ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ७६ ते ११९
यजन्ते सात्त्विका
देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ ४॥
तरी सात्त्विक श्रद्धा | जयांचा होय बांधा |
तयां बहुतकरूनि मेधा | स्वर्गीं आथी ॥ ७६ ॥
प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ ४॥
तरी सात्त्विक श्रद्धा | जयांचा होय बांधा |
तयां बहुतकरूनि मेधा | स्वर्गीं आथी ॥ ७६ ॥
बांधा |=जडण घडण मेधा=बुध्द्धी
ते विद्याजात पढती | यज्ञक्रिये निवडती |
किंबहुना पडती | देवलोकीं ॥ ७७ ॥
आणि श्रद्धा राजसा | घडले जे वीरेशा |
ते भजती राक्षसां | खेचरां हन ॥ ७८ ॥
श्रद्धां जे कां तामसी | ते मी सांगेन तुजपाशीं |
जे कां केवळ पापराशी | आतिकर्कशी निर्दयत्वें ॥ ७९ ॥
कर्कशी=क्रूर
जीववधें साधूनि बळी | भूतप्रेतकुळें मैळीं |
स्मशानीं संध्याकाळीं | पूजिती जे ॥ ८० ॥
मैळीं=अमंगल
ते तमोगुणाचें सार | काढूनि निर्मिले नर |
जाण तामसियेचें घर | श्रद्धेचें तें ॥ ८१ ॥
ऐसी इहीं तिहीं लिंगीं | त्रिविध श्रद्धा जगीं |
पैं हें ययालागीं | सांगतु असें ॥ ८२ ॥
जे हे सात्त्विक श्रद्धा | जतन करावी प्रबुद्धा |
येरी दोनी विरुद्धा | सांडाविया ॥ ८३ ॥
हे सात्त्विकमति जया | निर्वाहती होय धनंजया |
बागुल नोहे तया | कैवल्य तें ॥ ८४ ॥
निर्वाहती=रक्षण करणे
तो न पढो कां ब्रह्मसूत्र | नालोढो सर्व शास्त्र |
सिद्धांत न होत स्वतंत्र | तयाच्या हातीं ॥ ८५ ॥
नालोढो= परिशीलन करणे (अभ्यासने)
परी श्रुतिस्मृतींचे अर्थ | जे आपण होऊनि मूर्त |
अनुष्ठानें जगा देत | वडील जे हे ॥ ८६ ॥
तयांचीं आचरती पाउलें | पाऊनि सात्त्विकी श्रद्धा चाले |
तो तेंचि फळ ठेविलें | ऐसें लाहे ॥ ८७ ॥
पैं एक दीपु लावी सायासें | आणिक तेथें लाऊं बैसें |
तरी तो काय प्रकाशें | वंचिजे गा ? ॥ ८८ ॥
कां येकें मोल अपार | वेंचोनि केलें धवळार |
तो सुरवाडु वस्तीकर | न भोगी काई ? ॥ ८९ ॥
हें असो जो तळें करी | तें तयाचीच तृषा हरी |
कीं सुआरासीचि अन्न घरीं | येरां नोहे ? ॥ ९० ॥
सुआरासीचि=जेवण बनवणारा (स्वयंपाकी )
बहुत काय बोलों पैं गा | येका गौतमासीचि गंगा |
येरां समस्तां काय जगां | वोहोळ जाली ? ॥ ९१ ॥
म्हणौनि आपुलियापरी | शास्त्र अनुष्ठीती कुसरी |
जाणे तयांते श्रद्धाळु जो वरी | तो मूर्खुही तरे ॥ ९२ ॥
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दंभाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ ५॥
ना शास्त्राचेनि कीर नांवें | खाकरोंही नेणती जीवें |
परी शास्त्रज्ञांही शिवें | टेंकों नेदिती ॥ ९३ ॥
खाकरोंही=आरंभ करणे
वडिलांचिया क्रिया | देखोनि वाती वांकुलिया |
पंडितां डाकुलिया | वाजविती ॥ ९४ ॥
वाती =दाखवती डाकुलिया=चुटक्या वाजवती
आपलेनीचि आटोपें | धनित्वाचेनि दर्पें |
साचचि पाखंडाचीं तपें | आदरिती ॥ ९५ ॥
आटोपें=घमेंड सामर्थे
आपुलिया पुढिलांचिया | आंगीं घालूनि कातिया |
रक्तमांसा प्रणीतया | भर भरु ॥ ९६ ॥
कातिया=कोयता प्रणीतया=यज्ञ पात्र
रिचविती जळतकुंडीं | लाविती चेड्याच्या तोंडीं |
