Tuesday, April 30, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ,ओव्या १४८६ ते १५२८




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या  १४८६ ते १५२


इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ ६७॥

ज्याला तप नाही भक्ति नाही ऐकण्याची इच्छा नाही तसेच माझ्या विषयी भक्ति नाही त्याला हे गुह्य सांगू नकोस 

तरी तुवां हें जें पार्था | गीताशास्त्र लाधलें आस्था |
तें तपोहीना सर्वथा | सांगावें ना हो ॥ १४८६ ॥

अथवा तापसुही जाला | परी गुरूभक्तीं जो ढिला |
तो वेदीं अंत्यजु वाळिळा | तैसा वाळीं ॥ १४८७ ॥

नातरी पुरोडाशु जैसा | न घापे वृद्ध तरी वायसा |
गीता नेदी तैसी तापसा | गुरुभक्तिहीना ॥ १४८८ ॥

पुरोडाशु=यज्ञ अवशेष   वृद्ध=जुने शिळे

कां तपही जोडे देहीं | भजे गुरुदेवांच्या ठायीं |
परी आकर्णनीं नाहीं | चाड जरी ॥ १४८९ ॥

तरी मागील दोन्हीं आंगीं | उत्तम होय कीर जगीं |
परी या श्रवणालागीं | योग्यु नोहे ॥ १४९० ॥

मुक्ताफळ भलतैसें | हो परी मुख नसे |
तंव गुण प्रवेशे | तेथ कायी ? ॥ १४९१ ॥

मुक्ताफळ=मोती मुख=छिद्र  गुण=दोरा

सागरु गंभीरु होये | हें कोण ना म्हणत आहे |
परी वृष्टि वायां जाये | जाली तेथ ॥ १४९२ ॥

धालिया दिव्यान्न सुवावें | मग जें वायां धाडावें |
तें आर्तीं कां न करावें | उदारपण ॥ १४९३ ॥

आर्तीं=भुकेल्यास

म्हणौनि योग्य भलतैसें | होतु परी चाड नसे |
तरी झणें वानिवसें | देसी हें तयां ॥ १४९४ ॥

झणें=नको    वानिवसें= आवड

रूपाचा सुजाणु डोळा | वोढवूं ये कायि परिमळा ? |
जेथ जें माने ते फळा | तेथचि ते गा ॥ १४९५ ॥

सुजाणु=जाणणारा      वोढवूं=ठरवणे
माने=योग्य
 
म्हणौनि तपी भक्ति | पाहावे ते सुभद्रापती |
परी शास्त्रश्रवणीं अनासक्ती | वाळावेचि ते ॥ १४९६ ॥

नातरी तपभक्ति | होऊनि श्रवणीं आर्ति |
आथी ऐसीही आयती | देखसी जरी ॥ १४९७ ॥

 आयती=योग्यता

तरी गीताशास्त्रनिर्मिता | जो मी सकळलोकशास्ता |
तया मातें सामान्यता | बोलेल जो ॥ १४९८ ॥

सामान्यता=हलका साधारण

माझ्या सज्जनेंसिं मातें | पैशुन्याचेनि हातें |
येक आहाती तयांतें | योग्य न म्हण ॥ १४९९ ॥

मातें=मला  
पैशुन्याचेनि हातें =छद्मी पणाने, निंदा करणे

तयांची येर आघवी | सामग्री ऐसी जाणावी |
दीपेंवीण ठाणदिवी | रात्रीची जैसी ॥ १५०० ॥

ठाणदिवी=दिव्याची जागा, कोनाडा

अंग गोरें आणि तरुणें | वरी लेईलें आहे लेणें |
परी येकलेनि प्राणें | सांडिलें जेवीं ॥ १५०१ ॥

सोनयाचें सुंदर | निर्वाळिलें होय घर |
परी सर्पांगना द्वार | रुंधलें आहे ॥ १५०२ ॥

निपजे दिव्यान्न चोखट | परी माजीं काळकूट |
असो मैत्री कपट\- | गर्भिणी जैसी ॥ १५०३ ॥

