ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १६७७ ते १७२९
कीं नोहे हे श्लोकश्रेणी | अचिंत्यचित्तचिंतामणी |
कीं निर्विकल्पां लावणी | कल्पतरूंची ॥ १६७७ ॥
ऐसिया शतें सात श्लोकां | परी आगळा येकयेका |
आतां कोण वेगळिका | वानावां पां | ॥ १६७८ ॥
येकयेका=एक एक वानावां=स्तुति करावी
तान्ही आणि पारठी | इया कामधेनूतें दिठी |
सूनि जैसिया गोठी | कीजती ना ॥ १६७९ ॥
पारठी=पाडशी सूनि=पाहणे
दीपा आगिलु मागिलु | सूर्यु धाकुटा वडीलु |
अमृतसिंधु खोलु | उथळु कायसा | ॥ १६८० ॥
तैसे पहिले सरते | श्लोक न म्हणावे गीते |
जुनीं नवीं पारिजातें | आहाती काई ? ॥ १६८१ ॥
सरते=नंतरचा
आणि श्लोका पाडु नाहीं | हें कीर समर्थु काई |
येथ वाच्य वाचकही | भागु न धरी ॥ १६८२ ॥
पाडु=तुलना भागु=फरक वेगळे भेद
वाच्य
वाचकही=शब्द, शब्द रचना व वाचक
जे इये शास्त्रीं येकु | श्रीकृष्णचि वाच्य वाचकु |
हें प्रसिद्ध जाणे लोकु | भलताही ॥ १६८३ ॥
येथें अर्थें तेंचि पाठें | जोडे येवढेनि धटें |
वाच्यवाचक येकवटें | साधितें शास्त्र ॥ १६८४ ॥
धटें=निश्चयाने
म्हणौनि मज कांहीं | समर्थनीं आतां विषय नाहीं |
गीता जाणा हे वाङ्ग्मयी | श्रीमूर्ति प्रभूचि ॥ १६८५ ॥
समर्थनीं=समर्थन करण्यास
शास्त्र वाच्यें अर्थें फळे | मग आपण मावळे |
तैसें नव्हें हें सगळें | परब्रह्मचि ॥ १६८६ ॥
कैसा विश्वाचिया कृपा | करूनि महानंद सोपा |
अर्जुनव्याजें रूपा | आणिला देवें ॥ १६८७ ॥
चकोराचेनि निमित्तें | तिन्ही भुवनें संतप्तें |
निवविलीं कळांवतें | चंद्रें जेवीं ॥ १६८८ ॥
कां गौतमाचेनि मिषें | कळिकाळज्वरीतोद्देशें |
पाणिढाळु गिरीशें | गंगेंचा केला ॥ १६८९ ॥
पाणिढाळु=प्रवाह
तैसें गीतेचें हें दुभतें | वत्स करूनि पार्थातें |
दुभिन्नली जगापुरतें | श्रीकृष्ण गाय ॥ १६९० ॥
दुभिन्नली=दोहन केले
येथे जीवें जरी नाहाल | तरी हेंचि कीर होआल |
नातरी पाठमिषें तिंबाल | जीभचि जरी ॥ १६९१ ॥
तिंबाल=उच्चाराल
तरी लोह एकें अंशें | झगटलिया परीसें |
येरीकडे अपैसें | सुवर्ण होय ॥ १६९२ ॥
तैसी पाठाची ते वाटी | श्लोकपाद लावा ना जंव वोठीं |
तंव ब्रह्मतेची पुष्टी | येईल आंगा ॥ १६९३ ॥
ना येणेसीं मुख वांकडें | करूनि ठाकाल कानवडें |
तरी कानींही घेतां पडे | तेचि लेख ॥ १६९४ ॥
कानवडें=दुर्लक्ष करणे लेख=प्राप्ती
जे हे श्रवणें पाठें अर्थें | गीता नेदी मोक्षाआरौतें |
जैसा समर्थु दाता कोण्हातें | नास्ति न म्हणे ॥ १६९५ ॥
म्हणौनि जाणतया सवा | गीताचि येकी सेवा |
काय कराल आघवां | शास्त्रीं येरीं ॥ १६९६ ॥
सवा=सहायक
आणि कृष्णार्जुनीं मोकळी | गोठी चावळिली जे निराळी |
ते श्रीव्यासें केली करतळीं | घेवों ये ऐसी ॥ १६९७ ॥
बाळकातें वोरसें | माय जैं जेवऊं बैसे |
तैं तया ठाकती तैसे | घांस करी ॥ १६९८ ॥
वोरसें=प्रेमाने
कां अफाटा समीरणा | आपैतेंपण शाहाणा |
केलें जैसें विंजणा | निर्मूनियां ॥ १६९९ ॥
आपैतेंपण=स्वाधीन
तैसें शब्दें जें न लभे | तें घडूनिया अनुष्टुभें |
स्त्रीशूद्रादि प्रतिभे | सामाविलें ॥ १७०० ॥
स्वातीचेनि पाणियें | न होती जरी मोतियें |
तरी अंगीं सुंदरांचिये | कां शोभिती तियें ? ॥ १७०१ ॥
नादु वाद्या न येतां | तरी कां गोचरु होता |
फुलें न होतां घेपता | आमोदु केवीं ? ॥ १७०२ ॥
गोडीं न होती पक्वान्नें | तरी कां फावती रसनें ? |
दर्पणावीण नयनें | नयनु कां दिसे ? ॥ १७०३ ॥
द्रष्टा श्रीगुरुमूर्ती | न रिगता दृश्यपंथीं |
