Wednesday, May 15, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या १५८८ ते १६०८


 

ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या १५८८ ते १६०८
सञ्जय उवाच।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥ ७४॥

असा हा वासुदेव पार्थ या महात्म्यांचा संवाद ऐकला मी  रोमहर्षकारी अद्भुत


मग म्हणे पैं कुरुराजा | ऐसा बंधुपुत्र तो तुझा |
बोलिला तें अधोक्षजा | गोड जालें ॥ १५८८ ॥

अधोक्षजा=कृष्णा

अगा पूर्वापर सागर | ययां नामसीचि सिनार |
येर आघवें तें नीर | एक जैसें ॥ १५८९ ॥

पूर्वापर=पूर्व पश्चिम सिनार=वेगळे

तैसा श्रीकृष्ण पार्थ ऐसें | हें आंगाचिपासीं दिसे |
मग संवादीं जी नसे | कांहींचि भेदु ॥ १५९० ॥

पैं दर्पणाहूनि चोखें | दोन्ही होती सन्मुखें |
तेथ येरी येर देखे | आपणपें जैसें ॥ १५९१ ॥

तैसा देवेसीं पंडुसुतु | आपणपें देवीं देखतु |
पांडवेंसीं देखे अनंतु | आपणपें पार्थीं ॥ १५९२ ॥

देव, देवो भक्तालागीं | जिये, विवरूनि देखे आंगीं |
येरु तियेचेही भागीं | दोन्ही देखे ॥ १५९३ ॥
देवो=देवपण
विवरूनि=वेगवेगळ्या जागी
येरु=दूसरा (अर्जुन )

आणिक कांहींच नाहीं | म्हणौनि करिती काई |
दोघे येकपणें पाहीं | नांदताती ॥ १५९४ ॥

आतां भेदु जरी मोडे | तरी प्रश्नोत्तर कां घडे ? |
ना भेदुचि तरी जोडे | संवादसुख कां ? ॥ १५९५ ॥

ऐसें बोलतां दुजेपणें | संवादीं द्वैत गिळणें |
तें ऐकिलें बोलणें | दोघांचें मियां ॥ १५९६ ॥
उटूनि दोन्ही आरिसे | वोडविलीया सरिसे |
कोण कोणा पाहातसे | कल्पावें पां ? ॥ १५९७ ॥

कां दीपासन्मुखु | ठेविलया दीपकु |
कोण कोणा अर्थिकु | कोण जाणें ॥ १५९८ ॥

अर्थिकु=प्रकाशक

नाना अर्कापुढें अर्कु | उदयलिया आणिकु |
कोण म्हणे प्रकाशकु | प्रकाश्य कवण ? ॥ १५९९ ॥

हें निर्धारूं जातां फुडें | निर्धारासि ठक पडे |
ते दोघे जाले एवढे | संवादें सरिसे ॥ १६०० ॥

निर्धारूं=ठरवणे ठक=स्तब्ध होणे

जी मिळतां दोन्ही उदकें | माजी लवण वारूं ठाके |
कीं तयासींही निमिखें | तेंचि होय ॥ १६०१ ॥

वारूं ठाके=मध्ये उभे राहणे, रोखणे  

तैसे श्रीकृष्ण अर्जुन दोन्ही | संवादले तें मनीं |
धरितां मजही वानी | तेंचि होतसे ॥ १६०२ ॥

वानी=प्रकार

ऐसें म्हणे ना मोटकें | तंव हिरोनि सात्विकें |
आठव नेला नेणों कें | संजयपणाचा ॥ १६०३ ॥

मोटकें=एवढेच जेमतेम

रोमांच जंव फरके | तंव तंव आंग सुरके |
स्तंभ स्वेदांतें जिंके | एकला कंपु ॥ १६०४ ॥

सुरके=संकुचित होणे (आत ओढले जावून ताठ होणे)
 
अद्वयानंदस्पर्शें | दिठी रसमय जाली असे |
ते अश्रु नव्हती जैसें | द्रवत्वचि ॥ १६०५ ॥

द्रवत्वचि=(प्रेम )प्रवाह

नेणों काय न माय पोटीं | नेणों काय गुंफे कंठीं |
वागर्था पडत मिठी | उससांचिया ॥ १६०६ ॥

वागर्था=बोलणे

किंबहुना सात्विकां आठां | चाचरु मांडतां उमेठा |
संजयो जालासे चोहटां | संवादसुखाचा ॥ १६०७ ॥

चाचरु मांडतां =मौन पडता  उमेठा=खूप

तया सुखाची ऐसी जाती | जे आपणचि धरी शांती |
मग पुढती देहस्मृती | लाधली तेणें ॥ १६०८ ॥

by dr. vikrant tikone

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