Sunday, January 7, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १६ वा, ओव्या ६८ते ११३ संत ज्ञानेश्वर





ज्ञानेश्वरी / अध्याय सोळावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ६८ते ११३

श्री भगवानुवाच।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवं ॥ १॥


आतां तयाचि दैवगुणां- | माजीं धुरेचा बैसणा |
बैसे तया आकर्णा | अभय ऐसें ॥ ६८ ॥

धुरेचा=पुढे  बैसणा=बसणारा    आकर्णा=ऐका

तरी न घालूनि महापुरीं | न घेपे बुडणयाची शियारी |
कां रोगु न गणिजे घरीं | पथ्याचिया ॥ ६९ ॥

न घालूनि=न उतरून   घेपे=घेणे
शियारी=शहारे, भिती   गणिजे=मोजणे, असणे

तैसा कर्माकर्माचिया मोहरा | उठूं नेदूनि अहंकारा |
संसाराचा दरारा | सांडणें येणें ॥ ७० ॥

मोहरा=दिशा, मार्ग

अथवा ऐक्यभावाचेनि पैसें | दुजे मानूनि आत्मा ऐसें |
भयवार्ता देशें | दवडणें जें ॥ ७१ ॥

पैसें=विस्तारे दुजे=दुसऱ्याला

पाणी बुडऊं ये मिठातें | तंव मीठचि पाणी आतें |
तेवीं आपण जालेनि अद्वैतें | नाशे भय ॥ ७२ ॥

अगा अभय येणें नांवें | बोलिजे तें हें जाणावें |
सम्यक्‌ज्ञानाचें आघवें | धांवणें हें ॥ ७३ ॥
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आतां सत्त्वशुद्धी जे म्हणिजे | ते ऐशा चिन्हीं जाणिजे |
तरी जळे ना विझे | राखोंडी जैसी ॥ ७४ ॥

कां पाडिवा वाढी न मगे | अंवसे तुटी सांडूनि मागे |
माजीं अतिसूक्ष्म अंगें | चंद्रु जैसा राहे ॥ ७५ ॥

पाडिवा=पाडवा (प्रतिपदेकडे वाढ न होता )
अंवसे =अमावस्येची  तुटी= कमतरता   माजीं=मध्ये

नातरी वार्षिया नाहीं मांडिली | ग्रीष्में नाहीं सांडिली |
माजीं निजरूपें निवडली | गंगा जैसी ॥ ७६ ॥

मांडिली=वाढवली   सांडिली=आटवली   निवडली=स्थिर राहिली

तैसी संकल्पविकल्पाची वोढी | सांडूनि रजतमाची कावडी |
भोगितां निजधर्माची आवडी | बुद्धि उरे ॥ ७७ ॥

वोढी=ओढ   कावडी=श्रम ओझे

इंद्रियवर्गीं दाखविलिया | विरुद्धा अथवा भलीया |
विस्मयो कांहीं केलिया | नुठी चित्तीं ॥ ७८ ॥

गांवा गेलिया वल्लभु | पतिव्रतेचा विरहक्षोभु |
भलतेसणी हानिलाभु | न मनीं जेवीं ॥ ७९ ॥

वल्लभु=पती   भलतेसणी=कुठलेही

तेवीं सत्स्वरूप रुचलेपणें | बुद्धी जें ऐसें अनन्य होणें |
ते सत्त्वशुद्धी म्हणे | केशिहंता ॥ ८० ॥

रुचलेपणें=आवडून   केशिहंता=(अर्जुना)

आतां आत्मलाभाविखीं | ज्ञानयोगामाजीं एकीं |
जे आपुलिया ठाकी | हांवें भरे ॥ ८१ ॥

आपुलिया ठाकी = आपल्याला जमेल ते रुचेल ते   
हांवें भरे=इच्छा करे

तेथ सगळिये चित्तवृत्ती | त्यागु करणें या रीती |
निष्कामें पूर्णाहुती | हुताशीं जैसी ॥ ८२ ॥

हुताशीं=यज्ञ अग्नीत

कां सुकुळीनें आपुली | आत्मजा सत्कुळींचि दिधली |
हें असो लक्ष्मी स्थिरावली | मुकुंदीं जैसी ॥ ८३ ॥

तैसे निर्विकल्पपणें | जें योगज्ञानींच या वृत्तिक होणें |
तो तिजा गुण म्हणे | श्रीकृष्णनाथु ॥ ८४ ॥

वृत्तिक=स्थायिक वतनदार

आतां देहवाचाचित्तें | यथासंपन्नें वित्तें |
वैरी जालियाही आर्तातें | न वंचणे जें कां ॥ ८५ ॥

पत्र पुष्प छाया | फळें मूळ धनंजया |
वाटेचा न चुके आलिया | वृक्षु जैसा ॥ ८६ ॥

तैसें मनौनि धनधान्यवरी | विद्यमानें आल्या अवसरीं | 
श्रांताचिये मनोहारीं | उपयोगा जाणें ॥ ८७ ॥

मनौनि=मनापासून

तयां नांव जाण दान | जें मोक्षनिधानाचें अंजन |
हें असो आइक चिन्ह | दमाचें तें ॥ ८८ ॥
 
तरी विषयेंद्रियां मिळणी | करूनि घापे वितुटणी |
जैसें तोडिजे खड्गपाणी | पारकेया ॥ ८९ ॥

