ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या१३९० ते १४३४
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिष्यामि मा शुचः ॥ ६६॥
(सर्व धर्माचा त्याग करून तू मला एकट्याला शरण ये,मी तुझ्या सर्व पापा पासून मुक्ति देईन भिवू नकोस)
आशा जैसी दुःखातें | व्यालीं निंदा दुरितें |
हे असो जैसें दैन्यातें | दुर्भगत्व ॥ १३९० ॥
दैन्यातें =पाप
दुर्भगत्व
=असमाधान
तैसें स्वर्गनरकसूचक | अज्ञान व्यालें धर्मादिक |
तें सांडूनि घालीं अशेख | ज्ञानें येणें ॥ १३९१ ॥
हातीं घेऊन तो दोरु | सांडिजे जैसा सर्पाकारु |
कां निद्रात्यागें घराचारु | स्वप्नींचा जैसा ॥ १३९२ ॥
नाना सांडिलेनि कवळें | चंद्रींचें धुये पिंवळें |
व्याधित्यागें कडुवाळें\- | पण मुखाचें ॥ १३९३ ॥
अगा दिवसा पाठीं देउनी | मृगजळ घापे त्यजुनी |
कां काष्ठत्यागें वन्ही | त्यजिजे जैसा ॥ १३९४ ॥
तैसें धर्माधर्माचें टवाळ | दावी अज्ञान जें कां मूळ |
तें त्यजूनि त्यजीं सकळ | धर्मजात ॥ १३९५ ॥
टवाळ =बंड घोटाला (विधी निषेध)
मग अज्ञान निमालिया | मीचि येकु असे अपैसया |
सनिद्र स्वप्न गेलया | आपणपें जैसें ॥ १३९६ ॥
तैसा मी एकवांचूनि कांहीं | मग भिन्नाभिन्न आन नाहीं |
सोऽहंबोधें तयाच्या ठायीं | अनन्यु होय ॥ १३९७ ॥
पैं आपुलेनि भेदेंविण | माझें जाणिजे जें एकपण |
तयाचि नांव शरण | मज यीणें गा ॥ १३९८ ॥
भेदेंविण=भिन्नत्व
जैसें घटाचेनि नाशें | गगनीं गगन प्रवेशे |
मज शरण येणें तैसें | ऐक्य करी ॥ १३९९ ॥
सुवर्णमणि सोनया | ये कल्लोळु जैसा पाणिया |
तैसा मज धनंजया | शरण ये तूं ॥ १४०० ॥
वांचूनि सागराच्या पोटीं | वडवानळु शरण आला किरीटी |
जाळूनि ठाके तया गोठी | वाळूनि दे पां ॥ १४०१ ॥
ठाके=जळून जावून वाळूनि दे=सोडून दे
मजही शरण रिघिजे | आणि जीवत्वेंचि असिजे |
धिग् बोली यिया न लजे | प्रज्ञा केवीं ॥ १४०२ ॥
अगा प्राकृताही राया | आंगीं पडे जें धनंजया |
तें दासिरूंहि कीं तया | समान होय ॥ १४०३ ॥
प्राकृताही
=जगतात आंगीं पडे=पत्नी होणे
दासिरूंहि=दासी ही
मा मी विश्वेश्वरु भेटे | आणि जीवग्रंथी न सुटे |
हे बोल नको वोखटें | कानीं लाऊं ॥ १४०४ ॥
वोखटें=खोटे
म्हणौनि मी होऊनि मातें | सेवणें आहे आयितें |
तें करीं हातां येतें | ज्ञानें येणें ॥ १४०५ ॥
मग ताकौनियां काढिलें | लोणी मागौतें ताकीं घातलें |
परी न घेपेचि कांहीं केलें | तेणें जेवीं ॥ १४०६ ॥
तैसें अद्वयत्वें मज | शरण रिघालिया तुज |
धर्माधर्म हे सहज | लागतील ना ॥ १४०७ ॥
लोह उभें खाय माती | तें परीसाचिये संगतीं |
सोनें जालया पुढती | न शिविजे मळें ॥ १४०८ ॥
हें असो काष्ठापासोनि | मथूनि घेतलिया वन्ही |
मग काष्ठेंही कोंडोनी | न ठके जैसा ॥ १४०९ ॥
अर्जुना काय दिनकरु | देखत आहे अंधारु |
कीं प्रबोधीं होय गोचरु | स्वप्नभ्रमु | ॥ १४१० ॥
तैसें मजसी येकवटलेया | मी सर्वरूप वांचूनियां |
आन कांहीं उरावया | कारण असे ? ॥ १४११ ॥
