ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १५८८ ते १६०८
सञ्जय उवाच।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥ ७४॥
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥ ७४॥
असा हा वासुदेव पार्थ या महात्म्यांचा संवाद ऐकला मी रोमहर्षकारी अद्भुत
मग म्हणे पैं कुरुराजा | ऐसा बंधुपुत्र तो तुझा |
बोलिला तें अधोक्षजा | गोड जालें ॥ १५८८ ॥
अधोक्षजा=कृष्णा
अगा पूर्वापर सागर | ययां नामसीचि सिनार |
येर आघवें तें नीर | एक जैसें ॥ १५८९ ॥
पूर्वापर=पूर्व पश्चिम सिनार=वेगळे
तैसा श्रीकृष्ण पार्थ ऐसें | हें आंगाचिपासीं दिसे |
मग संवादीं जी नसे | कांहींचि भेदु ॥ १५९० ॥
पैं दर्पणाहूनि चोखें | दोन्ही होती सन्मुखें |
तेथ येरी येर देखे | आपणपें जैसें ॥ १५९१ ॥
तैसा देवेसीं पंडुसुतु | आपणपें देवीं देखतु |
पांडवेंसीं देखे अनंतु | आपणपें पार्थीं ॥ १५९२ ॥
देव, देवो भक्तालागीं | जिये, विवरूनि देखे आंगीं |
येरु तियेचेही भागीं | दोन्ही देखे ॥ १५९३ ॥
देवो=देवपण
विवरूनि=वेगवेगळ्या जागी
येरु=दूसरा (अर्जुन )
आणिक कांहींच नाहीं | म्हणौनि करिती काई |
दोघे येकपणें पाहीं | नांदताती ॥ १५९४ ॥
आतां भेदु जरी मोडे | तरी प्रश्नोत्तर कां घडे ? |
ना भेदुचि तरी जोडे | संवादसुख कां ? ॥ १५९५ ॥
ऐसें बोलतां दुजेपणें | संवादीं द्वैत गिळणें |
तें ऐकिलें बोलणें | दोघांचें मियां ॥ १५९६ ॥
उटूनि दोन्ही आरिसे | वोडविलीया सरिसे |
कोण कोणा पाहातसे | कल्पावें पां ? ॥ १५९७ ॥
कां दीपासन्मुखु | ठेविलया दीपकु |
कोण कोणा अर्थिकु | कोण जाणें ॥ १५९८ ॥
अर्थिकु=प्रकाशक
नाना अर्कापुढें अर्कु | उदयलिया आणिकु |
कोण म्हणे प्रकाशकु | प्रकाश्य कवण ? ॥ १५९९ ॥
हें निर्धारूं जातां फुडें | निर्धारासि ठक पडे |
ते दोघे जाले एवढे | संवादें सरिसे ॥ १६०० ॥
निर्धारूं=ठरवणे ठक=स्तब्ध होणे
जी मिळतां दोन्ही उदकें | माजी लवण वारूं ठाके |
कीं तयासींही निमिखें | तेंचि होय ॥ १६०१ ॥
वारूं
ठाके=मध्ये उभे राहणे, रोखणे
तैसे श्रीकृष्ण अर्जुन दोन्ही | संवादले तें मनीं |
धरितां मजही वानी | तेंचि होतसे ॥ १६०२ ॥
वानी=प्रकार
ऐसें म्हणे ना मोटकें | तंव हिरोनि सात्विकें |
आठव नेला नेणों कें | संजयपणाचा ॥ १६०३ ॥
मोटकें=एवढेच जेमतेम
रोमांच जंव फरके | तंव तंव आंग सुरके |
स्तंभ स्वेदांतें जिंके | एकला कंपु ॥ १६०४ ॥
सुरके=संकुचित होणे (आत ओढले जावून ताठ
होणे)
अद्वयानंदस्पर्शें | दिठी रसमय जाली असे |
ते अश्रु नव्हती जैसें | द्रवत्वचि ॥ १६०५ ॥
द्रवत्वचि=(प्रेम )प्रवाह
नेणों काय न माय पोटीं | नेणों काय गुंफे कंठीं |
वागर्था पडत मिठी | उससांचिया ॥ १६०६ ॥
वागर्था=बोलणे
किंबहुना सात्विकां आठां | चाचरु मांडतां उमेठा |
संजयो जालासे चोहटां | संवादसुखाचा ॥ १६०७ ॥
चाचरु
मांडतां =मौन पडता उमेठा=खूप
तया सुखाची ऐसी जाती | जे आपणचि धरी शांती |
मग पुढती देहस्मृती | लाधली तेणें ॥ १६०८ ॥
by dr. vikrant tikone
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