३ ॥

कां किडाचिये आटतिये पुटीं | पडिलें सोळें किरीटी |
घेतलें चोखासाठीं | नागवीना ? ॥ ५४ ॥

किडाचिये=अशुद्ध सोने    सोळें=शुद्ध सोने
चोखा= शुद्ध सोने    नागवीना ?=फसवले तर जाणार नाही ना

तैसें श्रद्धेचें दळवाडें | अंगें कीर चोखडें |
परी प्राणियांच्या पडे | विभागीं जैं ॥ ५५ ॥

दळवाडें=समुह   कीर=खरोखर   विभागीं=भाग पड्तात

ते प्राणिये तंव स्वभावें | आनादिमायाप्रभावें |
त्रिगुणाचेचि आघवे | वळिले आहाती ॥ ५६ ॥

वळिले=बनले (वळून)

तेथही दोन गुण खांचती | मग एक धरी उन्नती |
तैं तैसियाचि होती वृत्ती | जीवांचिया ॥ ५७ ॥

खांचती=कमी होतात

वृत्ती{}सें मन धरिती | मना{}सी क्रिया करिती |
केलिया ऐसी वरीती | मरोनि देहें ॥ ५८ ॥

वरीती=मरून पुन्हा देहाचे वरन करणे धारण करणे

बीज मोडे झाड होये | झाड मोडे बीजीं सामाये |
ऐसेनि कल्पकोडी जाये | परी जाति न नशे ॥ ५९ ॥

तियापरीं यियें अपारें | होत जात जन्मांतरें |
परी त्रिगुणत्व न व्यभिचरें | प्राणियांचें ॥ ६० ॥

व्यभिचरें=बदलणे

म्हणूनि प्राणियांच्या पैकीं | पडिली श्रद्धा अवलोकीं |
ते होय गुणासारिखी | तिहीं ययां ॥ ६१ ॥

विपायें वाढे सत्त्व शुद्ध | तेव्हां ज्ञानासी करी साद |
परी एका दोघे वोखद | येर आहाती ॥ ६२ ॥

वोखद=विरुद्ध (मारक औषध)

सत्त्वाचेनि आंगलगें | ते श्रद्धा मोक्षफळा रिगे |
तंव रज तम उगे | कां पां राहाती ? ॥ ६३ ॥

मोडोनि सत्त्वाची त्राये | रजोगुण आकाशें जाये |
तेव्हां तेचि श्रद्धा होये | कर्मकेरसुणी ॥ ६४ ॥

त्राये=आश्रय

मग तमाची उठी आगी | तेव्हां तेचि श्रद्धा भंगी |
हों लागे भोगालागीं | भलतेया ॥ ६५ ॥


सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यछ्रद्धः स एव सः ॥ ३॥


एवं सत्त्वरजतमा-  | वेगळी श्रद्धा सुवर्मा |
नाहीं गा जीवग्रामा-  | माजीं यया ॥ ६६ ॥

म्हणौनि श्रद्धा स्वाभाविक | असे पैं त्रिगुणात्मक |
रजतमसात्त्विक | भेदीं इहीं ॥ ६७ ॥  

जैसें जीवनचि उदक | परी विषीं होय मारक |
कां मिरयामाजीं तीख | उंसीं गोड ॥ ६८ ॥

तैसा बहुवसें तमें | जो सदाचि होय निमे |
तेथ श्रद्धा परीणमे | तेंचि होऊनि ॥ ६९ ॥

बहुवसें =बहुतेक करून  तमें=लय पावणे

मग काजळा आणि मसी | न दिसे विवंचना जैसी |
तेवीं श्रद्धा तामसी | सिनी नाहीं ॥ ७० ॥

तैसीच राजसीं जीवीं | रजोमय जाणावी |
सात्त्विकीं आघवीं | सत्त्वाचीच ॥ ७१ ॥

ऐसेनि हा सकळु | जगडंबरु निखिळु |
श्रद्धेचाचि केवळु | वोतला असे ॥ ७२ ॥

परी गुणत्रयवशें | त्रिविधपणाचें लासें |
श्रद्धे जें उठिलें असे | तें वोळख तूं ॥ ७३ ॥

लासें=चिन्हे (दोषे)

तरी जाणिजे झाड फुलें | कां मानस जाणिजे बोलें |
भोगें जाणिजे केलें | पूर्वजन्मींचें ॥ ७४ ॥

तैसीं जिहीं चिन्हीं | श्रद्धेचीं रूपें तीन्हीं |
देखिजती ते वानी | अवधारीं पां ॥ ७५ ॥



by dr. vikrant tikone