ज्ञानेश्वरी / अध्याय
सोळावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या २१७ ते २६४
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥ ४॥
तरी तयाचि असुरां | दोषांमाजीं जया वीरा |
वाडपणाचा डांगोरा | तो दंभु ऐसा ॥ २१७ ॥
वाडपणाचा=मोठेपणा डांगोरा=कीर्ती
जैसी आपुली जननी | नग्न दाविलिया जनीं |
ते तीर्थचि परी पतनीं | कारण होय ॥ २१८ ॥
कां विद्या गुरूपदिष्टा | बोभाइलिया चोहटां |
तरी इष्टदा परी अनिष्टा | हेतु होती ॥ २१९ ॥
बोभाइलिया=प्रकट करणे चोहटां=चौकात उघड्यावर
पैं आंगें बुडतां महापूरीं | जे वेगें काढी पैलतीरीं |
ते नांवचि बांधिलिया शिरीं | बुडवी जैसी ॥ २२० ॥
कारण जें जीविता | तें वानिलें जरी सेवितां |
तरी अन्नचि पंडुसुता | होय विष ॥ २२१ ॥
वानिलें=स्तुती करून खाणे (अजीर्णाला विष होते )
तैसा दृष्टादृष्टाचा सखा | धर्मु जाला तो फोकारिजे देखा |
तरी तारिता तोचि दोखा- | लागीं होय ॥ २२२ ॥
फोकारिजे=उच्चारणे धर्मु=धर्म कार्य (जसे की दानादी )
म्हणौनि वाचेचा चौबारा | घातलिया धर्माचा पसारा |
धर्मुचि तो अधर्मु होय वीरा | तो दंभु जाणे ॥ २२३ ॥
चौबारा=चौक
आतां मूर्खाचिये जिभे | अक्षरांचा आंबुखा सुभे |
आणि तो ब्रह्मसभे | न रिझे जैसा ॥ २२४ ॥
आंबुखा =एखाद दुसरा शब्द ( थेंब )
कां मादुरी लोकांचा घोडा | गजपतिही मानी थोडा |
कां कांटियेवरिल्या सरडा | स्वर्गुही नीच ॥ २२५ ॥
मादुरी=चाबुकस्वार (भटके) गजपतिही=हत्ती ,ऐरावत
तृणाचेनि इंधनें | आगी धांवे गगनें |
थिल्लरबळें मीनें | न गणिजे सिंधु ॥ २२६ ॥
थिल्लर=डबके
तैसा माजे स्त्रिया धनें | विद्या स्तुती बहुतें मानें |
एके दिवसींचेनि परान्नें | अल्पकु जैसा ॥ २२७ ॥
अल्पकु=दरिद्री
अभ्रच्छायेचिया जोडी | निदैवु घर मोडी |
मृगांबु देखोनि फोडी | पणियाडें मूर्ख ॥ २२८ ॥
पणियाडें=माठ
किंबहुना ऐसैसें | उतणें जें संपत्तिमिसें |
तो दर्पु गा अनारिसें | न बोलें घेईं ॥ २२९ ॥
आणि जगा वेदीं विश्वासु | आणि विश्वासीं पूज्य ईशु |
जगीं एक तेजसु | सूर्युचि हा ॥ २३० ॥
जगस्पृहे आस्पद | एक सार्वभौमपद |
न मरणें निर्विवाद | जगा पढियें ॥ २३१ ॥
जगस्पृहे =जग वंद्य आस्पद=स्थान
पढियें=आवडते
म्हणौनि जग उत्साहें | यातें वानूं जाये |
कीं तें आइकोनि मत्सरु वाहे | फुगों लागे ॥ २३२ ॥
यातें=(वेद ईश्वराला )
म्हणे ईश्वरातें खायें | तया वेदा विष सूयें |
गौरवामाजीं त्राये | भंगीत असे ॥ २३३ ॥
त्राये भंगीत=बळ खर्चित जाये
पतंगा नावडे ज्योती | खद्योता भानूची खंती |
टिटिभेनें आपांपती | वैरी केला ॥ २३४ ॥
आपांपती=सागर
तैसा अभिमानाचेनि मोहें | ईश्वराचेंही नाम न साहे |
बापातें म्हणे मज हे | सवती जाली ॥ २३५ ॥
बापातें=वेदाते ,श्रुती
ऐसा मान्यतेचा पुष्टगंडु | तो अभिमानी परमलंडु |
रौरवाचा रूढु | मार्गुचि पै ॥ २३६ ॥
पुष्टगंडु=ताठा परमलंडु=उन्मत
आणि पुढिलांचें सुख | देखणियाचें होय मिख |
चढे क्रोधाग्नीचें विख | मनोवृत्ती ॥ २३७ ॥
शीतळाचिये भेटी | तातला तेलीं आगी उठी |
चंद्रु देखोनि जळे पोटीं | कोल्हा जैसा ॥ २३८ ॥
शीतळाचिये=पाणी