गर्भिणी=पोटात

तैसी तपभक्तिमेधा | तयाची जाण प्रबुद्धा |
जो माझयांची कां निंदा | माझीचि करी ॥ १५०४ ॥

याकारणें धनंजया | तो भक्तु मेधावीं तपिया |
तरी नको बापा इया | शास्त्रा आतळों देवों ॥ १५०५ ॥

आतळों=स्पर्श करणे जाणणे

काय बहु बोलों निंदका | योग्य स्रष्टयाहीसारिखा |
गीता हे कवतिका\- | लागींही नेदीं ॥ १५०६ ॥

म्हणौनि तपाचा धनुर्धरा | तळीं दाटोनि गाडोरा |
वरी गुरुभक्तीचा पुरा | प्रासादु जो जाला ॥ १५०७ ॥

गाडोरा =पाया

आणि श्रवणेच्छेचा पुढां | दारवंटा सदा उघडा |
वरी कलशु चोखडा | अनिंदारत्नांचा ॥ १५०८ ॥


य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥ ६८॥
जो हे परम गुह्य माझ्या भक्तांना सांगेन ,माझी परम भक्ति करून मलाच मिळेल यात संशय नाही

ऐशा भक्तालयीं चोखटीं | गीतारत्नेश्वरु हा प्रतिष्ठीं |
मग माझिया संवसाटी | तुकसी जगीं ॥ १५०९ ॥

संवसाटी =साम्या (तुल्य होवून)  

कां जे एकाक्षरपणेंसीं | त्रिमात्रकेचिये कुशीं |
प्रणवु होतां गर्भवासीं | सांकडला ॥ १५१० ॥

तो गीतेचिया बाहाळीं | वेदबीज गेलें पाहाळी |
कीं गायत्री फुलींफळीं | श्लोकांच्या आली ॥ १५११ ॥

वेदबीज =ओंकार
बाहाळीं =( जो गीतेच्या विस्ताराने)विस्तारला गेला
पाहाळी.=मोहरला
ते हे मंत्ररहय गीता | मेळवी जो माझिया भक्ता |
अनन्यजीवना माता | बाळका जैसी ॥ १५१२ ॥

तैसी भक्तां गीतेसीं | भेटी करी जो आदरेंसीं |
तो देहापाठीं मजसीं | येकचि होय ॥ १५१३ ॥


न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥ ६९॥

(त्याहून मला मनुष्य मात्रात अधिक कुणी ही प्रिय नाही. आणि यापेक्षा माला आधी कुणीही आवडता होणार  नाही )

आणि देहाचेंही लेणें | लेऊनि वेगळेपणें |
असे तंव जीवेंप्राणें | तोचि पढिये ॥ १५१४ ॥

पढिये=प्रिय

ज्ञानियां कर्मठां तापसां | यया खुणेचिया माणुसां\- |
माजीं तो येकु गा जैसा | पढिये मज ॥ १५१५ ॥

तैसा भूतळीं आघवा | आन न देखे पांडवा |
जो गीता सांगें मेळावा | भक्तजनांचा ॥ १५१६ ॥

मज ईश्वराचेनि लोभें | हे गीता पढतां अक्षोभें |
जो मंडन होय सभे | संतांचिये ॥ १५१७ ॥

अक्षोभें =स्थिर चित्ताने

नेत्रपल्लवीं रोमांचितु | मंदानिळें कांपवितु |
आमोदजळें वोलवितु | फुलांचे डोळें ॥ १५१८ ॥

कोकिळा कलरवाचेनि मिषें | सद्गद बोलवीत जैसें |
वसंत का प्रवेशे | मद्भक्त आरामीं ॥ १५१९ ॥

कां जन्माचें फळ चकोरां | होत जैं चंद्र ये अंबरा |
नाना नवघन मयूरां | वो देत पावे ॥ १५२० ॥

तैसा सज्जनांच्या मेळापीं | गीतापद्यरत्नीं उमपीं |
वर्षे जो माझ्या रूपीं | हेतु ठेऊनि ॥ १५२१ ॥

