ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ३४
ते ७५
अर्जुन उवाच।
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १॥
तो अर्जुन म्हणे गा तमालश्यामा | इंद्रियां फांवलिया ब्रह्मा |
तुझां बोलु आम्हा | साकांक्षु पैं जी ॥ ३४ ॥
तमालश्यामा= तमाल वृक्षा सारखा सावळा
साकांक्षु=साशंक करणारा
जें शास्त्रेंवांचूनि आणिकें | प्राणिया स्वमोक्षु न देखे |
ऐसें कां कैंपखें | बोलिलासी ॥ ३५ ॥
कैंपखें=कैवार (कोणता पक्ष घेवून )
तरी न मिळेचि तो देशु | नव्हेचि काळा अवकाशु |
जो करवी शास्त्राभ्यासु | तोही दुरी ॥ ३६ ॥
आणि अभ्यासीं विरजिया | होती जिया सामुग्रिया |
त्याही नाहीं आपैतिया | तिये वेळीं ॥ ३७ ॥
विरजिया=साहायक आपैतिया=प्राप्त
उजू नोहेचि प्राचीन | नेदीचि प्रज्ञा संवाहन |
ऐसें ठेलें आपादन | शास्त्राचें जया ॥ ३८ ॥
उजू =योग्य अनुकुल प्राचीन=पुर्व कर्म
प्रज्ञा =बुद्धी संवाहन=साहाय्यक आपादन=संपादन मिळ्वलेले
किंबहुना शास्त्रविखीं | एकही न लाहातीचि नखी |
म्हणौनि उखिविखी | सांडिली जिहीं ॥ ३९ ॥
नखी=नखभर उखिविखी=उठाठेव
परी निर्धारूनि शास्त्रें | अर्थानुष्ठानें पवित्रें |
नांदताति परत्रें | साचारें जे ॥ ४० ॥
परत्रें=स्वर्ग लोकी
तयां{ऐ}सें आम्हीं होआवें | ऐसी चाड बांधोनि जीवें |
घेती तयांचें मागावे | आचरावया ॥ ४१ ॥
धड्याचिया आखरां | तळीं बाळ लिहे दातारा |
कां पुढांसूनि पडिकरा | अक्षमु चाले ॥ ४२ ॥
पुढांसूनि =पुढील
पडिकरा=काठी धरणारा(डोळ्स)
अक्षमु=आंधळा
तैसें सर्वशास्त्रनिपुण | तयाचें जें आचरण |
तेंचि करिती प्रमाण | आपलिये श्रद्धे ॥ ४३ ॥
मग शिवादिकें पूजनें | भूम्यादिकें महादानें |
आग्निहोत्रादि यजनें | करिती जे श्रद्धा ॥ ४४ ॥
तयां सत्त्वरजतमां-/ | माजीं कोण पुरुषोत्तमा |
गति होय ते आम्हां | सांगिजो जी ॥ ४५ ॥
तंव वैकुंठपीठींचें लिंग | जो निगमपद्माचा पराग |
जिये जयाचेनि हें जग | अंगच्छाया ॥ ४६ ॥
निगम=वेदरुपी
काळ सावियाचि वाढु | लोकोत्तर प्रौढु |
आद्वितीय गूढु | आनंदघनु ॥ ४७ ॥
काळ सावियाचि
वाढु=स्वभावता काळाच्या ठिकणी
असलेली प्रबळता
इयें श्लाघिजती जेणें बिकें | तें जयाचें आंगीं असिकें |
तो श्रीकृष्ण स्वमुखें | बोलत असे ॥ ४८ ॥
श्लाघिजती=बोलणे स्तुती करणे बिकें=सामर्थ
श्री भगवानुवाच।
त्रिविध भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ २॥
म्हणे पार्था तुझा अतिसो | हेंही आम्ही जाणतसों |
जे शास्त्राभ्यासाचा आडसो | मानितोसि कीं ॥ ४९ ॥
अतिसो=इच्छा (तळ्मळ) आडसो=
नुसधियाची श्रद्धा | झोंबों पाहसी परमपदा |
तरी तैसें हें प्रबुद्धा | सोहोपें नोहे ॥ ५० ॥
प्रबुद्धा=प्रज्ञावंता
श्रद्धा म्हणितलियासाठीं | पातेजों नये किरीटी |
काय द्विजु अंत्यजघृष्टीं | अंत्यजु नोहे ? ॥ ५१ ॥
पातेजों=
गंगोदक जरी जालें | तरी मद्यभांडां आलें |
तें घेऊं नये कांहीं केलें | विचारीं पां ॥ ५२ ॥
गंगोदक जरी जालें | तरी मद्यभांडां आलें |
