ज्ञानेश्वरी / अध्याय
सोळावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ४३३ ते ४७३
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् २२॥
धर्मादिकां चौंही आंतु | पुरुषार्थाची तैंचि मातु |
करावी, जैं संघातु | सांडील हा ॥ ४३३ ॥
हे तिन्ही जीवीं जंव जागती | तंववरी निकियाची प्राप्ती |
हे माझे कान नाइकती | देवोही म्हणे ॥ ४३४ ॥
निकियाची=चांगले काही
जया आपणपें पढिये | आत्मनाशा जो बिहे |
तेणें न धरावी हे सोये | सावधु होईजे ॥ ४३५ ॥
पोटीं बांधोनि पाषाण | समुद्रीं बाहीं आंगवण |
कां जियावया जेवण | काळकूटाचें ॥ ४३६ ॥
बाहीं आंगवण=बाहूने तरून जाणे
इहीं कामक्रोधलोभेंसी | कार्यसिद्धि जाण तैसी |
म्हणौनि ठावोचि पुसीं | ययांचा गा ॥ ४३७ ॥
पुसीं=पुसून टाक, नष्ट कर
जैं कहीं अवचटें | हे तिकडी सांखळ तुटे |
तैं सुखें आपुलिये वाटे | चालों लाभे ॥ ४३८ ॥
त्रिदोषीं सांडिलें शरीर | त्रिकुटीं फिटलिया नगर |
त्रिदाह निमालिया अंतर | जैसें होय ॥ ४३९ ॥
त्रिदोषीं=कफ वात पित्त
त्रिकुटीं=खोटे ,चहाडी ,शिंदळकी
त्रिदाह=आधिभौतिक अध्यात्मिक आधिदैविक
तैसा कामादिकीं तिघीं | सांडिला सुख पावोनि जगीं |
संगु लाहे मोक्षमार्गीं | सज्जनांचा ॥ ४४० ॥
मग सत्संगें प्रबळें | सच्छास्त्राचेनि बळें |
जन्ममृत्यूचीं निमाळें | निस्तरें रानें ॥ ४४१ ॥
निमाळें =दाट रान वा बरड माळरान
निस्तरें=पार करणे
ते वेळीं आत्मानंदें आघवें | जें सदा वसतें बरवें |
तें तैसेंचि पाटण पावे | गुरुकृपेचें ॥ ४४२ ॥
पाटण=शहर
तेथ प्रियाची परमसीमा | तो भेटे माउली आत्मा |
तयें खेवीं आटे डिंडिमा | सांसारिक हे ॥ ४४३ ॥
डिंडिमा=डंका
ऐसा जो कामक्रोधलोभां | झाडी करूनि ठाके उभा |
तो येवढिया लाभा | गोसावी होय ॥ ४४४ ॥
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ २३॥
ना हें नावडोनि कांहीं | कामादिकांच्याचि ठायीं |
दाटिली जेणें डोई | आत्मचोरें ॥ ४४५ ॥
डोई=डोके घातले (मन घालणे)
जो जगीं समान सकृपु | हिताहित दाविता दीपु |
तो अमान्यु केला बापु | वेदु जेणें ॥ ४४६ ॥
न धरीचि विधीची भीड | न करीचि आपली चाड |
वाढवीत गेला कोड | इंद्रियांचें ॥ ४४७ ॥
आपली चाड=आपली इच्छा (आत्मज्ञान )
कामक्रोधलोभांची कास | न सोडीच पाळिली भाष |
स्वैराचाराचें असोस | वळघला रान ॥ ४४८ ॥
भाष =विचार नाव असोस=न संपणारे मोठे
तो सुटकेचिया वाहिणीं | मग पिवों न लाहे पाणी |
स्वप्नींही ते कहाणी | दूरीचि तया ॥ ४४९ ॥
वाहिणीं=नदी
आणि परत्र तंव जाये | हें कीर तया आहे |
परी ऐहिकही न लाहे | भोग भोगूं ॥ ४५० ॥
तरी माशालागीं भुलला | ब्राह्मण पाणबुडां रिघाला |
कीं तेथही पावला | नास्तिकवादु ॥ ४५१ ॥
पाणबुडां=कोळी लोकांत नास्तिकवादु=नाकारला गेला
तैसें विषयांचेनि कोडें | जेणें परत्रा केलें उबडें |
तंव तोचि आणिकीकडे | मरणें नेला ॥ ४५२ ॥
उबडें=उपटले
