Sunday, May 5, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा,ओव्या १५२९ ते १५५७




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या १५२९ ते १५५७


श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभा.ण्ल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥ ७१॥


आणि सर्वमार्गीं निंदा | सांडूनि आस्था पैं शुद्धा |
गीताश्रवणीं श्रद्धा | उभारी जो ॥ १५२९ ॥

तयाच्या श्रवणपुटीं | गीतेचीं अक्षरें जंव पैठीं |
होतीना तंव उठाउठीं | पळेचि पाप ॥ १५३० ॥

अटवियेमाजीं जैसा | वन्हि रिघतां सहसा |
लंघिती का दिशा | वनौकें तियें ॥ १५३१ ॥

अटवि=जंगल वनौकें=वनचर

कां उदयाचळकुळीं | झळकतां अंशुमाळी |
तिमिरें अंतराळीं | हारपती ॥ १५३२ ॥

तैसा कानाच्या महाद्वारीं | गीता गजर जेथ करी |
तेथ सृष्टीचिये आदिवरी | जायचि पाप ॥ १५३३ ॥

ऐसी जन्मवेली धुवट | होय पुण्यरूप चोखट |
याहीवरी अचाट | लाहे फळ ॥ १५३४ ॥

जन्मवेली=जन्म परंपरा  धुवट=निर्मळ धुतलेली

जें इये गीतेचीं अक्षरें | जेतुलीं कां कर्णद्वारें |
रिघती तेतुले होती पुरे | अश्वमेध कीं ॥ १५३५ ॥

म्हणौनि श्रवणें पापें जाती | आणि धर्म धरी उन्नती |
तेणें स्वर्गराज संपत्ती | लाहेचि शेखीं ॥ १५३६ ॥

तो पैं मज यावयालागीं | पहिलें पेणें करी स्वर्गीं |
मग आवडे तंव भोगी | पाठीं मजचि मिळे ॥ १५३७ ॥

पेणें=मुक्काम

ऐसी गीता धनंजया | ऐकतया आणि पढतया |
फळे महानंदें मियां | बहु काय बोलों ॥ १५३८ ॥

याकारणें हें असो | परी जयालागीं शास्त्रातिसो |
केला तें तंव, तुज पुसों | काज तुझें ॥ १५३९ ॥

शास्त्रातिसो=शास्त्र विस्तार तंव=तुझ्यासाठी
 
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥ ७२॥

काय हे ऐकलेस पार्था,तू एकाग्र चित्ताने :काय अज्ञान मोह तुझा नष्ट झाला धनंजया

तरी सांग पां पांडवा | हा शास्त्रसिद्धांतु आघवा |
तुज एकचित्तें फावा | गेला आहे ? ॥ १५४० ॥

फावा गेला=ठसला आहे

आम्हीं जैसें जया रीतीं | उगाणिलें कानांच्या हातीं |
येरीं तैसेंचि तुझ्या चित्तीं | पेठें केलें कीं ? ॥ १५४१ ॥

उगाणिलें=विवरण केले पेठें=वस्ती

अथवा माझारीं | गेलें सांडीविखुरी |
किंवा उपेक्षेवरी | वाळूनि सांडिलें | ॥ १५४२ ॥

माझारीं=मध्येच   

जैसें आम्हीं सांगितलें | तैसेंचि हृदयीं फावलें |
तरी सांग पां वहिलें | पुसेन तें मी ॥ १५४३ ॥

वहिलें= आधी चटकन

तरी स्वाज्ञानजनितें | मागिलें मोहें तूतें |
भुलविलें तो येथें | असे कीं नाहीं ? ॥ १५४४ ॥


हें बहु पुसों काई | सांगें तूं आपल्या ठायीं |
कर्माकर्म कांहीं | देखतासी ? ॥ १५४५ ॥

पार्थु स्वानंदैकरसें | विरेल ऐसा भेददशे |
आणिला येणें मिषें | प्रश्नाचेनि ॥ १५४६ ॥

पूर्णब्रह्म जाला पार्थु | तरी पुढील साधावया कार्यार्थु |
मर्यादा श्रीकृष्णनाथु | उल्लंघों नेदी ॥ १५४७ ॥

येऱ्हवीं आपुलें करणें | सर्वज्ञ काय तो नेणें ? |
परी केलें पुसणें | याचि लागीं ॥ १५४८ ॥

एवं करोनियां प्रश्न | नसतेंचि अर्जुनपण |
आणूनियां जालें पूर्णपण | तें बोलवी स्वयें ॥ १५४९ ॥

मग क्षीराब्धीतें सांडितु | गगनीं पुंजु मंडितु |
निवडे जैसा न निवडितु | पूर्णचंद्रु ॥ १५५० ॥

सांडितु=पासून वेगळा होता
पुंजु मंडितु=प्रकाशमान होणे

निवडे=निराळा दिसतो    न निवडितु= न शोधता

तैसा ब्रह्म मी हें विसरे | तेथ जगचि ब्रह्मत्वें भरे |
हेंही सांडी तरी विरे | ब्रह्मपणही ॥ १५५१ ॥

ऐसा मोडतु मांडतु ब्रह्में | तो दुःखें देहाचिये सीमे |
मी अर्जुन येणें नामें | उभा ठेला ॥ १५५२ ॥

मग कांपतां करतळीं | दडपूनि रोमावळी |
पुलिका स्वेदजळीं | जिरऊनियां ॥ १५५३ ॥
पुलिका=रोमांच  स्वेदजळीं=स्वेद्बिंदू

प्राणक्षोभें डोलतया | आंगा आंगचि टेंकया |
सूनि स्तंभु चाळया | भुलौनियां ॥ १५५४ ॥

आंगा आंगचि टेंकया=अंगा अंगाचा आधार देत
स्तंभु=कंप

नेत्रयुगुळाचेनि वोतें | आनंदामृताचें भरितें |
वोसंडत तें मागुतें | काढूनियां ॥ १५५५ ॥

वोतें=कडा

विविधा औत्सुक्यांची दाटी | चीप दाटत होती कंठीं |
ते करूनियां पैठी | हृदयामाजीं ॥ १५५६ ॥

चीप=आवंढा (पाचर)

वाचेचें वितुळणें | सांवरूनि प्राणें |
अक्रमाचें श्वसणें | ठेऊनि ठायीं ॥ १५५७ ॥

वितुळणें=विस्कटणे  अक्रमाचें=अनियमित

by dr. vikrant tikone

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