Friday, April 5, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा, ओव्या १२९९ ते १३४०




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १२९९ ते १३४०


ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ६१॥

(परमेश्वर सर्व प्राणी मात्रांच्या हृदयात वास करतो,मायेने भ्रमित करून सार्‍या जीवास यंत्रात बसवल्यागत चालवतो)

सर्व भूतांच्या अंतरीं | हृदय महाअंबरीं |
चिद्वृत्तीच्या सहस्त्रकरीं | उदयला असे जो ॥ १२९९ ॥

चिद्वृत्तीच्या=ज्ञानवृत्तीच्या

अवस्थात्रय तिन्हीं लोक | प्रकाशूनि अशेख |
अन्यथादृष्टि पांथिक | चेवविले ॥ १३०० ॥

अवस्था=जागृती निद्रा सुषुप्ति
अन्यथादृष्टि=विपरीत ज्ञान (मार्गावरील )

वेद्योदकाच्या सरोवरीं | फांकतां विषयकल्हारीं |
इंद्रियषट्पदा चारी | जीवभ्रमरातें ॥ १३०१ ॥

वेद्योदकाच्या=दृश्य जगत रूपी उदक
कल्हारीं=कमळे
चारी=सेवन करवणे

असो रूपक हें तो ईश्वरु | सकल भूतांचा अहंकारु |
पांघरोनि निरंतरु | उल्हासत असे ॥ १३०२ ॥

उल्हासत=स्फुरण पावणे

स्वमायेचें आडवस्त्र | लावूनि एकला खेळवी सूत्र |
बाहेरी नटी छायाचित्र | चौर्याशीं लक्ष ॥ १३०३ ॥

तया ब्रह्मादिकीटांता | अशेषांही भूतजातां |
देहाकार योग्यता | पाहोनि दावी ॥ १३०४ ॥

योग्यता=पात्रता पाहून

तेथ जें देह जयापुढें | अनुरूपपणें मांडे |
तें भूत तया आरूढे | हें मी म्हणौनि ॥ १३०५ ॥

सूत सूतें गुंतलें | तृण तृणचि बांधलें |
कां आत्मबिंबा घेतलें | बाळकें जळीं ॥ १३०६ ॥

आत्मबिंबा=स्वत:चे बिंब

तयापरी देहाकारें | आपणपेंचि दुसरें |
देखोनि जीव आविष्करें | आत्मबुद्धि ॥ १३०७ ॥
आत्मबुद्धि=तोच मी ही बुद्धी

ऐसेनि शरीराकारीं | यंत्रीं भूतें अवधारीं |
वाहूनि हालवी दोरी | प्राचीनाची ॥ १३०८ ॥

प्राचीनाची=प्रारब्ध

तेथ जया जें कर्मसूत्र | मांडूनि ठेविलें स्वतंत्र |
तें तिये गती पात्र | होंचि लागे ॥ १३०९ ॥

किंबहुना धनुर्धरा | भूतांतें स्वर्गसंसारा |
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माजीं भोवंडी, तृणें वारा | आकाशीं जैसा ॥ १३१० ॥

भ्रामकाचेनि संगें | जैसें लोहो वेढा रिगे |
तैसीं ईश्वरसत्तायोगें | चेष्टती भूतें ॥ १३११ ॥

वेढा रिगे=फिरू लागते

जैसे चेष्टा आपुलिया | समुद्रादिक धनंजया |
चेष्टती चंद्राचिया | सन्निधी येकीं ॥ १३१२ ॥

तया सिंधू भरितें दाटें | सोमकांता पाझरु फुटे |
कुमुदांचकोरांचा फिटे | संकोचु तो ॥ १३१३ ॥

तैसीं बीजप्रकृतिवशें | अनेकें भूतें येकें ईशें |
चेष्टवीजती तो असे | तुझ्या हृदयीं ॥ १३१४ ॥

अर्जुनपण न घेतां | मी ऐसें जें पंडुसुता |
उठतसे तें तत्वता | तयाचें रूप ॥ १३१५ ॥

यालागीं तो प्रकृतीतें | प्रवर्तवील हें निरुतें |
आणि तें झुंजवील तूंतें | न झुंजशी जऱ्ही ॥ १३१६ ॥

निरुतें=नक्की

म्हणौनि ईश्वर गोसावी | तेणें प्रकृती हे नेमावी |
तिया सुखें राबवावीं | इंद्रियें आपुलीं ॥ १३१७ ॥

तूं करणें न करणें दोन्हीं | लाऊनि प्रकृतीच्या मानीं |
प्रकृतीही कां अधीनी | हृदयस्था जया ॥ १३१८ ॥

मानीं=मान्यता (माथी )

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥ ६२॥
(त्याला शरण जा सर्व भावनेने अर्जुना ,त्या प्रसादाने शाश्वत परमशांति स्थान प्राप्त करशील)

