ज्ञानेश्वरी / अध्याय सोळावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ११४ ते १८५
अहिंसा सत्यमक्रोध्स्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ २॥
आणि जगाचिया सुखोद्देशें | शरीरवाचामानसें |
राहाटणें तें अहिंसे | रूप जाण ॥ ११४ ॥
आतां तीख होऊनि मवाळ | जैसें जातीचें मुकुळ |
कां तेज परी शीतळ | शशांकाचें ॥ ११५ ॥
तीख=तीक्ष्ण मुकुळ=कमलकळी
शके दावितांचि रोग फेडूं | आणि जिभे तरी नव्हे कडु |
ते वोखदु नाहीं मा घडू | उपमा कैंची ॥ ११६ ॥
वोखदु=औषध
तरी मऊपणें बुबुळे | झगडतांही परी नाडळे |
एऱ्हवीं फोडी कोंराळें | पाणी जैसें ॥ ११७ ॥
कोंराळें=कडे
तैसें तोडावया संदेह | तीख जैसें कां लोह |
श्राव्यत्वें तरी माधुर्य | पायीं घालीं ॥ ११८ ॥
ऐकों ठातां कौतुकें | कानातें निघती मुखें |
जें साचारिवेचेनि बिकें | ब्रह्मही भेदी ॥ ११९ ॥
साचारिवेचेनि=खरेपणी
किंबहुना प्रियपणे | कोणातेंही झक{ऊं} नेणे |
यथार्थ तरी खुपणें | नाहीं कवणा ॥ १२० ॥
झक=फसवणे
एऱ्हवीं गोरी कीर काना गोड | परी साचाचा पाखाळीं कीड |
आगीचें करणें उघड | परी जळों तें साच ॥ १२१ ॥
गोरी=पारधी
पाखाळीं कीड=खरोखर पाहता ते
धोकादायक (कीड=वाईट )
कानीं लागतां महूर | अर्थें विभांडी जिव्हार |
तें वाचा नव्हे सुंदर | लांवचि पां ॥ १२२ ॥
विभांडी =विद्ध करणे (भांडणे) लांवचि=राक्षसी हडळ
परी अहितीं कोपोनि सोप | लालनीं मऊ जैसें पुष्प |
तिये मातेचें स्वरूप | जैसें कां होय ॥ १२३ ॥
सोप=लटके वरवर
तैसें श्रवणसुख चतुर | परीणमोनि साचार |
बोलणें जें अविकार | तें सत्य येथें ॥ १२४ ॥
आतां घालितांही पाणी | पाषाणीं न निघे आणी |
कां मथिलिया लोणी | कांजी नेदी ॥ १२५ ॥
त्वचा पायें शिरीं | हालेयाही फडे न करी |
वसंतींही अंबरीं | न होती फुलें ॥ १२६ ॥
त्वचा=सापाची कात
नाना रंभेचेनिही रूपें | शुकीं नुठिजेचि कंदर्पें |
कां भस्मीं वन्हि न उद्दीपे | घृतेंही जेवीं ॥ १२७ ॥
तेवींचि कुमारु क्रोधें भरे | तैसिया मंत्राचीं बीजाक्षरें |
तियें निमित्तेंही अपारें | मीनलिया ॥ १२८ ॥
मंत्राचीं बीजाक्षरें|=शिव्या अपशब्द
मीनलिया-मिळाली असता
परी धातयाही पायां पडतां | नुठी गतायु पंडुसुता |
तैसी नुपजे उपजवितां | क्रोधोर्मी गा ॥ १२९ ॥
धातयाही=ब्रह्मदेव
अक्रोधत्व ऐसें | नांव तें ये दशे |
जाण ऐसें श्रीनिवासें | म्हणितलें तया ॥ १३० ॥
आतां मृत्तिकात्यागें घटु | तंतुत्यागें पटु |
त्यजिजे जेवीं वटु | बीजत्यागें ॥ १३१ ॥
कां त्यजुनि भिंतिमात्र | त्यजिजे आघवेंचि चित्र |
कां निद्रात्यागें विचित्र | स्वप्नजाळ ॥ १३२ ॥
नाना जळत्यागें तरंग | वर्षात्यागें मेघ |
त्यजिजती जैसे भोग | धनत्यागें ॥ १३३ ॥
तेवीं बुद्धिमंतीं देहीं | अहंता सांडूनि पाहीं |
सांडिजे अशेषही | संसारजात ॥ १३४ ॥
तया नांव त्यागु | म्हणे तो यज्ञांगु |
हे मानूनि सुभगु | पार्थु पुसे ॥ १३५ ॥
सुभगु=भाग्यवान