म्हणौनि तयाचें कांहीं | चिंतीं न आपुल्या ठायीं |
तुझें पापपुण्य पाहीं | मीचि होईन ॥ १४१२ ॥
तेथ सर्वबंधलक्षणें | पापें उरावें दुजेपणें |
तें माझ्या बोधीं वायाणें | होऊनि जाईल ॥ १४१३ ॥
वायाणें=व्यर्थ
जळीं पडिलिया लवणा | सर्वही जळ होईल विचक्षणा |
तुज मी अनन्यशरणा | होईन तैसा ॥ १४१४ ॥
येतुलेनि आपैसया | सुटलाचि आहसी धनंजया |
घेईं मज प्रकाशोनियां | सोडवीन तूंतें ॥ १४१५ ॥
प्रकाशोनियां=ज्ञानाने जाणून
याकारणें पुढती | हे आधी न वाहे चित्तीं |
मज एकासि ये सुमती | जाणोनि शरण ॥ १४१६ ॥
ऐसें सर्वरूपरूपसें | सर्वदृष्टिडोळसें |
सर्वदेशनिवासें | बोलिलें श्रीकृष्णें ॥ १४१७ ॥
मग सांवळा सकंकणु | बाहु पसरोनि दक्षिणु |
आलिंगिला स्वशरणु | भक्तराजु तो ॥ १४१८ ॥
न पवतां जयातें | काखे सूनि बुद्धीतें |
बोंलणें मागौतें | वोसरलें ॥ १४१९ ॥
काखे
सूनि बुद्धीतें=बुद्धीचा पाड न लागणे
ऐसें जें कांहीं येक | बोला बुद्धीसिही अटक |
तें द्यावया मिष | खेवाचें केलें ॥ १४२० ॥
अटक=अवघड न करत येण्या जोगे
हृदया हृदय येक जाले | ये हृदयींचें ते हृदयीं घातलें |
द्वैत न मोडितां केलें | आपणा{ऐ}सें अर्जुना ॥ १४२१ ॥
दीपें दीप लाविला | तैसा परीष्वंगु तो जाला |
द्वैत न मोडितां केला | आपणपें पार्थुं ॥ १४२२ ॥
परीष्वंगु=अलिंगन मिष
तेव्हां सुखाचा मग तया | पूरु आला जो धनंजया |
तेथ वाडु तऱ्हीं बुडोनियां ॥ ठेला देवो ॥ १४२३॥
सिंधु सिंधूतें पावों जाये | तें पावणें ठाके दुणा होये |
वरी रिगे पुरवणिये | आकाशही ॥ १४२४ ॥
पावणें=भेटणे दुणा=दुप्पट रिगे=पसरणे वाढणे
तैसें तयां दोघांचें मिळणें | दोघां नावरे जाणावें कवणें |
किंबहुना श्रीनारायणें | विश्व कोंदलें ॥ १४२५ ॥
एवं वेदाचें मूळसूत्र | सर्वाधिकारैकपवित्र |
श्रीकृष्णें गीताशास्त्र | प्रकट केलें ॥ १४२६ ॥
येथ गीता मूळ वेदां | ऐसें केवीं पां आलें बोधा |
हें म्हणाल तरी प्रसिद्धा | उपपत्ति सांगों ॥ १४२७ ॥
ऐसें
केवीं पां=असे कसे समजले
तरी जयाच्या निःश्वासीं | जन्म झाले वेदराशी |
तो सत्यप्रतिज्ञ पैजेसीं | बोलला स्वमुखें ॥ १४२८ ॥
म्हणौनि वेदां मूळभूत | गीता म्हणों हें होय उचित |
आणिकही येकी येथ | उपपत्ति असे ॥ १४२९ ॥
जें न नशतु स्वरूपें | जयाचा विस्तारु जेथ लपे |
तें तयांचें म्हणिपे | बीज जगीं ॥ १४३० ॥
न नशतु स्वरूपें = स्वरूपाचा नाश न होता
तरी कांडत्रयात्मकु | शब्दराशी अशेखु |
गीतेमाजीं असे रुखु | बीजीं जैसा ॥ १४३१ ॥
कांडत्रयात्मकु=वेद कर्म उपासना ज्ञान
म्हणौनि वेदांचें बीज | श्रीगीता होय हें मज |
गमे आणि सहज | दिसतही आहे ॥ १४३२ ॥
जे वेदांचे तिन्ही भाग | गीते उमटले असती चांग |
भूषणरत्नीं सर्वांग | शोभलें जैसें ॥ १४३३ ॥
तियेचि कर्मादिकें तिन्ही | कांडें कोणकोणे स्थानीं |
गीते आहाति तें नयनीं | दाखऊं आईक ॥ १४३४ ॥
by dr. vikrant tikone
सर्व अध्याय आहेत की फक्त अठरावा अध्यायच आहे..?
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