ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १४८६ ते १५२८
ओव्या १४८६ ते १५२८
इदं ते
नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ ६७॥
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ ६७॥
ज्याला तप नाही भक्ति नाही ऐकण्याची इच्छा नाही तसेच माझ्या विषयी भक्ति नाही त्याला हे गुह्य सांगू नकोस
तरी तुवां हें जें पार्था | गीताशास्त्र लाधलें आस्था |
तें तपोहीना सर्वथा | सांगावें ना हो ॥ १४८६ ॥
अथवा तापसुही जाला | परी गुरूभक्तीं जो ढिला |
तो वेदीं अंत्यजु वाळिळा | तैसा वाळीं ॥ १४८७ ॥
नातरी पुरोडाशु जैसा | न घापे वृद्ध तरी वायसा |
गीता नेदी तैसी तापसा | गुरुभक्तिहीना ॥ १४८८ ॥
पुरोडाशु=यज्ञ अवशेष वृद्ध=जुने शिळे
कां तपही जोडे देहीं | भजे गुरुदेवांच्या ठायीं |
परी आकर्णनीं नाहीं | चाड जरी ॥ १४८९ ॥
तरी मागील दोन्हीं आंगीं | उत्तम होय कीर जगीं |
परी या श्रवणालागीं | योग्यु नोहे ॥ १४९० ॥
मुक्ताफळ भलतैसें | हो परी मुख नसे |
तंव गुण प्रवेशे | तेथ कायी ? ॥ १४९१ ॥
मुक्ताफळ=मोती मुख=छिद्र गुण=दोरा
सागरु गंभीरु होये | हें कोण ना म्हणत आहे |
परी वृष्टि वायां जाये | जाली तेथ ॥ १४९२ ॥
धालिया दिव्यान्न सुवावें | मग जें वायां धाडावें |
तें आर्तीं कां न करावें | उदारपण ॥ १४९३ ॥
आर्तीं=भुकेल्यास
म्हणौनि योग्य भलतैसें | होतु परी चाड नसे |
तरी झणें वानिवसें | देसी हें तयां ॥ १४९४ ॥
झणें=नको वानिवसें= आवड
रूपाचा सुजाणु डोळा | वोढवूं ये कायि परिमळा ? |
जेथ जें माने ते फळा | तेथचि ते गा ॥ १४९५ ॥
सुजाणु=जाणणारा वोढवूं=ठरवणे
माने=योग्य
म्हणौनि तपी भक्ति | पाहावे ते सुभद्रापती |
परी शास्त्रश्रवणीं अनासक्ती | वाळावेचि ते ॥ १४९६ ॥
नातरी तपभक्ति | होऊनि श्रवणीं आर्ति |
आथी ऐसीही आयती | देखसी जरी ॥ १४९७ ॥
आयती=योग्यता
तरी गीताशास्त्रनिर्मिता | जो मी सकळलोकशास्ता |
तया मातें सामान्यता | बोलेल जो ॥ १४९८ ॥
सामान्यता=हलका साधारण
माझ्या सज्जनेंसिं मातें | पैशुन्याचेनि हातें |
येक आहाती तयांतें | योग्य न म्हण ॥ १४९९ ॥
मातें=मला
पैशुन्याचेनि
हातें =छद्मी
पणाने, निंदा करणे
तयांची येर आघवी | सामग्री ऐसी जाणावी |
दीपेंवीण ठाणदिवी | रात्रीची जैसी ॥ १५०० ॥
ठाणदिवी=दिव्याची जागा, कोनाडा
अंग गोरें आणि तरुणें | वरी लेईलें आहे लेणें |
परी येकलेनि प्राणें | सांडिलें जेवीं ॥ १५०१ ॥
सोनयाचें सुंदर | निर्वाळिलें होय घर |
परी सर्पांगना द्वार | रुंधलें आहे ॥ १५०२ ॥
निपजे दिव्यान्न चोखट | परी माजीं काळकूट |
असो मैत्री कपट\- | गर्भिणी जैसी ॥ १५०३ ॥
गर्भिणी=पोटात
तैसी तपभक्तिमेधा | तयाची जाण प्रबुद्धा |
जो माझयांची कां निंदा | माझीचि करी ॥ १५०४ ॥
याकारणें धनंजया | तो भक्तु मेधावीं तपिया |
तरी नको बापा इया | शास्त्रा आतळों देवों ॥ १५०५ ॥
आतळों=स्पर्श करणे जाणणे
काय बहु बोलों निंदका | योग्य स्रष्टयाहीसारिखा |
गीता हे कवतिका\- | लागींही नेदीं ॥ १५०६ ॥
म्हणौनि तपाचा धनुर्धरा | तळीं दाटोनि गाडोरा |
वरी गुरुभक्तीचा पुरा | प्रासादु जो जाला ॥ १५०७ ॥
गाडोरा =पाया
आणि श्रवणेच्छेचा पुढां | दारवंटा सदा उघडा |
वरी कलशु चोखडा | अनिंदारत्नांचा ॥ १५०८ ॥
य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥ ६८॥