विश्वाचें आयुष्य जेणें उजळे | तो सूर्यु उदैला देखोनि सवळे |
पापिया फुटती डोळे | डुडुळाचे ॥ २३९ ॥
डुडुळाचे=घुबड
जगाची सुखपहांट | चोरां मरणाहूनि निकृष्ट |
दुधाचें काळकूट | होय व्याळीं ॥ २४० ॥
अगाधें समुद्रजळें | प्राशितां अधिक जळे |
वडवाग्नी न मिळे | शांति कहीं ॥ २४१ ॥
तैसा विद्याविनोदविभवें | देखे पुढिलांचीं दैवें |
तंव तंव रोषु दुणावे | क्रोधु तो जाण ॥ २४२ ॥
आणि मन सर्पाची कुटी | डोळे नाराचांची सुटी |
बोलणें ते वृष्टी | इंगळांची ॥ २४३ ॥
नाराचांची=बाण इंगळांची=निखारे विंचू
येर जें क्रियाजात | तें तिखयाचें कर्वत |
ऐसें सबाह्य खसासित | जयाचें गा ॥ २४४ ॥
तिखयाचें = तीष्ण लोखंडी खसासित= खडबडीत
तो मनुष्यांत अधमु जाण | पारुष्याचें अवतरण |
आतां आइक खूण | अज्ञानाची ॥ २४५ ॥
पारुष्याचें=काठीण्य
तरी शीतोष्णस्पर्शा | निवाडु नेणें पाषाणु जैसा |
कां रात्री आणि दिवसा | जात्यंधु तो ॥ २४६ ॥
आगी उठिला आरोगणें | जैसा खाद्याखाद्य न म्हणे |
कां परिसा पाडु नेणें | सोनया लोहा ॥ २४७ ॥
नातरी नानारसीं | रिघोनि दर्वी जैसी |
परी रसस्वादासी | चाखों नेणें ॥ २४८ ॥
दर्वी=पळी
कां वारा जैसा पारखी | नव्हेचि गा मार्गामार्गविखीं |
तैसे कृत्याकृत्यविवेकीं | अंधपण जें ॥ २४९ ॥
हें चोख हें मैळ | ऐसें नेणोनियां बाळ |
देखे तें केवळ | मुखींचि घाली ॥ २५० ॥
तैसें पापपुण्याचें खिचटें | करोनि खातां बुद्धिचेष्टे |
कडु मधुर न वाटे | ऐसी जे दशा ॥ २५१ ॥
बुद्धिचेष्टे=बुद्धीचा व्यवहार
तिये नाम अज्ञान | या बोला नाहीं आन |
एवं साही दोषांचें चिन्ह | सांगितलें ॥ २५२ ॥
इहींच साही दोषांगीं | हे आसुरी संपत्ति दाटुगी |
जैसें थोर विषय सुभगे अंगीं | अंग सानें ॥ २५३ ॥
दाटुगी=बलवान सुभगे=सुंदर स्त्री सानें=लहान
कां तिघा वन्हींच्या पांती | पाहतां थोडे ठाय गमती |
परी विश्वही प्राणाहुती | करूं न पुरे ॥ २५४ ॥
तिघा=प्रलय, वाडवानाल व विद्युत हे अग्नी
धातयाही गेलिया शरण | त्रिदोषीं न चुके मरण |
तया तिहींची दुणी जाण | साही दोष हे ॥ २५५ ॥
इहीं साही दोषीं संपूर्णीं | जाली इयेचि उभारणी |
म्हणौनि आसुरी उणी | संपदा नव्हे ॥ २५६ ॥
परी क्रूरग्रहांची जैसी | मांदी मिळे एकेचि राशी |
कां येती निंदकापासीं | अशेष पापें ॥ २५७ ॥
मरणाराचें आंग | पडिघाती अवघेचि रोग |
कां कुमुहूर्तीं दुर्योग | एकवटती ॥ २५८ ॥
पडिघाती=हल्ला करणे
विश्वासला आतुडवीजे चोरा | शिणला सुइजे महापुरा |
तैसें दोषीं इहीं नरा | अनिष्ट कीजे ॥ २५९ ॥
आतुडवीजे=सापडणे अडकणे सुइजे=शिरणे
कां आयुष्य जातिये वेळे | शेळिये सातवेउळी मिळे |
तैसे साही दोष सगळे | जोडती तया ॥ २६० ॥
सातवेउळी =सात नाग्यांची इंगळी
मोक्षमार्गाकडे | जैं यांचा आंबुखा पडे |
तैं न निघे म्हणौनि बुडे | संसारीं तो ॥ २६१ ॥
आंबुखा=थेंब
अधमां योनींच्या पाउटीं | उतरत जो किरीटी |
स्थावरांही तळवटीं | बैसणें घे ॥ २६२ ॥
हें असो तयाच्या ठायीं | मिळोनि साही दोषीं इहीं |
आसुरी संपत्ति पाहीं | वाढविजे ॥ २६३ ॥
ऐसिया या दोनी | संपदा प्रसिद्धा जनीं |
सांगितलिया चिन्हीं | वेगळाल्या ॥ २६४ ॥
by dr. vikrant tikone