ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १५५८ ते १५८७
ओव्या १५५८ ते १५८७
अर्जुन उवाच।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ ७३॥
मोह नष्टला स्मृति लाभली तुझ्या प्रसादाने अच्युता स्थिर झालो मी गेला संदेह करीन आता तू म्हणसी ते
मग अर्जुन म्हणे काय देवो | पुसताति आवडे मोहो |
तरी तो सकुटुंब गेला जी ठावो | घेऊनि आपला ॥ १५५८ ॥
पासीं येऊनि दिनकरें | डोळ्यातें अंधारें |
पुसिजे, हें कायि सरे | कोणे गांवीं ? ॥ १५५९ ॥
सरे= शक्य आहे
तैसा तूं श्रीकृष्णराया | आमुचिया डोळयां |
गोचर हेंचि कायिसया | न पुरे तंव ॥ १५६० ॥
कायिसया=कश्या प्रकारे
वरी लोभें मायेपासूनी | तें सांगसी तोंड भरूनी |
जें कायिसेनिही करूनी | जाणूं नये ॥ १५६१ ॥
मायेपासूनी=आई हून आधिक
कायिसेनिही=आणि कश्यानेही
आतां मोह असे कीं नाहीं | हें ऐसें जी पुससी काई |
कृतकृत्य जाहलों पाहीं | तुझेपणें ॥ १५६२ ॥
कृतकृत्य=पूर्ण समाधानी
गुंतलों होतों अर्जुनगुणें | तो मुक्त जालों तुझेपणें |
आतां पुसणें सांगणें | दोन्ही नाहीं ॥ १५६३ ॥
मी तुझेनि प्रसादें | लाधलेनि आत्मबोधें |
मोहाचे तया कांदे | नेदीच उरों ॥ १५६४ ॥
कांदे=समूळ या अर्थाने
आतां करणें कां न करणें | हें जेणें उठी दुजेपणें |
तें तूं वांचूनि नेणें | सर्वत्र गा ॥ १५६५ ॥
ये विषयीं माझ्या ठायीं | संदेहाचे नुरेचि कांहीं |
त्रिशुद्धि कर्म जेथ नाहीं | तें मी जालों ॥ १५६६ ॥
तुझेनि मज मी पावोनी | कर्तव्य गेलें निपटूनी |
परी आज्ञा तुझी वांचोनि | आन नाहीं प्रभो ॥ १५६७ ॥
कां जें दृश्य दृश्यातें नाशी | जें दुजें द्वैतातें ग्रासी |
जें एक परी सर्वदेशीं | वसवी सदा ॥ १५६८ ॥
जयाचेनि संबंधें बंधु फिटे | जयाचिया आशा आस तुटे |
जें भेटलया सर्व भेटे | आपणपांचि ॥ १५६९ ॥
तें तूं गुरुलिंग जी माझें | जें येकलेपणींचें विरजें |
जयालागीं वोलांडिजे | अद्वैतबोधु ॥ १५७० ॥
येकलेपणींचें=ऐक्याला विरजें=सहायक
आपणचि होऊनि ब्रह्म | सारिजे कृत्याकृत्यांचें काम |
मग कीजे का निःसीम | सेवा जयाची ॥ १५७१ ॥
गंगा सिंधू सेवूं गेली | पावतांचि समुद्र जाली |
तेवीं भक्तां सेल दिधली | निजपदाची ॥ १५७२ ॥
सेल=उत्तम भाग
तो तूं माझा जी निरुपचारु | श्रीकृष्णा सेव्य सद्गुरु |
मा ब्रह्मतेचा उपकारु | हाचि मानीं ॥ १५७३ ॥
जें मज तुम्हां आड | होतें भेदाचें कवाड |
तें फेडोनि केलें गोड | सेवासुख ॥ १५७४ ॥
तरी आतां तुझी आज्ञा | सकळ देवाधिदेवराज्ञा |
करीन देईं अनुज्ञा | भलतियेविषयीं ॥ १५७५ ॥
यया अर्जुनाचिया बोला | देवो नाचे सुखें भुलला |
म्हणे विश्वफळा जाला | फळ हा मज ॥ १५७६ ॥
विश्वफळा=विश्वाचे फळ. ईश्वराला
उणेनि उमचला सुधाकरु | देखुनी आपला कुमरु |
मर्यादा क्षीरसागरु | विसरेचिना ? ॥ १५७७ ॥
उणेनि
उमचला=उणेपण नसलेला पौर्णिमेचा चंद्र
ऐसे संवादाचिया बहुलां | लग्न दोघांचियां आंतुला |
लागलें देखोनि जाला | निर्भरु संजयो ॥ १५७८ ॥
बहुलां=बोहल्यावर निर्भरु=आनंदी
तेणें म्हणतसे संजयो | बाप कृपानिधी रावो |
तो आपुला मनोभावो | अर्जुनेंसी केला ॥ १५७९ ॥
तेणें उचंबळलेपणें | संजय धृतराष्ट्रातें म्हणे |
जी कैसे बादरायणें | रक्षिलों दोघे ? ॥ १५८० ॥
बादरायणें=व्यास
आजि तुमतें अवधारा | नाहीं चर्मचक्षूही संसारा |
कीं ज्ञानदृष्टिव्यवहारा आणिलेती ॥ १५८१ ॥
आणि रथींचिये राहाटी | घेई जो घोडेयासाठीं |
तया आम्हां या गोष्टी | गोचरा होती ॥ १५८२ ॥
रथींचिये
राहाटी=सारथी (संजय स्वत:ला म्हणतो)
वरी जुंझाचें निर्वाण | मांडलें असे दारुण |
दोहीं हारीं आपण | हारपिजे जैसें ॥ १५८३ ॥
दोहीं
हारीं=दोन्ही बाजूला
येवढा जिये सांकडां | कैसा अनुग्रहो पैं गाढा |
जे ब्रह्मानंदु उघडा | भोगवीतसे ॥ १५८४ ॥
सांकडां=कठीण संकट
ऐसें संजय बोलिला | परी न द्रवे येरु उगला |
चंद्रकिरणीं शिवतला | पाषाणु जैसा ॥ १५८५ ॥
न द्रवे
=कोरडा उगला=उगा राहिला
हे देखोनि तयाची दशा | मग करीचिना सरिसा |
परी सुखें जाला पिसा | बोलतसे ॥ १५८६ ॥
सरिसा=संवाद
भुलविला हर्षवेगें | म्हणौनि धृतराष्ट्रा सांगे |
येऱ्हवीं नव्हे तयाजोगें | हें कीर जाणें ॥ १५८७ ॥
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by dr. vikrant tikone
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