तरी कां ह्या उपास्ती | आकळता तो ? ॥ १७०४ ॥
दृश्यपंथीं =डोळ्याला दिसणे उपास्ती=सेवेने पुजणे
तैसें वस्तु जें असंख्यात | तया संख्या शतें सात |
न होती तरी कोणा येथ | फावों शकतें ? ॥ १७०५ ॥
वस्तु=ब्रह्म
मेघ सिंधूचें पाणी वाहे | तरी जग तयातेंचि पाहे |
कां जे उमप ते नोहें | ठाकतें कोण्हा ॥ १७०६ ॥
उमप=अमर्याद
आणि वाचा जें न पवे | तें हे श्लोक न होते बरवे |
तरी कानें मुखें फावे | ऐसें कां होतें ? ॥ १७०७ ॥
न पवे=न मिळणे बरवे=सुंदर
म्हणौनि श्रीव्यासाचा हा थोरु | विश्वा जाला उपकारु |
जे श्रीकृष्ण उक्ती आकारु | ग्रंथाचा केला ॥ १७०८ ॥
आणि तोचि हा मी आतां | श्रीव्यासाचीं पदें पाहतां पाहतां |
आणिला श्रवणपथा | मऱ्हाठिया ॥ १७०९ ॥
व्यासादिकांचे उन्मेख | राहाटती जेथ साशंक |
तेथ मीही रंक येक | चावळी करीं ॥ १७१० ॥
उन्मेख=ज्ञान स्फूर्ती
परी गीता ईश्वरु भोळा | ले व्यासोक्तिकुसुममाळा |
तरी माझिया दुर्वादळा | ना न म्हणे कीं ॥ १७११ ॥
ईश्वरु=शंकर ,परमेश्वर
आणि क्षीरसिंधूचिया तटा | पाणिया येती गजघटा |
तेथ काय मुरकुटा | वारिजत असे ? ॥ १७१२ ॥
गजघटा=हत्ती मुरकुटा=क्षुद्र प्राणी (चिलट)
वारिजत=दूर करणे नाकारणे
पांख फुटे पांखिरूं | नुडे तरी नभींच स्थिरू |
गगन आक्रमी सत्वरू | तो गरुडही तेथ ॥ १७१३ ॥
राजहंसाचें चालणें | भूतळीं जालिया शाहाणें |
आणिकें काय कोणें | चालावेचिना ? ॥ १७१४ ॥
जी आपुलेनि अवकाशें | अगाध जळ घेपे कलशें |
चुळीं चूळपण ऐसें | भरूनि न निघे ? ॥ १७१५ ॥
घेपे=घेणे
दिवटीच्या आंगीं थोरी | तरी ते बहु तेज धरी |
वाती आपुलिया परी | आणीच कीं ना ? ॥ १७१६ ॥
वाती=दिवा
जी समुद्राचेनि पैसें | समुद्रीं आकाश आभासे |
थिल्लरीं थिल्लरा{ऐ}सें | बिंबेचि पैं ॥ १७१७ ॥
पैसें=विस्तार थिल्लरीं=डबके
तेवीं व्यासादिक महामती | वावरों येती इये ग्रंथीं |
मा आम्ही ठाकों हे युक्ति | न मिळे कीर ? ॥ १७१८ ॥
ठाकों=थांबावे न मिळे=सयुक्तित न वाटणे
जिये सागरीं जळचरें | संचरती मंदराकारें |
तेथ देखोनि शफरें येरें | पोहों न लाहती ? ॥ १७१९ ॥
शफरें=लहान मासे
अरुण आंगाजवळिके | म्हणौनि सूर्यातें देखें |
मा भूतळींची न देखे | मुंगी काई ? ॥ १७२० ॥
यालागीं आम्हां प्राकृतां | देशिकारें बंधें गीता |
म्हणणें हें अनुचिता | कारण नोहे ॥ १७२१ ॥
प्राकृतां =सामान्य देशिकारें=देशी भाषा मराठी
आणि बापु पुढां जाये | ते घेत पाउलाची सोये |
बाळ ये तरी न लाहे | पावों कायी ? ॥ १७२२ ॥
पाउलाची
सोये=मागोमाग जाणे पावों=पोहचणे
तैसा व्यासाचा मागोवा घेतु | भाष्यकारातें वाट पुसतु |
अयोग्यही मी न पवतु | कें जाईन ? ॥ १७२३ ॥
पवतु=पोचता
आणि पृथ्वी जयाचिया क्षमा | नुबगे स्थावर जंगमा |
जयाचेनि अमृतें चंद्रमा | निववी जग ॥ १७२४ ॥
जयाचिया=निवृतीनाथ
जयाचें आंगिक असिकें | तेज लाहोनि अर्कें |
आंधाराचें सावाइकें | लोटिजत आहे ॥ १७२५ ॥
असिकें =अंशाने सावाइकें=सावट संकट
समुद्रा जयाचें तोय | तोया जयाचें माधुर्य |
माधुर्या सौंदर्य | जयाचेनि ॥ १७२६ ॥
पवना जयाचें बळ | आकाश जेणें पघळ |
ज्ञान जेणें उज्वळ | चक्रवर्ती ॥ १७२७ ॥
पघळ=विस्तार
वेद जेणें सुभाष | सुख जेणें सोल्लास |
हें असो रूपस | विश्व जेणें ॥ १७२८ ॥
तो सर्वोपकारी समर्थु | सद्गुरु श्रीनिवृत्तिनाथु |
राहाटत असे मजही आंतु | रिघोनियां ॥ १७२९ ॥
by dr. vikrant tikone
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