तें घेऊं नये कांहीं केलें | विचारीं पां ॥ ५२ ॥
चंदनु होय शीतळु | परी अग्नीसी पावे मेळु |
तैं हातीं धरितां जाळूं | न शके काई ? ॥ ५३ ॥
कां किडाचिये आटतिये पुटीं | पडिलें सोळें किरीटी |
घेतलें चोखासाठीं | नागवीना ? ॥ ५४ ॥
किडाचिये=अशुद्ध सोने सोळें=शुद्ध सोने
चोखा= शुद्ध सोने नागवीना ?=फसवले तर जाणार नाही ना
तैसें श्रद्धेचें दळवाडें | अंगें कीर चोखडें |
परी प्राणियांच्या पडे | विभागीं जैं ॥ ५५ ॥
दळवाडें=समुह कीर=खरोखर
विभागीं=भाग पड्तात
ते प्राणिये तंव स्वभावें | आनादिमायाप्रभावें |
त्रिगुणाचेचि आघवे | वळिले आहाती ॥ ५६ ॥
वळिले=बनले (वळून)
तेथही दोन गुण खांचती | मग एक धरी उन्नती |
तैं तैसियाचि होती वृत्ती | जीवांचिया ॥ ५७ ॥
खांचती=कमी होतात
वृत्ती{ऐ}सें मन धरिती | मना{ऐ}सी क्रिया करिती |
केलिया ऐसी वरीती | मरोनि देहें ॥ ५८ ॥
वरीती=मरून पुन्हा देहाचे वरन करणे धारण करणे
बीज मोडे झाड होये | झाड मोडे बीजीं सामाये |
ऐसेनि कल्पकोडी जाये | परी जाति न नशे ॥ ५९ ॥
तियापरीं यियें अपारें | होत जात जन्मांतरें |
परी त्रिगुणत्व न व्यभिचरें | प्राणियांचें ॥ ६० ॥
व्यभिचरें=बदलणे
म्हणूनि प्राणियांच्या पैकीं | पडिली श्रद्धा अवलोकीं |
ते होय गुणासारिखी | तिहीं ययां ॥ ६१ ॥
विपायें वाढे सत्त्व शुद्ध | तेव्हां ज्ञानासी करी साद |
परी एका दोघे वोखद | येर आहाती ॥ ६२ ॥
वोखद=विरुद्ध (मारक औषध)
सत्त्वाचेनि आंगलगें | ते श्रद्धा मोक्षफळा रिगे |
तंव रज तम उगे | कां पां राहाती ? ॥ ६३ ॥
मोडोनि सत्त्वाची त्राये | रजोगुण आकाशें जाये |
तेव्हां तेचि श्रद्धा होये | कर्मकेरसुणी ॥ ६४ ॥
त्राये=आश्रय
मग तमाची उठी आगी | तेव्हां तेचि श्रद्धा भंगी |
हों लागे भोगालागीं | भलतेया ॥ ६५ ॥
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यछ्रद्धः स एव सः ॥ ३॥
एवं सत्त्वरजतमा- | वेगळी श्रद्धा सुवर्मा |
नाहीं गा जीवग्रामा- | माजीं यया ॥ ६६ ॥
म्हणौनि श्रद्धा स्वाभाविक | असे पैं त्रिगुणात्मक |
रजतमसात्त्विक | भेदीं इहीं ॥ ६७ ॥
जैसें जीवनचि उदक | परी विषीं होय मारक |
कां मिरयामाजीं तीख | उंसीं गोड ॥ ६८ ॥
तैसा बहुवसें तमें | जो सदाचि होय निमे |
तेथ श्रद्धा परीणमे | तेंचि होऊनि ॥ ६९ ॥
बहुवसें =बहुतेक करून तमें=लय पावणे
मग काजळा आणि मसी | न दिसे विवंचना जैसी |
तेवीं श्रद्धा तामसी | सिनी नाहीं ॥ ७० ॥
तैसीच राजसीं जीवीं | रजोमय जाणावी |
सात्त्विकीं आघवीं | सत्त्वाचीच ॥ ७१ ॥
ऐसेनि हा सकळु | जगडंबरु निखिळु |
श्रद्धेचाचि केवळु | वोतला असे ॥ ७२ ॥
परी गुणत्रयवशें | त्रिविधपणाचें लासें |
श्रद्धे जें उठिलें असे | तें वोळख तूं ॥ ७३ ॥
लासें=चिन्हे (दोषे)
तरी जाणिजे झाड फुलें | कां मानस जाणिजे बोलें |
भोगें जाणिजे केलें | पूर्वजन्मींचें ॥ ७४ ॥
तैसीं जिहीं चिन्हीं | श्रद्धेचीं रूपें तीन्हीं |
देखिजती ते वानी | अवधारीं पां ॥ ७५ ॥
by dr. vikrant tikone