आतां शांतीचें लिंग | तें व्यक्त मज सांग |
देवो म्हणती चांग | अवधान देईं ॥ १३६ ॥
तरी गिळोनि ज्ञेयातें | ज्ञाता ज्ञानही माघौतें |
हारपें निरुतें | ते शांति पैं गा ॥ १३७ ॥
जैसा प्रळयांबूचा उभडु | बुडवूनि विश्वाचा पवाडु |
होय आपणपें निबिडु | आपणचि ॥ १३८ ॥
उभडु=पूर पवाडु=प्रताप महत्व
निबिडु=घनदाट
मग उगम ओघ सिंधु | हा नुरेचि व्यवहारभेदु |
परी जलैक्याचा बोधु | तोही कवणा ? ॥ १३९ ॥
तैसी ज्ञेया देतां मिठी | ज्ञातृत्वही पडे पोटीं |
मग उरे तेंचि किरीटी | शांतीचें रूप ॥ १४० ॥
आतां कदर्थवीत व्याधी | बळीकरणाचिया आधीं |
आपपरु न शोधी | सद्वैद्यु जैसा ॥ १४१ ॥
कदर्थवीत=कष्टी झालेला बळीकरणाचिया=बरे करण्या आधी
का चिखलीं रुतली गाये | धडभाकड न पाहे |
जो तियेचिया ग्लानी होये | कालाभुला ॥ १४२ ॥
कालाभुला=कासावीस
नाना बुडतयातें सकरुणु | न पुसे अंत्यजु कां ब्राह्मणु |
काढूनि राखे प्राणु | हेंचि जाणे ॥ १४३ ॥
कीं माय वनीं पापियें | उघडी केली विपायें |
ते नेसविल्यावीण न पाहे | शिष्टु जैसा ॥ १४४ ॥
तैसे अज्ञानप्रमादादिकीं | कां प्राक्तनहीन सदोखीं |
निंदत्वाच्या सर्वविखीं | खिळिले जे ॥ १४५ ॥
तयां आंगीक आपुलें | देऊनियां भलें |
विसरविजती सलें | सलतीं तियें ॥ १४६ ॥
आंगीक=सोबत (स्वाभाविक
)
अगा पुढिलाचा दोखु | करूनि आपुलिये दिठी चोखु |
मग घापे अवलोकु | तयावरी ॥ १४७ ॥
जैसा पुजूनि देवो पाहिजे | पेरूनि शेता जाइजे |
तोषौनि प्रसादु घेइजे | अतिथीचा ॥ १४८ ॥
तैसें आपुलेनि गुणें | पुढिलाचें उणें |
फेडुनियां पाहणें | तयाकडे ॥ १४९ ॥
वांचूनि न विंधिजें वर्मीं | नातुडविजे अकर्मीं |
न बोलविजे नामीं | सदोषीं तिहीं ॥ १५० ॥
वरी कोणे एकें उपायें | पडिलें तें उभें होये |
तेंच कीजे परी घाये | नेदावे वर्मीं ॥ १५१ ॥
पैं उत्तमाचियासाठीं | नीच मानिजे किरीटी |
हें वांचोनि दिठी | दोषु न घेपे ॥ १५२ ॥
साठीं=सारखे
अगा अपैशून्याचें लक्षण | अर्जुना हें फुडें जाण |
मोक्षमार्गींचें सुखासन | मुख्य हें गा ॥ १५३ ॥
आतां दया ते ऐसी | पूर्णचंद्रिका जैसी |
निववितां न कडसी | सानें थोर ॥ १५४ ॥
कडसी=भेदभाव करणे
तैसें दुःखिताचें शिणणें | हिरतां सकणवपणें |
उत्तमाधम नेणें | विवंचूं गा ॥ १५५ ॥
पैं जगीं जीवनासारिखें | वस्तु अंगवरी उपखें |
परी जातें जीवित राखे | तृणाचेंहि ॥ १५६ ॥
उपखें= आपण नष्ट होते
तैसें पुढिलाचेनि तापें | कळवळलिये कृपें |
सर्वस्वेंसीं दिधलेंहि आपणपें | थोडेंचि गमे ॥ १५७ ॥
निम्न भरलियाविणें | पाणी ढळोंचि नेणे |
तेवीं श्रांता तोषौनि जाणें | सामोरें पां ॥ १५८ ॥
पैं पायीं कांटा नेहटे | तंव व्यथा जीवीं उमटे |
तैसा पोळे संकटें | पुढिलांचेनि ॥ १५९ ॥
नेहटे=रुपणे
कां पावो शीतळता लाहे | कीं ते डोळ्याचिलागीं होये |
तैसा परसुखें जाये | सुखावतु ॥ १६० ॥
किंबहुना तृषितालागीं | पाणी आरायिलें असे जगीं |
तैसें दुःखितांचे सेलभागीं | जिणें जयाचें ॥ १६१ ॥
