ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १२४६ ते १२९८
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ ५६॥
(सर्व कर्मे सदैव करी मज आश्रय घेत ,माझ्या प्रसादाने पावशील शाश्वत पद अविनाशी)
मग म्हणे गा सुभटा | तो क्रमयोगिया निष्ठा |
मी होउनी होय पैठा | माझ्या रूपीं ॥ १२४६ ॥
पैठा=वस्ती करता, स्थिरावणे
स्वकर्माच्या चोखौळीं | मज पूजा करूनि भलीं |
तेणें प्रसादें आकळी | ज्ञाननिष्ठेतें ॥ १२४७ ॥
चोखौळीं=शुद्ध फुलांनी
ते ज्ञाननिष्ठा जेथ हातवसे | तेथ भक्ति माझी उल्लासे |
तिया भजन समरसें | सुखिया होय ॥ १२४८ ॥
हातवसे=आत्मसात
आणि विश्वप्रकाशितया | आत्मया मज आपुलिया |
अनुसरे जो करूनियां | सर्वत्रता हे ॥ १२४९ ॥
सांडूनि आपुला आडळ | लवण आश्रयी जळ |
कां हिंडोनि राहे निश्चळ | वायु व्योमीं ॥ १२५० ॥
आडळ=प्रतिबंध अडथळा
तैसा बुद्धी वाचा कायें | जो मातें आश्रऊनि ठाये |
तो निषिद्धेंही विपायें | कर्में करूं ॥ १२५१ ॥
परी गंगेच्या संबंधीं | बिदी आणि महानदी |
येक तेवीं माझ्या बोधीं | शुभाशुभांसी ॥ १२५२ ॥
बिदी=गटार
कां बावनें आणि धुरें | हा निवाडु तंवचि सरे |
जंव न घेपती वैश्वानरें | कवळूनि दोन्ही ॥ १२५३ ॥
बावनें=चंदन धुरें =निकृष्ट लाकूड
ना पांचिकें आणि सोळें | हें सोनया तंवचि आलें |
जंव परिसु आंगमेळें | एकवटीना ॥ १२५४ ॥
आंगमेळें=स्पर्शणे
तैसें शुभाशुभ ऐसें | हें तंवचिवरी आभासे |
जंव येकु न प्रकाशे | सर्वत्र मी ॥ १२५५ ॥
अगा रात्री आणि दिवो | हा तंवचि द्वैतभावो |
जंव न रिगिजे गांवो | गभस्तीचा ॥ १२५६ ॥
म्हणौनि माझिया भेटी | तयाचीं सर्व कर्में किरीटी |
जाऊनि बैसे तो पाटीं | सायुज्याच्या ॥ १२५७ ॥
देशें काळें स्वभावें | वेंचु जया न संभवे |
तें पद माझें पावे | अविनाश तो ॥ १२५८ ॥
किंबहुना पंडुसुता | मज आत्मयाची प्रसन्नता |
लाहे तेणें न पविजतां | लाभु कवणु असे ॥ १२५९ ॥
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥ ५७॥
(मनाने सर्व कर्म मला अर्पून मत्परायण हो .बुध्दीयोगाचा आश्रय घेवून चित्त मजमाजी सतत ठेव)
याकारणें गा तुवां इया | सर्व कर्मा आपुलिया |
माझ्या स्वरूपीं धनंजया | संन्यासु कीजे ॥ १२६० ॥
परी तोचि संन्यासु वीरा | करणीयेचा झणें करा |
आत्मविवेकीं धरा | चित्तवृत्ति हे ॥ १२६१ ॥
मग तेणें विवेकबळें | आपणपें कर्मावेगळें |
माझ्या स्वरूपीं निर्मळें | देखिजेल ॥ १२६२ ॥
आणि कर्माचि जन्मभोये | प्रकृति जे का आहे |
ते आपणयाहूनि बहुवे | देखसी दूरी ॥ १२६३ ॥