उमपीं =पुष्कळ

मग तयाचेनि पाडें | पढियंतें मज फुडें |
नाहींचि गा मागेंपुढें | न्याहाळितां ॥ १५२२ ॥

अर्जुना हा ठायवरी | मी तयातें सूयें जिव्हारीं |
जो गीतार्थाचें करी | परगुणें संतां ॥ १५२३ ॥

ठायवरी=एवढा सूयें जिव्हारीं=हृदयी ठेवतो
परगुणें=सुंदर जेवण


अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ ७०॥
(हा आमुचा धर्मरूप संवाद जो कुणी अभ्यासील तो जणू ज्ञान यज्ञाने माज पुजितो असे मी मानतो)

पैं माझिया तुझिया मिळणीं | वाढिनली जे हे कहाणी |
मोक्षधर्म का जिणीं | आलासे जेथें ॥ १५२४ ॥

जिणीं =जन्माला

तो हा सकळार्थप्रबोधु | आम्हां दोघांचा संवादु |
न करितां पदभेदु | पाठेंचि जो पढे ॥ १५२५ ॥

तेणें ज्ञानानळीं प्रदीप्तीं | मूळ अविद्येचिया आहुती |
तोषविला होय सुमती | परमात्मा मी ॥ १५२६ ॥

घेऊनि गीतार्थ उगाणा | ज्ञानिये जें विचक्षणा |
ठाकती तें गाणावाणा | गीतेचा तो लाहे ॥ १५२७ ॥  

उगाणा =उलगडा गाणावाणा = गाणे म्हणून वर्णने  
लाहे=प्राप्त करणे

गीता पाठकासि असे | फळ अर्थज्ञाचि सरिसें |
गीता माउलियेसि नसे | जाणें तान्हें ॥ १५२८ ॥
 
जाणें=जाणता
by dr. vikrant tikone

Thursday, April 25, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा, ओव्या १४५७ ते १४८५




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १४५७ ते १४८५

वेदु संपन्नु होय ठाईं | परी कृपणु ऐसा आनु नाहीं |
जे कानीं लागला तिहीं | वर्णांच्याचि ॥ १४५७ ॥

येरां भवव्यथा ठेलियां | स्त्रीशूद्रादिकां प्राणियां |
अनवसरू मांडूनियां | राहिला आहे ॥ १४५८ ॥

अनवसरू=अनाधिकार

तरी मज पाहतां तें मागील उणें | फेडावया गीतापणें |
वेदु वेठला भलतेणें | सेव्य होआवया ॥ १४५९ ॥

वेठला=अवतार घेतला

ना हे अर्थु रिगोनि मनीं | श्रवणें लागोनि कानीं |
जपमिषें वदनीं | वसोनियां ॥ १४६० ॥

ये गीतेचा पाठु जो जाणे | तयाचेनि सांगातीपणें |
गीता लिहोनि वाहाणें | पुस्तकमिषें ॥ १४६१ ॥

ऐसैसा मिसकटां | संसाराचा चोहटा |
गवादी घालीत चोखटा | मोक्षसुखाची ॥ १४६२ ॥

मिसकटां= मिषाने       गवादी=गावजेवण

परी आकाशीं वसावया | पृथ्वीवरी बैसावया |
रविदीप्ति राहाटावया | आवारु नभ ॥ १४६३ ॥

तेवीं उत्तम अधम ऐसें | सेवितां कवणातेंही न पुसे |
कैवल्यदानें सरिसें | निववीत जगा ॥ १४६४ ॥

यालागीं मागिली कुटी | भ्याला वेदु गीतेच्या पोटीं |
रिगाला आतां गोमटी | कीर्ति पातला ॥ १४६५ ॥

कुटी=दूषण दोष

म्हणौनि वेदाची सुसेव्यता | ते हे मूर्त जाण श्रीगीता |
श्रीकृष्णें पंडुसुता | उपदेशिली ॥ १४६६ ॥

