Thursday, May 31, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १७ वा ओव्या १ ते ३३




ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या १ ते ३३

॥ ॐ श्री परमात्मने नमः ॥
॥ अथ श्रीमद्भगवद्गीता ॥
। अथ सप्तदशोऽध्यायः - अध्याय सतरावा |
। श्रद्धात्रयविभागयोगः।

विश्वविकासित मुद्रा | जया सोडी तुझी योगमुद्रा |
तया नमोजी गणेंद्रा | श्रीगुरुराया ॥ १ ॥
विश्वविकासित मुद्रा= विश्वाचा विकास(विस्तार) झाला आहे असा भासात्मक अनुभव (स्वप्न)
जया सोडी तुझी योगमुद्रा = ज्या मुळे यातून सुटका होते ती तुझी योग निद्रा (जाणीव नेणीवे पलीकडील जाणीवेचा स्तर )प्रदान कर्ता

त्रिगुणत्रिपुरीं वेढिला | जीवत्वदुर्गीं आडिला |
तो आत्मशंभूनें सोडविला | तुझिया स्मृती ॥ २ ॥

त्रिगुण=सत्व राज तम गुण
आत्मशंभूनें=आत्म रूप शंभू स

म्हणौनि शिवेंसीं कांटाळा | गुरुत्वें तूंचि आगळा |
तऱ्ही हळु मायाजळा- | माजीं तारूनि ॥ ३ ॥

कांटाळा=तुलना   हळु=(इतका)हलका की

जे तुझ्याविखीं मूढ | तयांलागीं तूं वक्रतुंड |
ज्ञानियांसी तरी अखंड | उजूचि आहासी ॥ ४ ॥

मूढ=अज्ञानी उजूचि=सरळ स्पष्ट

दैविकी दिठी पाहतां सानी | तऱ्ही मीलनोन्मीलनीं |
उत्पत्ति प्रळयो दोन्ही | लीलाचि करिसी ॥ ५ ॥

सानी=लहानशी

प्रवृत्तिकर्णाच्या चाळीं | उठली मदगंधानिळीं |
पूजीजसी नीलोत्पलीं | जीवभृंगांच्या ॥ ६ ॥

चाळीं=चलन हालचाल गंधानिळीं=गंधित वायू
नीलोत्पलीं=नील कमळ (रुपी

पाठीं निवृत्तिकर्णताळें | आहाळली ते पूजा विधुळे |
तेव्हां मिरविसी मोकळें | आंगाचें लेणें ॥ ७ ॥

आहाळली=मांडली सजवली
(अहाळणे चा विखुरणे अर्थ घेतला तर  अर्थ लागत नाही )   
विधुळे =उधळे विस्कटने

वामांगीचा लास्यविलासु | जो हा जगद्रूप आभासु |
तो तांडवमिसें कळासु | दाविसी तूं ॥ ८ ॥

वामांगीचा-पत्नी अर्धांगी (माया ) लास्य=नृत्य
कळासु=कौशल्य

हें असो विस्मो दातारा | तूं होसी जयाचा सोयरा |
सोइरिकेचिया व्यवहारा | मुकेचि तो ॥ ९ ॥

फेडितां बंधनाचा ठावो | तूं जगद्बंधु ऐसा भावो |
धरूं वोळगे उवावो | तुझाचि आंगीं ॥ १० ॥

वोळगे = सेवा  उवावो= पसरणे आनंदित होणे

तंव दुजयाचेनि नांवें तया | देहही नुरेचि पैं देवराया |
जेणें तूं आपणपयां | केलासि दुजा ॥ ११ ॥

तूंतें करूनि पुढें | जे उपायें घेती दवडे |
तयां ठासी बहुवें पाडें | मागांचि तूं ॥ १२ ॥

जो ध्यानें सूये मानसीं | तयालागीं नाहीं तूं त्याचे देशीं |
ध्यानही विसरे तेणेंसीं | वालभ तुज ॥ १३ ॥