नवसियां देती उंडी | बाळकांची ॥ ९७ ॥
चेड्याच्या=भुते ,क्षुद्र देवता उंडी=घास
आग्रहाचिया उजरिया | क्षुद्र देवतां वरीया |
अन्नत्यागें सातरीया | ठाकती एक ॥ ९८ ॥
अगा आत्मपरपीडा | बीज तमक्षेत्रीं सुहाडा |
पेरिती मग पुढां | तेंचि पिके ॥ ९९ ॥
बाहु नाहीं आपुलिया | आणि नावेतेंही धनंजया |
न धरी होय तया | समुद्रीं जैसें ॥ १०० ॥
कां वैद्यातें करी सळा | रसु सांडी पाय खोळां |
तो रोगिया जेवीं जिव्हाळा | सवता होय ॥ १०१ ॥
सळा=द्वेष रसु=औषध खोळां=लाथा
जिव्हाळा =आरोग्य सवता=विरुद्ध
नाना पडिकराचे सळें | नि सळें | काढी आपुलेचि डोळे |
तें वानवसां आंधळें | जैसें ठाके ॥ १०२ ॥
पडिकराचे =डोळस सळें =द्वेष
वानवसां=माजघरात पडून राहणे
तैसें तयां आसुरां होये | निंदूनि शास्त्रांची सोये |
सैंघ धांवताती मोहें | आडवीं जे कां ॥ १०३ ॥
सैंघ =खूप आडवीं=रानात
कामु करवी तें करिती | क्रोधु मारवी ते मारिती |
किंबहुना मातें पुरिती | दुःखाचा गुंडां ॥ १०४ ॥
गुंडां=दगड पुरिती=(पाठभेद=मारती)
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तः शरीरस्थं तान् विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥ ६॥
आपुलां परावां देहीं | दुःख देती जें जें कांहीं |
मज आत्मया तेतुलाही | होय शीणु ॥ १०५ ॥
पैं वाचेचेनिही पालवें | पापियां तयां नातळावें |
परी पडिलें सांगावें | त्यजावया ॥ १०६ ॥
पालवें =पदराने नातळावें=स्पर्श न करावा
प्रेत बाहिरें घालिजे | कां अंत्यजु संभाषणीं त्यजिजे |
हें असो हातें क्षाळिजे | कश्मलातें ? ॥ १०७ ॥
क्षाळिजे =धुणे कश्मलातें =चिखल
तेथ शुद्धीचिया आशा | तो लेपु न मनवे जैसा |
तयांतें सांडावया तैसा | अनुवादु हा ॥ १०८ ॥
अनुवादु=सांगणे
परी अर्जुना तूं तयांतें | देखसी तैं स्मर हो मातें |
जे आन प्रायश्चित्त येथें | मानेल ना ॥ १०९ ॥
म्हणौनि जे श्रद्धा सात्त्विकी | पुढती तेचि पैं येकी |
जतन करावी निकी | सर्वांपरी ॥ ११० ॥
तरी धरावा तैसा संगु | जेणें पोखे सात्त्विक लागु |
सत्त्ववृद्धीचा भागु | आहारु घेपें ॥ १११ ॥
एऱ्हवीं तरी पाहीं | स्वभाववृद्धीच्या ठाईं |
आहारावांचूनि नाहीं | बळी हेतु ॥ ११२ ॥
प्रत्यक्ष पाहें पां वीरा | जो सावध घे मदिरा |
तो होऊनि ठाके माजिरा | तियेचि क्षणीं ॥ ११३ ॥
कां जो साविया अन्नरसु सेवी | तो व्यापिजे वातश्लेष्मस्वभावीं |
काय ज्वरु जालिया निववी | पयादिक ? ॥ ११४ ॥
पयादिक=कफ वात पित्त
नातरी अमृत जयापरी | घेतलिया मरण वारी |
कां आपुलिया{ऐ}सें करी | जैसें विष ॥ ११५ ॥
तेवीं जैसा घेपे आहारु | धातु तैसाचि होय आकारु |
आणि धातु ऐसा अंतरु | भावो पोखे ॥ ११६ ॥
जैसें भांडियाचेनि तापें | आंतुलें उदकही तापे |
तैसी धातुवशें आटोपे | चित्तवृत्ती ॥ ११७ ॥
आटोपे=व्यापली जाते
म्हणौनि सात्त्विकु रसु सेविजे | तैं सत्त्वाची वाढी पाविजे |
राजसा तामसा होईजे | येरी रसीं ॥ ११८ ॥
तरी सात्त्विक कोण आहारु | राजसा तामसा कायी आकारु |
हें सांगों करीं आदरु | आकर्णनीं ॥ ११९ ॥
आदरु =आरंभ आकर्णनीं =ऐकवणे करता
by dr. vikrant tikone