जो हे परम गुह्य माझ्या भक्तांना सांगेन ,माझी परम भक्ति करून मलाच मिळेल यात संशय नाही
ऐशा भक्तालयीं चोखटीं | गीतारत्नेश्वरु हा प्रतिष्ठीं |
मग माझिया संवसाटी | तुकसी जगीं ॥ १५०९ ॥
संवसाटी =साम्या
(तुल्य होवून)
कां जे एकाक्षरपणेंसीं | त्रिमात्रकेचिये कुशीं |
प्रणवु होतां गर्भवासीं | सांकडला ॥ १५१० ॥
तो गीतेचिया बाहाळीं | वेदबीज गेलें पाहाळी |
कीं गायत्री फुलींफळीं | श्लोकांच्या आली ॥ १५११ ॥
वेदबीज =ओंकार
बाहाळीं =( जो
गीतेच्या विस्ताराने)विस्तारला गेला
पाहाळी.=मोहरला
ते हे मंत्ररहय गीता | मेळवी जो माझिया भक्ता |
अनन्यजीवना माता | बाळका जैसी ॥ १५१२ ॥
ते हे मंत्ररहय गीता | मेळवी जो माझिया भक्ता |
अनन्यजीवना माता | बाळका जैसी ॥ १५१२ ॥
तैसी भक्तां गीतेसीं | भेटी करी जो आदरेंसीं |
तो देहापाठीं मजसीं | येकचि होय ॥ १५१३ ॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥ ६९॥
(त्याहून मला मनुष्य मात्रात अधिक
कुणी ही प्रिय नाही. आणि यापेक्षा माला आधी कुणीही आवडता होणार नाही )
आणि देहाचेंही लेणें | लेऊनि वेगळेपणें |
असे तंव जीवेंप्राणें | तोचि पढिये ॥ १५१४ ॥
आणि देहाचेंही लेणें | लेऊनि वेगळेपणें |
असे तंव जीवेंप्राणें | तोचि पढिये ॥ १५१४ ॥
पढिये=प्रिय
ज्ञानियां कर्मठां तापसां | यया खुणेचिया माणुसां\- |
माजीं तो येकु गा जैसा | पढिये मज ॥ १५१५ ॥
तैसा भूतळीं आघवा | आन न देखे पांडवा |
जो गीता सांगें मेळावा | भक्तजनांचा ॥ १५१६ ॥
मज ईश्वराचेनि लोभें | हे गीता पढतां अक्षोभें |
जो मंडन होय सभे | संतांचिये ॥ १५१७ ॥
अक्षोभें =स्थिर
चित्ताने
नेत्रपल्लवीं रोमांचितु | मंदानिळें कांपवितु |
आमोदजळें वोलवितु | फुलांचे डोळें ॥ १५१८ ॥
कोकिळा कलरवाचेनि मिषें | सद्गद बोलवीत जैसें |
वसंत का प्रवेशे | मद्भक्त आरामीं ॥ १५१९ ॥
कां जन्माचें फळ चकोरां | होत जैं चंद्र ये अंबरा |
नाना नवघन मयूरां | वो देत पावे ॥ १५२० ॥
तैसा सज्जनांच्या मेळापीं | गीतापद्यरत्नीं उमपीं |
वर्षे जो माझ्या रूपीं | हेतु ठेऊनि ॥ १५२१ ॥
उमपीं =पुष्कळ
मग तयाचेनि पाडें | पढियंतें मज फुडें |
नाहींचि गा मागेंपुढें | न्याहाळितां ॥ १५२२ ॥
अर्जुना हा ठायवरी | मी तयातें सूयें जिव्हारीं |
जो गीतार्थाचें करी | परगुणें संतां ॥ १५२३ ॥
ठायवरी=एवढा सूयें जिव्हारीं=हृदयी ठेवतो
परगुणें=सुंदर जेवण
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ ७०॥
(हा आमुचा धर्मरूप संवाद जो कुणी अभ्यासील तो जणू ज्ञान यज्ञाने माज पुजितो असे मी मानतो)
पैं माझिया तुझिया मिळणीं | वाढिनली जे हे कहाणी |
मोक्षधर्म का जिणीं | आलासे जेथें ॥ १५२४ ॥
जिणीं =जन्माला
तो हा सकळार्थप्रबोधु | आम्हां दोघांचा संवादु |
न करितां पदभेदु | पाठेंचि जो पढे ॥ १५२५ ॥
तेणें ज्ञानानळीं प्रदीप्तीं | मूळ अविद्येचिया आहुती |
तोषविला होय सुमती | परमात्मा मी ॥ १५२६ ॥
घेऊनि गीतार्थ उगाणा | ज्ञानिये जें विचक्षणा |
ठाकती तें गाणावाणा | गीतेचा तो लाहे ॥ १५२७ ॥
उगाणा =उलगडा
गाणावाणा = गाणे
म्हणून वर्णने
लाहे=प्राप्त करणे
गीता पाठकासि असे | फळ अर्थज्ञाचि सरिसें |
गीता माउलियेसि नसे | जाणें तान्हें ॥ १५२८ ॥
जाणें=जाणता
by dr. vikrant tikone
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