जन्मभोये=जन्म भूमी
तेथ प्रकृति आपणयां | वेगळी नुरे धनंजया |
रूपेंवीण का छाया | जियापरी ॥ १२६४ ॥
ऐसेनि प्रकृतिनाशु | जालया कर्मसंन्यासु |
निफजेल अनायासु | सकारणु ॥ १२६५ ॥
मग कर्मजात गेलया | मी आत्मा उरें आपणपयां |
तेथ बुद्धि घापे करूनियां | पतिव्रता ॥ १२६६ ॥
बुद्धि अनन्य येणें योगें | मजमाजीं जैं रिगे |
तैं चित्त चैत्यत्यागें | मातेंचि भजे ॥ १२६७ ॥
चैत्य=चित्ताचे विषय
ऐसें चैत्यजातें सांडिलें | चित्त माझ्या ठायीं जडलें |
ठाके तैसें वहिलें | सर्वदा करी ॥ १२६८ ॥
वहिलें=लवकर
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनण्क्ष्यसि ॥ ५८॥
(माझ्यात चित्त ठेवल्याने माझ्या प्रसादाने सर्व भयातून मुक्त होशील .पण अहंकाराने हे न ऐकशील तर नाश पावशील)
मग अभिन्ना इया सेवा | चित्त मियांचि भरेल जेधवां |
माझा प्रसादु जाण तेधवां | संपूर्ण जाहला ॥ १२६९ ॥
तेथ सकळ दुःखधामें | भुंजीजती जियें मृत्युजन्में |
तियें दुर्गमेंचि सुगमें | होती तुज ॥ १२७० ॥
भुंजीजती=भोगतात
सूर्याचेनि सावायें | डोळा सावाइला होये |
तैं अंधाराचा आहे | पाडु तया ? ॥ १२७१ ॥
सावायें =मदतीने सावाइला=कार्यक्षम मदतगार
तैसा माझेनि प्रसादें | जीवकणु जयाचा उपमर्दे |
तो संसराचेनी बाधे | बागुलें केवीं ? ॥ १२७२ ॥
जीवकणु=अल्पसा जीव उपमर्दे=नष्ट होतो
बागुलें= घाबरणे
म्हणौनि धनंजया | तूं संसारदुर्गती यया |
तरसील माझिया | प्रसादास्तव ॥ १२७३ ॥
अथवा हन अहंभावें | माझें बोलणें हें आघवें |
कानामनाचिये शिंवे | नेदिसी टेंकों ॥ १२७४ ॥
तरी नित्य मुक्त अव्ययो | तूं आहासि तें होऊनि वावो |
देहसंबंधाचा घावो | वाजेल आंगीं ॥ १२७५ ॥
जया देहसंबंधा आंतु | प्रतिपदीं आत्मघातु |
भुंजतां उसंतु | कहींचि नाहीं ॥ १२७६ ॥
भुंजतां=भोगता
येवढेनि दारुणें | निमणेनवीण निमणें |
पडेल जरी बोलणें | नेघसी माझें ॥ १२७७ ॥
निमणेनवीण निमणें=मेल्यावाचून मरणे
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष न्ंनहि व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥ ५९॥
अहंकाराचा आश्रय घेवून मी लढणार नाही असे मानने हा निश्चय मिथ्या आहे तुझी प्रकृती ते तुला करायला भाग पाडीन
पथ्यद्वेषिया पोषी ज्वरु | कां दीपद्वेषिया अंधकारु |
विवेकद्वेषें अहंकारु | पोषूनि तैसा ॥ १२७८ ॥
स्वदेहा नाम अर्जुनु | परदेहा नाम स्वजनु |
संग्रामा नाम मलिनु | पापाचारु ॥ १२७९ ॥
इया मती आपुलिया | तिघां तीन नामें ययां |
