ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १६३२ ते १६७६
यत्र
योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ ७८॥
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ ७८॥
जिथे योगेश्वर कृष्ण जिथे
पार्थ धनुर्धर तिथे नित्य श्री विजय सामर्थ्य नीती हे माझे मत आहे
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
यया बोला संजयो म्हणे | जी येरयेरांचें मी नेणें |
परी आयुष्य तेथें जिणें | हें फुडें कीं गा ॥ १६३२ ॥
येरयेरांचें
=बाकीच्याचे फुडें=खरे
चंद्रु तेथें चंद्रिका | शंभु तेथें अंबिका |
संत तेथें विवेका | असणें कीं जी ॥ १६३३ ॥
रावो तेथें कटक | सौजन्य तेथें सोयरीक |
वन्हि तेथें दाहक | सामर्थ्य कीं ॥ १६३४ ॥
कटक=सैन्यदळ
दया तेथें धर्मु | धर्मु तेथें सुखागमु |
सुखीं पुरुषोत्तमु | असे जैसा ॥ १६३५ ॥
वसंत तेथें वनें | वन तेथें सुमनें |
सुमनीं पालिंगनें | सारंगांचीं ॥ १६३६ ॥
पालिंगनें=समूह सारंगांचीं=भ्रमर
गुरु तेथ ज्ञान | ज्ञानीं आत्मदर्शन |
दर्शनीं समाधान | आथी जैसें ॥ १६३७ ॥
भाग्य तेथ विलासु | सुख तेथ उल्लासु |
हें असो तेथ प्रकाशु | सूर्य जेथें ॥ १६३८ ॥
तैसे सकल पुरुषार्थ | जेणें स्वामी कां सनाथ |
तो श्रीकृष्ण रावो जेथ | तेथ लक्ष्मी ॥ १६३९ ॥
आणि आपुलेनि कांतेंसीं | ते जगदंबा जयापासीं |
अणिमादिकीं काय दासी | नव्हती तयातें ? ॥ १६४० ॥
कृष्ण विजयस्वरूप निजांगें | तो राहिला असे जेणें भागें |
तैं जयो लागवेगें | तेथेंचि आहे ॥ १६४१ ॥
लागवेगें |=लागलीच
विजयो नामें अर्जुन विख्यातु | विजयस्वरूप श्रीकृष्णनाथु |
श्रियेसीं विजय निश्चितु | तेथेंचि असे ॥ १६४२ ॥
तयाचिये देशींच्या झाडीं | कल्पतरूतें होडी |
न जिणावें कां येवढीं | मायबापें असतां ? ॥ १६४३ ॥
होडी=पैज जिंकणे
ते पाषाणही आघवें | चिंतारत्ने कां नोहावे ? |
तिये भूमिके कां न यावें | सुवर्णत्व ? ॥ १६४४ ॥
भूमिके=जमिनीला
तयाचिया गांवींचिया | नदी अमृतें वाहाविया |
नवल कायि राया | विचारीं पां ॥ १६४५ ॥
तयाचे बिसाट शब्द | सुखें म्हणों येती वेद |
सदेह सच्चिदानंद | कां न व्हावे ते ? ॥ १६४६ ॥
पैं स्वर्गापवर्ग दोन्ही | इयें पदें जया अधीनीं |
तो श्रीकृष्ण बाप जननी | कमळा जया ॥ १६४७ ॥
म्हणौनि जिया बाहीं उभा | तो लक्ष्मीयेचा वल्लभा |
तेथें सर्वसिद्धी स्वयंभा | येर मी नेणें ॥ १६४८ ॥
आणि समुद्राचा मेघु | उपयोगें तयाहूनि चांगु |
तैसा पार्थीं आजि लागु | आहे तये ॥ १६४९ ॥
कनकत्वदीक्षागुरू | लोहा परिसु होय कीरू |
परी जगा पोसिता व्यवहारु | तेंचि जाणें ॥ १६५० ॥
येथ गुरुत्वा येतसे उणें | ऐसें झणें कोण्ही म्हणे |
वन्हि प्रकाश दीपपणें | प्रकाशी आपुला ॥ १६५१ ॥
तैसा देवाचिया शक्ती | पार्थु देवासीचि बहुती |
परी माने इये स्तुती | गौरव असे ॥ १६५२ ॥
माने=तुलनेने
आणि पुत्रें मी सर्व गुणीं | जिणावा हे बापा शिराणी |
तरी ते शारङ्गपाणी | फळा आली ॥ १६५३ ॥
शिराणी=इच्छा