वितुटणी=ताटातूट   खड्गपाणी =गढूळ पाणी
पारकेया= निवळीचे बी  

तैसा विषयजातांचा वारा | वाजों नेदिजे इंद्रियद्वारां |
इये बांधोनि प्रत्याहारा | हातीं वोपी ॥ ९० ॥

प्रत्याहारा=अष्टांग योगातील एक साधन 
इंद्रियांना विषया पासून हटवून अंतरमुख करणे

आंतुला चित्ताचें अंगवरीं | प्रवृत्ति पळे पर बाहेरी |
आगी सुयिजे दाहींहि द्वारीं | वैराग्याची ॥ ९१ ॥

अंगवरीं=स्वभावे

श्वासोश्वासाहुनी बहुवसें | व्रतें आचरे खरपुसें |
वोसंतिता रात्रिदिवसें | नाराणुक जया ॥ ९२ ॥

बहुवसें=आवश्यक बहुत  खरपुसें=कठोर  
वोसंतिता=कष्ट करता  नाराणुक=असमाधान

पैं दमु ऐसा म्हणिपे | तो हा जाण स्वरूपें |
यागार्थुही संक्षेपें | सांगों ऐक ॥ ९३ ॥

तरी ब्राह्मण करूनि धुरे | स्त्रियादिक पैल मेरे |
माझारीं अधिकारें | आपुलालेनि ॥ ९४ ॥

धुरे=आरंभ करून   पैल मेरे=शेवट पर्यंत

जया जे सर्वोत्तम | भजनीय देवताधर्म |
ते तेणें यथागम | विधी यजिजे ॥ ९५ ॥

यथागम=यथाधर्म  

जैसा द्विज षट्कर्में करी | शूद्र तयातें नमस्कारी |
कीं दोहींसही सरोभरी | निपजे यागु ॥ ९६ ॥

सरोभरी=योग्येते नुसार (बरोबरीने )

तैसें अधिकारपर्यालोचें | हें यज्ञ करणें सर्वांचें |
परी विषय विष फळाशेचें | न घापे माजीं ॥ ९७ ॥

अधिकारपर्यालोचें=अधिकारानुसर

आणि मी कर्ता ऐसा भावो | नेदिजे देहाचेनि द्वारें जावों |
ना वेदाज्ञेसि तरी ठावो | होइजे स्वयें ॥ ९८ ॥

अर्जुना एवं यज्ञु | सर्वत्र जाण साज्ञु |
कैवल्यमार्गींचा अभिज्ञु | सांगाती हा ॥ ९९ ॥

साज्ञु=सशास्त्र लक्षण असणारा अभिज्ञु=वाटाड्या

आतां चेंडुवें भूमी हाणिजे | नव्हे तो हाता आणिजे |
कीं शेतीं बीं विखुरिजे | परी पिकीं लक्ष ॥ १०० ॥

नातरी ठेविलें देखावया | आदर कीजे दिविया |
कां शाखा फळें यावया | सिंपिजे मूळ ॥ १०१ ॥
 
हें बहु असो आरिसा | आपणपें देखावया जैसा |
पुढतपुढती बहुवसा | उटिजे प्रीती ॥ १०२ ॥

तैसा वेदप्रतिपाद्यु जो ईश्वरु | तो होआवयालागीं गोचरु |
श्रुतीचा निरंतरु | अभ्यासु करणें ॥ १०३ ॥

तेंचि द्विजांसीच ब्रह्मसूत्र | येरा स्तोत्र कां नाममंत्र |
आवर्तवणें पवित्र | पावावया तत्त्व ॥ १०४ ॥

पार्था गा स्वाध्यावो | बोलिजे तो हा म्हणे देवो |
आतां तप शब्दाभिप्रावो | आईक सांगों ॥ १०५ ॥
 
तरी दानें सर्वस्व देणें | वेंचणें तें व्यर्थ करणें |
जैसे फळोनि स्वयें सुकणें | इंद्रावणी जेवीं ॥ १०६ ॥

इंद्रावणी =कडू वृंदावनाची वेल
 
नाना धूपाचा अग्निप्रवेशु | कनकीं तुकाचा नाशु |
पितृपक्षु पोषिता ऱ्हासु | चंद्राचा जैसा ॥ १०७ ॥

तैसा स्वरूपाचिया प्रसरा -। लागीं प्राणेंद्रियशरीरां |
आटणी करणें जें वीरा | तेंचि तप ॥ १०८ ॥

अथवा अनारिसें | तपाचें रूप जरी असे |
तरी जाण जेवीं दुधीं हंसें | सूदली चांचू ॥ १०९ ॥

तैसें देहजीवाचिये मिळणीं | जो उदयजत सूये पाणी |
तो विवेक अंतःकरणीं | जागवीजे ॥ ११० ॥

सूये पाणी  =हात घालणे अडथळा

पाहतां आत्मयाकडे | बुद्धीचा पैसु सांकडें |
सनिद्र स्वप्न बुडे | जागणीं जैसें ॥ १११ ॥

पैसु=विस्तार प्रदेश

तैसा आत्मपर्यालोचु | प्रवर्ते जो साचु |
तपाचा हा निर्वेचु | धनुर्धरा ॥ ११२ ॥

आत्मपर्यालोचु=आत्म प्रीतीचा विचार

आतां बाळाच्या हितीं स्तन्य | जैसें नानाभूतीं चैतन्य |
तैसें प्राणिमात्रीं सौजन्य | आर्जव तें ॥ ११३ ॥

by dr. vikrant tikone 

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