एवं परत्र ना स्वर्गु | ना ऐहिकही विषयभोगु |
तेथ केउता प्रसंगु | मोक्षाचा तो ? ॥ ४५३ ॥
म्हणौनि कामाचेनि बळें | जो विषय सेवूं पाहे सळें |
तया विषयो ना स्वर्गु मिळे | ना उद्धरे तो ॥ ४५४ ॥
सळें=बळे
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहाऱसि ॥ २४॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसंपद्विभागयोगोनाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
याकारणें पैं बापा | जया आथी आपुली कृपा |
तेणें वेदांचिया निरोपा | आन न कीजे ॥ ४५५ ॥
पतीचिया मता | अनुसरोनि पतिव्रता |
अनायासें आत्महिता | भेटेचि ते ॥ ४५६ ॥
नातरी श्रीगुरुवचना | दिठी देतु जतना |
शिष्य आत्मभुवना- | माजीं पैसे ॥ ४५७ ॥
हें असो आपुला ठेवा | हाता आथी जरी यावा |
तरी आदरें जेवीं दिवा | पुढां कीजे ॥ ४५८ ॥
आदरें=सन्मान देत
तैसा अशेषांही पुरुषार्था | जो गोसावी हो म्हणे पार्था |
तेणें श्रुतिस्मृति माथां | बैसणें घापे ॥ ४५९ ॥
शास्त्र म्हणेल जें सांडावें | तें राज्यही तृण मानावें |
जें घेववी तें न म्हणावें | विषही विरु ॥ ४६० ॥
विरु=मारक
ऐसिया वेदैकनिष्ठा | जालिया जरी सुभटा |
तरी कें आहे अनिष्टा | भेटणें गा ? ॥ ४६१ ॥
पैं अहितापासूनि काढिती | हित देऊनि वाढविती |
नाहीं गा श्रुतिपरौती | माउली जगा ॥ ४६२ ॥
म्हणौनि ब्रह्मेंशीं मेळवी | तंव हे कोणें न सांडावी |
अगा तुवांही ऐसीचि भजावी | विशेषेंसीं ॥ ४६३ ॥
जे आजि अर्जुना तूं येथें | करावया सत्य शास्त्रें सार्थें |
जन्मलासि बळार्थें | धर्माचेनि ॥ ४६४ ॥
आणि धर्मानुज हें ऐसें | बोधेंचि आलें अपैसें |
म्हणौनि आनारिसें | करूं नये ॥ ४६५ ॥
आनारिसें=वेगळे भलते
कार्याकार्यविवेकीं | शास्त्रेंचि करावीं पारखीं |
अकृत्य तें कुडें लोकीं | वाळावें गा ॥ ४६६ ॥
कुडें=वाईट वाळावें=त्यागावे सोडावे
मग कृत्यपणें खरें निगे | तें तुवां आपुलेनि आंगें |
आचरोनि आदरें चांगें | सारावें गा ॥ ४६७ ॥
चांगें=चांगले ते
जे विश्वप्रामाण्याची मुदी | आजि तुझ्या हातीं असें सुबुद्धी |
लोकसंग्रहासि त्रिशुद्धी | योग्यु होसी ॥ ४६८ ॥
एवं आसुरवर्गु आघवा | सांगोनि तेथिंचा निगावा |
तोहि देवें पांडवा | निरूपिला ॥ ४६९ ॥
निगावा=निघणे, सुटणे
इयावरी तो पंडूचा | कुमरु सद्भावो जीवींचा |
पुसेल तो चैतन्याचा | कानीं ऐका ॥ ४७० ॥
संजयें व्यासाचिया निरोपा | तो वेळु फेडिला तया नृपा |
तैसा मीहि निवृत्तिकृपा | सांगेन तुम्हां ॥ ४७१ ॥
वेळु=प्रसंग (त्या वेळीचा) फेडिला=सांगितला
तुम्ही संत माझिया कडा | दिठीचा कराल बहुडा |
तरी तुम्हां माने येवढा | होईन मी ॥ ४७२ ॥
बहुडा=वर्षाव माने=मान्य
म्हणौनि निज अवधान | मज वोळगे पसायदान |
दीजो जी सनाथु होईन | ज्ञानदेवो म्हणे ॥ ४७३ ॥
वोळगे= सेवा मागणे, करणे
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां षोडशोऽध्यायः ॥
by dr. vikrant tikone