सुसेव्यता=सेवेला सुलभ

परी वत्साचेनि वोरसें | दुभतें होय घरोद्देशें |
जालें पांडवाचेनि मिषें | जगदुद्धरण ॥ १४६७ ॥

चातकाचियें कणवें | मेघु पाणियेसिं धांवे |
तेथ चराचर आघवें | निवालें जेवीं ॥ १४६८ ॥

कां अनन्यगतिकमळा\- | लागीं सूर्य ये वेळोवेळां |
कीं सुखिया होईजे डोळां | त्रिभुवनींचा ॥ १४६९ ॥

तैसें अर्जुनाचेनि व्याजें | गीता प्रकाशूनि श्रीराजें |
संसारायेवढें थोर ओझें | फेडिलें जगाचें ॥ १४७० ॥

सर्वशास्त्ररत्नदीप्ती | उजळिता हा त्रिजगतीं |
सूर्यु नव्हें लक्ष्मीपती | वक्त्राकाशींचा ॥ १४७१ ॥

वक्त्राकाशींचा=मुख रूपी आकाश

बाप कुळ तें पवित्र | जेथिंचा पार्थु या ज्ञाना पात्र |
जेणें गीता केलें शास्त्र | आवारु जगा ॥ १४७२ ॥

बाप=थोर

हें असो मग तेणें | सद्गुरु श्रीकृष्णें |
पार्थाचें मिसळणें | आणिलें द्वैता ॥ १४७३ ॥

पाठीं म्हणतसे पांडवा | शास्त्र हें मानलें कीं जीवा |
तेथ येरु म्हणे देवा | आपुलिया कृपा ॥ १४७४ ॥

तरी निधान जोडावया | भाग्य घडे गा धनंजया |
परी जोडिलें भोगावया | विपायें होय ॥ १४७५ ॥

विपायें=क्वचित विरळा

पैं क्षीरसागरायेवढें | अविरजी दुधाचें भांडें |
सुरां असुरां केवढें | मथितां जालें ॥ १४७६ ॥

अविरजी=न नासणारे

तें सायासही फळा आलें | जें अमृतही डोळां देखिलें |
परी वरिचिली चुकलें | जतनेतें ॥ १४७७ ॥

जतनेतें=जपणे
वरिचिली=वर म्हटल्या प्रमाणे  (असुर)
 
तेथ अमरत्वा वोगरिलें | तें मरणाचिलागीं जालें |
भोगों नेणतां जोडलें | ऐसें आहे ॥ १४७८ ॥

वोगरिलें= प्राप्त करण्या गेले (वाढले)

नहुषु स्वर्गाधिपति जाहला | परी राहाटीं भांबावला |
तो भुजंगत्व पावला | नेणसी कायी ? ॥ १४७९ ॥

म्हणौनि बहुत पुण्य तुवां | केलें तेणें धनंजया |
आजि शास्त्रराजा इया | जालासि विषयो ॥ १४८० ॥

तरी ययाचि शास्त्राचेनि | संप्रदायें पांघुरौनि |
शास्त्रार्थ हा निकेनि | अनुष्ठीं हो ॥ १४८१ ॥

निकेनि=नीट

येऱ्हवीं अमृतमंथना\- | सारिखें होईल अर्जुना |
जरी रिघसी अनुष्ठाना | संप्रदायेंवीण ॥ १४८२ ॥

गाय धड जोडे गोमटी | ते तैंचि पिवों ये किरीटी |
जैं जाणिजे हातवटी | सांजवणीची ॥ १४८३ ॥

 सांजवणीची= संध्याकाळी दूध काढणे

तैसा श्रीगुरु प्रसन्न होये | शिष्य विद्याही कीर लाहे |
परी ते फळे संप्रदायें | उपासिलिया ॥ १४८४ ॥

म्हणौनि शास्त्रीं जो इये | उचितु संप्रदायो आहे |
तो ऐक आतां बहुवें | आदरेंसीं ॥ १४८५ ॥

by dr. vikrant tikone