ठेऊनियां धनंजया | न झुंजें ऐसा ॥ १२८० ॥
जीवामाजीं निष्टंकु | करिसी जो आत्यंतिकु |
तो वायां धाडील नैसर्गिकु | स्वभावोचि तुझा ॥ १२८१ ॥
निष्टंकु=निश्चय
आणि मी अर्जुन हे आत्मिक | ययां वधु करणें हें पातक |
हे मायावांचूनि तात्त्विक | कांहीं आहे ? ॥ १२८२ ॥
आत्मिक=आप्त
आधीं जुंझार तुवां होआवें | मग झुंजावया शस्त्र घेयावें |
कां न जुंझावया करावें | देवांगण ॥ १२८३ ॥
देवांगण=प्रतिज्ञा
म्हणौनि न झुंजणें | म्हणसी तें वायाणें |
ना मानूं लोकपणें | लोकदृष्टीही ॥ १२८४ ॥
लोकपणें=लोकव्यवहार
तऱ्ही न झुंजें ऐसें | निष्टंकीसी जें मानसें |
तें प्रकृति अनारिसें | करवीलचि ॥ १२८५ ॥
अनारिसें=वेगळे
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोपि तत् ॥ ६०॥
पैं पूर्वे वाहतां पाणी | पव्हिजे पश्चिमेचे वाहणीं |
तरी आग्रहोचि उरे तें आणी | आपुलिया लेखा ॥ १२८६ ॥
लेखा=वळण
कां साळीचा कणु म्हणे | मी नुगवें साळीपणें |
तरी आहे आन करणें | स्वभावासी ? ॥ १२८७ ॥
तैसा क्षात्रंस्कारसिद्धा | प्रकृती घडिलासी प्रबुद्धा |
आता नुठी म्हणसी हा धांदा | परी उठवीजसीचि तूं ॥ १२८८ ॥
धांदा=निष्फळ बोल
पैं शौर्य तेज दक्षता | एवमादिक पंडुसुता |
गुण दिधले जन्मतां | प्रकृती तुज ॥ १२८९ ॥
तरी तयाचिया समवाया\- | अनुरूप धनंजया |
न करितां उगलियां | नयेल असों ॥ १२९० ॥
उगलियां=उगे राहणे नयेल=न येईल
म्हणौनियां तिहीं गुणीं | बांधिलासि तूं कोदंडपाणी |
त्रिशुद्धी निघसी वाहणीं | क्षात्राचिया ॥ १२९१ ॥
त्रिशुद्धी
=नक्कीच वाहणीं=वागणे रीत
ना हें आपुलें जन्ममूळ | न विचारीतचि केवळ |
न झुंजें ऐसें अढळ | व्रत जरी घेसी ॥ १२९२ ॥
जन्ममूळ= जन्म स्वभाव
तरी बांधोनि हात पाये | जो रथीं घातला होये |
तो न चाले तरी जाये | दिगंता जेवीं ॥ १२९३ ॥
तैसा तूं आपुलियाकडुनी | मीं कांहींच न करीं म्हणौनि |
ठासी परी भरंवसेनि | तूंचि करिसी ॥ १२९४ ॥
उत्तरु वैराटींचा राजा | पळतां तूं कां निघालासी झुंजा ? |
हा क्षात्रस्वभावो तुझा | झुंजवील तुज ॥ १२९५ ॥
महावीर अकरा अक्षौहिणी | तुवां येकें नागविले रणांगणीं |
तो स्वभावो कोदंडपाणी | झुंजवील तूंतें ॥ १२९६ ॥
हां गा रोगु कायी रोगिया | आवडे दरिद्र दरिद्रिया ? |
परी भोगविजे बळिया | अदृष्टें जेणें ॥ १२९७ ॥
बळिया=जबरदस्तीने
तें अदृष्ट अनारिसें | न करील ईश्वरवशें |
तो ईश्वरुही असे | हृदयीं तुझ्या ॥ १२९८ ॥
by dr. vikrant tikone
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