किंबहुना ऐसा नृपा | पार्थु जालासे कृष्णकृपा |
तो जयाकडे साक्षेपा | रीति आहे ॥ १६५४ ॥
साक्षेपा=सावध विचारपूर्वक योग्य
तोचि गा विजयासि ठावो | येथ तुज कोण संदेहो ? |
तेथ न ये तरी वावो | विजयोचि होय ॥ १६५५ ॥
वावो=वाउगा
म्हणौनि जेथ श्री तेथें श्रीमंतु | जेथ तो पंडूचा सुतु |
तेथ विजय समस्तु | अभ्युदयो तेथ ॥ १६५६ ॥
अभ्युदयो=एहिक उत्कर्ष
जरी व्यासाचेनि साचें | धिरे मन तुमचें |
तरी या बोलाचें | ध्रुवचि माना ॥ १६५७ ॥
साचें =खरे बोलणे धिरे=भरवसा विश्वास
जेथ तो श्रीवल्लभु | जेथ भक्तकदंबु |
तेथ सुख आणि लाभु | मंगळाचा ॥ १६५८ ॥
भक्तकदंबु=भक्तश्रेष्ठ (अर्जुन)
या बोला आन होये | तरी व्यासाचा अंकु न वाहे |
ऐसें गाजोनि बाहें | उभिली तेणें ॥ १६५९ ॥
अंकु=शिष्यत्व
एवं भारताचा आवांका | आणूनि श्लोका येका |
संजयें कुरुनायका | दिधला हातीं ॥ १६६० ॥
आवांका=सारांश
जैसा नेणों केवढा वन्ही | परी गुणाग्रीं ठेऊनी |
आणिजे सूर्याची हानी | निस्तरावया ॥ १६६१ ॥
गुणाग्रीं=वात हानी=कमीपणा
तैसें शब्दब्रह्म अनंत | जालें सवालक्ष भारत |
भारताचें शतें सात | सर्वस्व गीता ॥ १६६२ ॥
तयांही सातां शतांचा | इत्यर्थु हा श्लोक शेषींचा |
व्यासशिष्य संजयाचा | पूर्णोद्गारु जो ॥ १६६३ ॥
येणें येकेंचि श्लोकें | राहे तेणें असकें |
अविद्याजाताचें निकें | जिंतलें होय ॥ १६६४ ॥
असकें=संपूर्ण निकें=खरोखर
ऐसें श्लोक शतें सात | गीतेचीं पदें आंगें वाहत |
पदें म्हणों कीं परमामृत | गीताकाशींचें ॥ १६६५ ॥
कीं आत्मराजाचिये सभे | गीते वोडवले हे खांबे |
मज श्लोक प्रतिभे | ऐसे येत ॥ १६६६ ॥
वोडवले=उभारले
कीं गीता हे सप्तशती | मंत्रप्रतिपाद्य भगवती |
मोहमहिषा मुक्ति | आनंदली असे ॥ १६६७ ॥
म्हणौनि मनें कायें वाचा | जो सेवकु होईल इयेचा |
तो स्वानंदासाम्राज्याचा | चक्रवर्ती करी ॥ १६६८ ॥
कीं अविद्यातिमिररोंखें | श्लोक सूर्यातें पैजा जिंकें |
ऐसे प्रकाशिले गीतामिषें | रायें श्रीकृष्णें ॥ १६६९ ॥
रोंखें=दृष्टीने
कीं श्लोकाक्षरद्राक्षलता | मांडव जाली आहे गीता |
संसारपथश्रांता | विसंवावया ॥ १६७० ॥
कीं सभाग्यसंतीं भ्रमरीं | केले ते श्लोककल्हारीं |
श्रीकृष्णाख्यसरोवरीं | सासिन्नली हे ॥ १६७१ ॥
कल्हारीं=कमळे सासिन्नली=बहरास आली
कीं श्लोक नव्हती आन | गमे गीतेचें महिमान |
वाखाणिते बंदीजन | उदंड जैसे ॥ १६७२ ॥
बंदीजन=भाट
कीं श्लोकांचिया आवारा | सात शतें करूनि सुंदरा |
सर्वागम गीतापुरा | वसों आले ॥ १६७३ ॥
सर्वागम=सर्व आगम (शास्त्रे)
कीं निजकांता आत्मया | आवडी गीता मिळावया |
श्लोक नव्हती बाह्या | पसरु का जो ॥ १६७४ ॥
आवडी=प्रेमाने मिळावया=भेटायला
कीं गीताकमळींचे भृंग | कीं हे गीतासागरतरंग |
कीं हरीचे हे तुरंग | गीतारथींचे ॥ १६७५ ॥
तुरंग=घोडे
कीं श्लोक सर्वतीर्थ संघातु | आला श्रीगीतेगंगे आंतु |
जे अर्जुन नर सिंहस्थु | जाला म्हणौनि ॥ १६७६ ॥
by dr. vikrant tikone
No comments:
Post a Comment