ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १४३५ ते १४५६ (सारांश )
ओव्या १४३५ ते १४५६ (सारांश )
तरी पहिला जो अध्यावो | तो शास्त्रप्रवृत्तिप्रस्तावो |
द्वितीयीं साङ्ख्यसद्भावो | प्रकाशिला ॥ १४३५ ॥
मोक्षदानीं स्वतंत्र | ज्ञानप्रधान हें शास्त्र |
येतुलालें दुजीं सूत्र | उभारिलें ॥ १४३६ ॥
मग अज्ञानें बांधलेयां | मोक्षपदीं बैसावया |
साधनारंभु तो तृतीया\- | ध्यायीं बोलिला ॥ १४३७ ॥
जे देहाभिमान बंधें | सांडूनि काम्यनिषिद्धें |
विहित परी अप्रमादें | अनुष्ठावें ॥ १४३८ ॥
ऐसेनि सद्भावें कर्म करावें | हा तिजा अध्यावो जो देवें |
निर्णय केला तें जाणावें | कर्मकांड येथ ॥ १४३९ ॥
आणि तेंचि नित्यादिक | अज्ञानाचें आवश्यक |
आचरतां मोंचक | केवीं होय पां ॥ १४४० ॥
मोंचक=मोक्ष दायी
ऐसी अपेक्षा जालिया | बद्ध मुमुक्षुते आलिया |
देवें ब्रह्मार्पणत्वें क्रिया | सांगितली ॥ १४४१ ॥
जे देहवाचामानसें | विहित निपजे जें जैसें |
तें एक ईश्वरोद्देशें | कीजे म्हणितलें ॥ १४४२ ॥
हेंचि ईश्वरीं कर्मयोगें | भजनकथनाचें खागें |
आदरिलें शेषभागें | चतुर्थाचेनी ॥ १४४३ ॥
खागें=प्रकारे
तें विश्वरूप अकरावा | अध्यावो संपे जंव आघवा |
तंव कर्में ईशु भजावा | हें जें बोलिलें ॥ १४४४ ॥
तें अष्टाध्यायीं उघड | जाण येथें देवताकांड |
शास्त्र सांगतसे आड | मोडूनि बोलें ॥ १४४५ ॥
आणि तेणेंचि ईशप्रसादें | श्रीगुरुसंप्रदायलब्धें |
साच ज्ञान उद्बोधे | कोंवळें जें ॥ १४४६ ॥
तें अद्वेष्टादि,प्रभृतिकीं | अथवा अमानित्वादिकीं |
वाढविजे म्हणौनि लेखी | बारावा गणूं ॥ १४४७ ॥
तो बारावा अध्याय आदी | आणि पंधरावा अवधी |
ज्ञानफळपाकसिद्धी | निरूपणासीं ॥ १४४८ ॥
म्हणौनि चहूंही इहीं | ऊर्ध्वमूळांतीं अध्यायीं |
ज्ञानकांड ये ठायीं | निरूपिजे ॥ १४४९ ॥
ऊर्ध्वमूळांतीं
अध्यायीं=१५ वा
एवं कांडत्रयनिरूपणी | श्रुतीचि हे कोडिसवाणी |
गीतापद्यरत्नांचीं लेणीं | लेयिली आहे ॥ १४५० ॥
कोडिसवाणी=सुंदर
हें असो कांडत्रयात्मक | श्रुति मोक्षरूप फळ येक |
बोभावे जें आवश्यक | ठाकावें म्हणौनि ॥ १४५१ ॥
बोभावे=गरजून सांगणे
तयाचेनि साधन ज्ञानेंसीं | वैर करी जो प्रतिदिवशीं |
तो अज्ञानवर्ग षोडशीं | प्रतिपादिजे ॥ १४५२ ॥
तोचि शास्त्राचा बोळावा | घेवोनि वैरी जिणावा |
हा निरोपु तो सतरावा | अध्याय येथ ॥ १४५३ ॥
बोळावा=रक्षक
ऐसा प्रथमालागोनि | सतरावा लाणी करूनी |
आत्मनिश्वास विवरूनी | दाविला देवें ॥ १४५४ ॥
तया अर्थजातां अशेषां | केला तात्पर्याचा आवांका |
तो हा अठरावा देखा | कलशाध्यायो ॥ १४५५ ॥
आवांका=साकल्य पूर्ण
एवं सकळसंख्यासिद्धु | श्रीभागवद्गीता प्रबंधु |
हा औदार्यें आगळा वेदु | मूर्तु जाण ॥ १४५६ ॥
by dr. vikrant tikone
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