ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १४५७ ते १४८५
ओव्या १४५७ ते १४८५
वेदु संपन्नु होय ठाईं | परी कृपणु ऐसा आनु नाहीं |
जे कानीं लागला तिहीं | वर्णांच्याचि ॥ १४५७ ॥
येरां भवव्यथा ठेलियां | स्त्रीशूद्रादिकां प्राणियां |
अनवसरू मांडूनियां | राहिला आहे ॥ १४५८ ॥
अनवसरू=अनाधिकार
तरी मज पाहतां तें मागील उणें | फेडावया गीतापणें |
वेदु वेठला भलतेणें | सेव्य होआवया ॥ १४५९ ॥
वेठला=अवतार घेतला
ना हे अर्थु रिगोनि मनीं | श्रवणें लागोनि कानीं |
जपमिषें वदनीं | वसोनियां ॥ १४६० ॥
ये गीतेचा पाठु जो जाणे | तयाचेनि सांगातीपणें |
गीता लिहोनि वाहाणें | पुस्तकमिषें ॥ १४६१ ॥
ऐसैसा मिसकटां | संसाराचा चोहटा |
गवादी घालीत चोखटा | मोक्षसुखाची ॥ १४६२ ॥
मिसकटां= मिषाने गवादी=गावजेवण
परी आकाशीं वसावया | पृथ्वीवरी बैसावया |
रविदीप्ति राहाटावया | आवारु नभ ॥ १४६३ ॥
तेवीं उत्तम अधम ऐसें | सेवितां कवणातेंही न पुसे |
कैवल्यदानें सरिसें | निववीत जगा ॥ १४६४ ॥
यालागीं मागिली कुटी | भ्याला वेदु गीतेच्या पोटीं |
रिगाला आतां गोमटी | कीर्ति पातला ॥ १४६५ ॥
कुटी=दूषण दोष
म्हणौनि वेदाची सुसेव्यता | ते हे मूर्त जाण श्रीगीता |
श्रीकृष्णें पंडुसुता | उपदेशिली ॥ १४६६ ॥
सुसेव्यता=सेवेला सुलभ
परी वत्साचेनि वोरसें | दुभतें होय घरोद्देशें |
जालें पांडवाचेनि मिषें | जगदुद्धरण ॥ १४६७ ॥
चातकाचियें कणवें | मेघु पाणियेसिं धांवे |
तेथ चराचर आघवें | निवालें जेवीं ॥ १४६८ ॥
कां अनन्यगतिकमळा\- | लागीं सूर्य ये वेळोवेळां |
कीं सुखिया होईजे डोळां | त्रिभुवनींचा ॥ १४६९ ॥
तैसें अर्जुनाचेनि व्याजें | गीता प्रकाशूनि श्रीराजें |
संसारायेवढें थोर ओझें | फेडिलें जगाचें ॥ १४७० ॥
सर्वशास्त्ररत्नदीप्ती | उजळिता हा त्रिजगतीं |
सूर्यु नव्हें लक्ष्मीपती | वक्त्राकाशींचा ॥ १४७१ ॥
वक्त्राकाशींचा=मुख रूपी आकाश
बाप कुळ तें पवित्र | जेथिंचा पार्थु या ज्ञाना पात्र |
जेणें गीता केलें शास्त्र | आवारु जगा ॥ १४७२ ॥
बाप=थोर
हें असो मग तेणें | सद्गुरु श्रीकृष्णें |
पार्थाचें मिसळणें | आणिलें द्वैता ॥ १४७३ ॥
पाठीं म्हणतसे पांडवा | शास्त्र हें मानलें कीं जीवा |
तेथ येरु म्हणे देवा | आपुलिया कृपा ॥ १४७४ ॥
तरी निधान जोडावया | भाग्य घडे गा धनंजया |
परी जोडिलें भोगावया | विपायें होय ॥ १४७५ ॥
विपायें=क्वचित विरळा
पैं क्षीरसागरायेवढें | अविरजी दुधाचें भांडें |
सुरां असुरां केवढें | मथितां जालें ॥ १४७६ ॥
अविरजी=न नासणारे
तें सायासही फळा आलें | जें अमृतही डोळां देखिलें |
परी वरिचिली चुकलें | जतनेतें ॥ १४७७ ॥
जतनेतें=जपणे
वरिचिली=वर म्हटल्या प्रमाणे (असुर)
तेथ अमरत्वा वोगरिलें | तें मरणाचिलागीं जालें |
भोगों नेणतां जोडलें | ऐसें आहे ॥ १४७८ ॥
वोगरिलें= प्राप्त करण्या गेले (वाढले)
नहुषु स्वर्गाधिपति जाहला | परी राहाटीं भांबावला |
तो भुजंगत्व पावला | नेणसी कायी ? ॥ १४७९ ॥
म्हणौनि बहुत पुण्य तुवां | केलें तेणें धनंजया |
आजि शास्त्रराजा इया | जालासि विषयो ॥ १४८० ॥
तरी ययाचि शास्त्राचेनि | संप्रदायें पांघुरौनि |
शास्त्रार्थ हा निकेनि | अनुष्ठीं हो ॥ १४८१ ॥
निकेनि=नीट
येऱ्हवीं अमृतमंथना\- | सारिखें होईल अर्जुना |
जरी रिघसी अनुष्ठाना | संप्रदायेंवीण ॥ १४८२ ॥
गाय धड जोडे गोमटी | ते तैंचि पिवों ये किरीटी |
जैं जाणिजे हातवटी | सांजवणीची ॥ १४८३ ॥
सांजवणीची= संध्याकाळी दूध काढणे
तैसा श्रीगुरु प्रसन्न होये | शिष्य विद्याही कीर लाहे |
परी ते फळे संप्रदायें | उपासिलिया ॥ १४८४ ॥
म्हणौनि शास्त्रीं जो इये | उचितु संप्रदायो आहे |
तो ऐक आतां बहुवें | आदरेंसीं ॥ १४८५ ॥
by dr. vikrant tikone
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