तया अहं वाचा चित्त आंग | देऊनिया शरण रिग |
महोदधी कां गांग | रिगालें जैसें ॥ १३१९ ॥

मग तयाचेनि प्रसादें | सर्वोपशांतिप्रमदे |
कांतु होऊनिया स्वानंदें | स्वरूपींचि रमसी ॥ १३२० ॥

प्रमदे=स्त्रीचा

संभूति जेणें संभवे | विश्रांति जेथें विसंवे |
अनुभूतिही अनुभवे | अनुभवा जया ॥ १३२१ ॥

संभूति=उत्पति

तिये निजात्मपदींचा रावो | होऊनि ठाकसी अव्यवो |
म्हणे लक्ष्मीनाहो | पार्था तूं गा ॥ १३२२ ॥


इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ६३॥
(असे जे हे गुहयातील गुह्य ज्ञान तुला वर्णन करून संगितले आहे .त्यावर विचार करून जशी तुझी इच्छा तसे कर)

हें गीता नाम विख्यात | सर्ववाङ्गमयाचें मथित |
आत्मा जेणें हस्तगत | रत्न होय ॥ १३२३ ॥

ज्ञान ऐसिया रूढी | वेदांतीं जयाची प्रौढी |
वानितां कीर्ति चोखडी | पातली जगीं ॥ १३२४ ॥

बुद्ध्यादिकें डोळसें | हें जयाचें कां कडवसें |
मी सर्वद्रष्टाही दिसें | पाहला जया ॥ १३२५ ॥

बुद्ध्यादिकें=बुद्धी वगैरे डोळस वस्तु

तें हें गा आत्मज्ञान | मज गोप्याचेंही गुप्त धन |
परी तूं म्हणौनि आन | केवीं करूं ? ॥ १३२६ ॥

याकारणें गा पांडवा | आम्हीं आपुला हा गुह्य ठेवा |
तुज दिधला कणवा | जाकळिलेपणें ॥ १३२७ ॥

कणवा=कणवेणे जाकळिले= भारावून  

जैसी भुलली वोरसें | माय बोले बाळा दोषें |
प्रीति ही परी तैसें | न करूंचि हो ॥ १३२८ ॥
वोरसें=प्रेमाने

येथ आकाश आणि गाळिजे | अमृताही साली फेडिजे |
कां दिव्याकरवीं करविजे | दिव्य जैसे ॥ १३२९ ॥

जयाचेनि अंगप्रकाशें | पाताळींचा परमाणु दिसे |
तया सूर्याहि का जैसे | अंजन सूदलें ॥ १३३० ॥

तैसें सर्वज्ञेंही मियां | सर्वही निर्धारूनियां |
निकें होय तें धनंजया | सांगितलें तुज ॥ १३३१ ॥

निर्धारूनियां =विचार करून  निकें=योग्य चांगले

आतां तूं ययावरी | निकें हें निर्धारीं |
निर्धारूनि करीं | आवडे तैसें ॥ १३३२ ॥

यया देवाचिया बोला | अर्जुनु उगाचि ठेला |
तेथ देवो म्हणती भला | अवंचकु होसी ॥ १३३३ ॥

अवंचकु=सरल स्वभावाचा

वाढतयापुढें भुकेला | उपरोधें म्हणे मी धाला |
तैं तोचि पीडे आपुला | आणि दोषुही तया ॥ १३३४ ॥

तैसा सर्वज्ञु श्रीगुरु | भेटलिया आत्मनिर्धारु |
न पुसिजे जैं आभारु | धरूनियां ॥ १३३५ ॥

आभारु=भीड

तैं आपणपेंचि वंचे | आणि पापही वंचनाचें |
आपणयाचि साचें | चुकविलें तेणें ॥ १३३६ ॥
वंचे = आत्मवंचना    वंचनाचें= फसवणे  
आपणयाचि=आत्मलाभाला

पैं उगेपणा तुझिया | हा अभिप्रावो कीं धनंजया |
जें एकवेळ आवांकुनियां | सांगावें ज्ञान ॥ १३३७ ॥

अभिप्रावो =बोलणे सांगणे   आवांकुनियां=सारांश रूपाने

तेथ पार्थु म्हणे दातारा | भलें जाणसी माझिया अंतरा |
हें म्हणों तरी दुसरा | जाणता असे काई ? ॥ १३३८ ॥

येर ज्ञेय हें जी आघवें | तूं ज्ञाता एकचि स्वभावें |
मा सूर्यु म्हणौनि वानावें | सूर्यातें काई ? ॥ १३३९ ॥

या बोला श्रीकृष्णें | म्हणितलें काय येणें |
हेंचि थोडें गा वानणें | जें बुझतासि तूं ॥ १३४० ॥

बुझतासि=जाणणे, ज्ञानी होणे (हेच तुझे) वानणें =स्तुति करणे (होय)

by dr. vikrant tikone

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