Monday, May 20, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या १६०९ ते १६३१




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या १६०९ ते १६३१

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥ ७५॥
व्यास प्रसादे ऐकले परम गुह्य योग रहस्य जे योगेश्वर कृष्णाने केले प्रत्यक्ष कथन स्वये

तेव्हां बैसतेनि आनंदें | म्हणे जी, जें उपनिषदें |
नेणती, तें व्यासप्रसादें | ऐकिलें मियां ॥ १६०९ ॥

बैसतेनि=ओसरल्यावर

ऐकतांचि ते गोठी | ब्रह्मत्वाची पडिली मिठी |
मीतूंपणेंसीं दृष्टी | विरोनि गेली ॥ १६१० ॥

हे आघवेचि का योग | जया ठाया येती मार्ग |
तयाचें वाक्य सवंग | केलें मज व्यासें ॥ १६११ ॥

सवंग=सोपे

अहो अर्जुनाचेनि मिषें | आपणपेंचि दुजें ऐसें |
नटोनि आपणया उद्देशें | बोलिलें जें देव ॥ १६१२ ॥

तेथ कीं माझें श्रोत्र | पाटाचें जालें जी पात्र |
काय वानूं स्वतंत्र | सामर्थ्य श्रीगुरुचें ॥ १६१३ ॥

पाटाचें=थोर मोठे


राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥ ७६॥
हे राजन, आठवून संवाद अद्भुत केशव अर्जुनाचा हा पुण्यमय हर्षतो मी पुन्हा पुन्हा

राया हें बोलतां विस्मित होये | तेणेंचि मोडावला ठाये |
रत्नीं कीं रत्नकिळा ये | झांकोळित जैसी ॥ १६१४ ॥

मोडावला=थांबला झांकोळित=पसरणे

हिमवंतींचीं सरोवरें |चंद्रोदयीं होती काश्मीरें |
मग सूर्यागमीं माघारें | द्रवत्व ये ॥ १६१५ ॥

काश्मीरें=स्फटिका सारखी

तैसा शरीराचिया स्मृती | तो संवादु संजय चित्तीं |
धरी आणि पुढती | तेंचि होय ॥ १६१६ ॥

तेंचि होय==तल्लीन होतो  

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥ ७७॥

ते स्मरस्मरून रूप अद्भुत हरीचे हे राजन मला महाविस्मय होवून पुन्हा पुन्हा हर्ष होत आहे

मग उठोनि म्हणे नृपा | श्रीहरीचिया विश्वरूपा |
देखिलया उगा कां पां | असों लाहसी ? ॥ १६१७ ॥

असों लाहसी =आहे तसाच अससी

न देखणेनि जें दिसे | नाहींपणेंचि जें असे |
विसरें आठवे तें कैसें | चुकऊं आतां | ॥ १६१८ ॥
देखोनि चमत्कारु | कीजे, तो नाहीं पैसारु |
मजहीसकट महापूरु | नेत आहे ॥ १६१९ ॥

पैसारु=विस्तार (दुसरेपणाचा)

ऐसा श्रीकृष्णार्जुन- | संवाद संगमीं स्नान |
करूनि देतसे तिळदान | अहंतेचें ॥ १६२० ॥
 
तेथ असंवरें आनंदें | अलौकिकही कांहीं स्फुंदे |
श्रीकृष्ण म्हणे सद्गदें | वेळोवेळां ॥ १६२१ ॥

असंवरें=अनावर

या अवस्थांची कांहीं | कौरवांतें परी नाहीं |
म्हणौनि रायें तें कांहीं | कल्पावें जंव ॥ १६२२ ॥

परी=पर्वा कल्पना

तंव जाला सुखलाभु | आपणया करूनि स्वयंभु |
बुझाविला अवष्टंभु | संजयें तेणें ॥ १६२३ ॥

स्वयंभु=आपोआप

तेथ कोणी येकी अवसरी | होआवी ते करूनि दुरी |
रावो म्हणे संजया परी | कैसी तुझी गा ? ॥ १६२४ ॥

होआवी=जे करायचे

तेणें तूंतें येथें व्यासें | बैसविलें कासया उद्देशें |
अप्रसंगामाजीं ऐसें | बोलसी काई ? ॥ १६२५ ॥

रानींचें राउळा नेलिया | दाही दिशा मानी सुनिया |
कां रात्री होय पाहलया | निशाचरां ॥ १६२६ ॥

रानींचें=रानातील माणूस (भिल्ल वगैरे) राउळा=राजमंदिरी
पाहलया=उजाडता

जो जेथिंचें गौरव नेणें | तयासि तें भिंगुळवाणें |
म्हणौनि अप्रसंगु तेणें | म्हणावा कीं तो ॥ १६२७ ॥

भिंगुळवाणें=विपरीत गोंधळणे

मग म्हणे सांगें प्रस्तुत | उदयलेंसे जें उत्कळित |
तें कोणासि बा रे जैत | देईल शेखीं ? ॥ १६२८ ॥

उत्कळित=युद्ध जैत=विजय

येऱ्हवीं विशेषें बहुतेक | आमुचें ऐसें मानसिक |
जे दुर्योधनाचे अधिक | प्रताप सदा ॥ १६२९ ॥

आणि येरांचेनि पाडें | दळही याचें देव्हडें |
म्हणौनि जैत फुडें | आणील ना तें ? ॥ १६३० ॥

देव्हडें=दीड पट   फुडें=खरोखर नक्की

आम्हां तंव गमे ऐसें | मा तुझें ज्योतिष कैसें |
तें नेणों संजया असे | तैसें सांग पां ॥ १६३१ ॥
by dr. vikrant tikone


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