तूतें सिद्धचि जो नेणे | तो नांदे सर्वज्ञपणें |
वेदांही येवढें बोलणें | नेघसी कानीं ॥ १४ ॥

मौन गा तुझें राशिनांव | आतां स्तोत्रीं कें बांधों हाव |
दिसती तेतुली माव | भजों काई ॥ १५ ॥

दैविकें सेवकु हों पाहों | तरी भेदितां द्रोहोचि लाहों |
म्हणौनि आतां कांहीं नोहों | तुजलागीं जी ॥ १६ ॥

जैं सर्वथा सर्वही नोहिजे | तैं अद्वया तूतें लाहिजे |
हें जाणें मी वर्म तुझें | आराध्य लिंगा ॥ १७ ॥

तरी नुरोनि वेगळेंपण | रसीं भजिन्नलें लवण |
तैसें नमन माझें जाण | बहु काय बोलों ॥ १८ ॥

आतां रिता कुंभ समुद्रीं रिगे | तो उचंबळत भरोनि निगे |
कां दशीं दीपसंगें | दीपुचि होय ॥ १९ ॥

दशीं=वात
 
तैसा तुझिया प्रणितीं | मी पूर्णु जाहलों श्रीनिवृत्ती |
आतां आणीन व्यक्तीं | गीतार्थु तो ॥ २० ॥

प्रणितीं= मार्गदर्शन

तरी षोडशाध्यायशेखीं | तिये समाप्तीच्या श्लोकीं |
जो ऐसा निर्णयो निष्टंकीं | ठेविला देवें ॥ २१ ॥

निष्टंकीं=स्पष्ट

जे कृत्याकृत्यव्यवस्था | अनुष्ठावया पार्था |
शास्त्रचि एक सर्वथा | प्रमाण तुज ॥ २२ ॥

तेथ अर्जुन मानसें | म्हणे हें ऐसें कैसें |
जे शास्त्रेंवीण नसे | सुटिका कर्मा ॥ २३ ॥

तरी तक्षकाची फडे | ठाकोनि कैं तो मणि काढे |
कैं नाकींचा केशु जोडे | सिंहाचिये ? ॥ २४ ॥

मग तेणें तो वोंविजे | तरीच लेणें पाविजे |
एऱ्हवीं काय असिजे | रिक्तकंठीं ? ॥ २५ ॥

तैसी शास्त्रांची मोकळी | यां कैं कोण पां वेंटाळी |
एकवाक्यतेच्या फळीं | पैसिजे कैं ? ॥ २६ ॥

मोकळी = मतभेद    वेंटाळी=आकलन करुन घेणे
पैसिजे=प्रवेश करणे

जालयाही एकवाक्यता | कां लाभें वेळु अनुष्ठितां |
कैंचा पैसारु जीविता | येतुलालिया ॥ २७ ॥
पैसारु=विस्तार

आणि शास्त्रें अर्थें देशें काळें | या चहूंही जें एकफळे |
तो उपावो कें मिळे | आघवयांसी ? ॥ २८ ॥

म्हणौनि शास्त्राचें घडतें | नोहें प्रकारें बहुतें |
तरी मुर्खा मुमुक्षां येथें | काय गति पां ? ॥ २९ ॥

घडतें==निर्णय

हा पुसावया अभिप्रावो | जो अर्जुन करी प्रस्तावो |
तो सतराविया ठावो | अध्याया येथ ॥ ३० ॥

तरी सर्वविषयीं वितृष्णु | जो सकळकळीं प्रवीणु |
कृष्णाही नवल कृष्णु | अर्जुनत्वें जो ॥ ३१ ॥

वितृष्णु= तृष्णा नसलेला कृष्णु=आकर्षित करणरा

शौर्या जोडला आधारु | जो सोमवंशाचा शृंगारु |
सुखादि उपकारु | जयाची लीला ॥ ३२ ॥

जो प्रज्ञेचा प्रियोत्तमु | ब्रह्मविद्येचा विश्रामु |
सहचरु मनोधर्मु | देवाचा जो ॥ ३३ ॥

by dr. vikrant tikone