आरायिलें=आले असे सेलभागीं=मुख्य ,पुढे
(दुख:निवाराया)
तो पुरुषु वीरराया | मूर्तिमंत जाण दया |
मी उदयजतांचि तया | ऋणिया लाभें ॥ १६२ ॥
आतां सूर्यासि जीवें | अनुसरलिया राजीवें |
परी तें तो न शिवे | सौरभ्य जैसें ॥ १६३ ॥
कां वसंताचिया वाहाणीं | आलिया वनश्रीच्या अक्षौहिणी |
ते न करीतुचि घेणी | निगाला तो ॥ १६४ ॥
हें असो महासिद्धीसी | लक्ष्मीही आलिया पाशीं |
परी महाविष्णु जैसी | न गणीच ते ॥ १६५ ॥
तैसे ऐहिकींचे कां स्वर्गींचे | भोग पाईक जालिया इच्छेचे |
परी भोगावे हें न रुचे | मनामाजीं ॥ १६६ ॥
बहुवें काय कौतुकीं | जीव नोहे विषयाभिलाखी |
अलोलुप्त्वदशा ठाउकी | जाण ते हे ॥ १६७ ॥
आतां माशियां जैसें मोहळ | जळचरां जेवीं जळ |
कां पक्षियां अंतराळ | मोकळें हें ॥ १६८ ॥
नातरी बाळकोद्देशें | मातेचें स्नेह जैसें |
कां वसंतीच्या स्पर्शें | मऊ मलयानिळु ॥ १६९ ॥
डोळ्यां प्रियाची भेटी | कां पिलियां कूर्मीची दिठी |
तैसीं भूतमात्रीं राहटी | मवाळ ते ॥ १७० ॥
स्पर्शें अतिमृदु | मुखीं घेतां सुस्वादु |
घ्राणासि सुगंधु | उजाळु आंगें ॥ १७१ ॥
तो आवडे तेवढा घेतां | विरुद्ध जरी न होतां |
तरी उपमे येता | कापूर कीं ॥ १७२ ॥
परी महाभूतें पोटीं वाहे | तेवींचि परमाणूमाजीं सामाये |
या विश्वानुसार होये | गगन जैसें ॥ १७३ ॥
काय सांगों ऐसें जिणें | जें जगाचेनि जीवें प्राणें |
तया नांव म्हणें | मार्दव मी ॥ १७४ ॥
आतां पराजयें राजा | जैसा कदर्थिजे लाजा |
कां मानिया निस्तेजा | निकृष्टास्तव ॥ १७५ ॥
कदर्थिजे=दु:खी होतो मानिया= मानी व्यक्ती
नाना चांडाळ मंदिराशीं | अवचटें आलिया संन्याशी |
मग लाज होय जैसी | उत्तमा तया ॥ १७६ ॥
क्षत्रिया रणीं पळोनि जाणें | तें कोण साहे लाजिरवाणें |
कां वैधव्यें पाचारणें | महासतियेतें ॥ १७७ ॥
पाचारणें=बोलावने
रूपसा उदयलें कुष्ट | संभावितां कुटीचें बोट |
तया लाजा प्राणसंकट | होय जैसें ॥ १७८ ॥
कुटीचें= दोषाचे
तैसें औटहातपणें | जें शव होऊनि जिणें |
उपजों उपजों मरणें | नावानावा ॥ १७९ ॥
नावानावा=पुनः पुन्हा
तियें गर्भमेदमुसें | रक्तमूत्ररसें |
वोंतीव होऊनि असे | तें लाजिरवाणें ॥ १८० ॥
हें बहु असो देहपणें | नामरूपासि येणें |
नाहीं गा लाजिरवाणें | तयाहूनी ॥ १८१ ॥
ऐसैसिया अवकळा | घेपे शरीराचा कंटाळा |
ते लाज पैं निर्मळा | निसुगा गोड ॥ १८२ ॥
निसुगा=कोडगा
आतां सूत्रतंतु तुटलिया | चेष्टाचि ठाके सायखडिया |
तैसें प्राणजयें कर्मेंद्रियां | खुंटे गती ॥ १८३ ॥
सायखडिया=कठपुतली
कीं मावळलिया दिनकरु | सरे किरणांचा प्रसरु |
तैसा मनोजयें प्रकारु | ज्ञानेंद्रियांचा ॥ १८४ ॥
एवं मनपवननियमें | होती दाही इंद्रियें अक्षमें |
तें अचापल्य वर्में | येणें होय ॥ १८५ ॥
अक्षमें-स्वाधीन
by dr. vikrant tikone
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खुप छान !
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