Sunday, March 31, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या १२४६ ते १२९८



ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या  १२४६  ते  १२९८        
 
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ ५६॥

(सर्व कर्मे सदैव करी मज आश्रय घेत ,माझ्या प्रसादाने पावशील शाश्वत पद अविनाशी)
 
मग म्हणे गा सुभटा | तो क्रमयोगिया निष्ठा |
मी होउनी होय पैठा | माझ्या रूपीं ॥ १२४६ ॥

पैठा=वस्ती करता, स्थिरावणे

स्वकर्माच्या चोखौळीं | मज पूजा करूनि भलीं |
तेणें प्रसादें आकळी | ज्ञाननिष्ठेतें ॥ १२४७ ॥

चोखौळीं=शुद्ध फुलांनी

ते ज्ञाननिष्ठा जेथ हातवसे | तेथ भक्ति माझी उल्लासे |
तिया भजन समरसें | सुखिया होय ॥ १२४८ ॥

हातवसे=आत्मसात

आणि विश्वप्रकाशितया | आत्मया मज आपुलिया |
अनुसरे जो करूनियां | सर्वत्रता हे ॥ १२४९ ॥

सांडूनि आपुला आडळ | लवण आश्रयी जळ |
कां हिंडोनि राहे निश्चळ | वायु व्योमीं ॥ १२५० ॥

आडळ=प्रतिबंध अडथळा

तैसा बुद्धी वाचा कायें | जो मातें आश्रऊनि ठाये |
तो निषिद्धेंही विपायें | कर्में करूं ॥ १२५१ ॥

परी गंगेच्या संबंधीं | बिदी आणि महानदी |
येक तेवीं माझ्या बोधीं | शुभाशुभांसी ॥ १२५२ ॥

बिदी=गटार

कां बावनें आणि धुरें | हा निवाडु तंवचि सरे |
जंव न घेपती वैश्वानरें | कवळूनि दोन्ही ॥ १२५३ ॥

बावनें=चंदन धुरें =निकृष्ट लाकूड 


ना पांचिकें आणि सोळें | हें सोनया तंवचि आलें |
जंव परिसु आंगमेळें | एकवटीना ॥ १२५४ ॥

आंगमेळें=स्पर्शणे

तैसें शुभाशुभ ऐसें | हें तंवचिवरी आभासे |
जंव येकु न प्रकाशे | सर्वत्र मी ॥ १२५५ ॥

अगा रात्री आणि दिवो | हा तंवचि द्वैतभावो |
जंव न रिगिजे गांवो | गभस्तीचा ॥ १२५६ ॥

म्हणौनि माझिया भेटी | तयाचीं सर्व कर्में किरीटी |
जाऊनि बैसे तो पाटीं | सायुज्याच्या ॥ १२५७ ॥

देशें काळें स्वभावें | वेंचु जया न संभवे |
तें पद माझें पावे | अविनाश तो ॥ १२५८ ॥

किंबहुना पंडुसुता | मज आत्मयाची प्रसन्नता |
लाहे तेणें न पविजतां | लाभु कवणु असे ॥ १२५९ ॥



चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥ ५७॥

(मनाने सर्व कर्म मला अर्पून मत्परायण हो .बुध्दीयोगाचा आश्रय घेवून चित्त मजमाजी सतत ठेव)

याकारणें गा तुवां इया | सर्व कर्मा आपुलिया |
माझ्या स्वरूपीं धनंजया | संन्यासु कीजे ॥ १२६० ॥

परी तोचि संन्यासु वीरा | करणीयेचा झणें करा |
आत्मविवेकीं धरा | चित्तवृत्ति हे ॥ १२६१ ॥

मग तेणें विवेकबळें | आपणपें कर्मावेगळें |
माझ्या स्वरूपीं निर्मळें | देखिजेल ॥ १२६२ ॥

आणि कर्माचि जन्मभोये | प्रकृति जे का आहे |
ते आपणयाहूनि बहुवे | देखसी दूरी ॥ १२६३ ॥

जन्मभोये=जन्म भूमी

तेथ प्रकृति आपणयां | वेगळी नुरे धनंजया |
रूपेंवीण का छाया | जियापरी ॥ १२६४ ॥

ऐसेनि प्रकृतिनाशु | जालया कर्मसंन्यासु |
निफजेल अनायासु | सकारणु ॥ १२६५ ॥

मग कर्मजात गेलया | मी आत्मा उरें आपणपयां |
तेथ बुद्धि घापे करूनियां | पतिव्रता ॥ १२६६ ॥

बुद्धि अनन्य येणें योगें | मजमाजीं जैं रिगे |
तैं चित्त चैत्यत्यागें | मातेंचि भजे ॥ १२६७ ॥

चैत्य=चित्ताचे विषय

ऐसें चैत्यजातें सांडिलें | चित्त माझ्या ठायीं जडलें |
ठाके तैसें वहिलें | सर्वदा करी ॥ १२६८ ॥

वहिलें=लवकर  

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनण्‌क्ष्यसि ॥ ५८॥

(माझ्यात चित्त ठेवल्याने माझ्या प्रसादाने सर्व भयातून मुक्त होशील .पण अहंकाराने हे न ऐकशील तर नाश पावशील)

मग अभिन्ना इया सेवा | चित्त मियांचि भरेल जेधवां |
माझा प्रसादु जाण तेधवां | संपूर्ण जाहला ॥ १२६९ ॥

तेथ सकळ दुःखधामें | भुंजीजती जियें मृत्युजन्में |
तियें दुर्गमेंचि सुगमें | होती तुज ॥ १२७० ॥

भुंजीजती=भोगतात

सूर्याचेनि सावायें | डोळा सावाइला होये |
तैं अंधाराचा आहे | पाडु तया ? ॥ १२७१ ॥

सावायें =मदतीने  सावाइला=कार्यक्षम मदतगार

तैसा माझेनि प्रसादें | जीवकणु जयाचा उपमर्दे |
तो संसराचेनी बाधे | बागुलें केवीं ? ॥ १२७२ ॥

जीवकणु=अल्पसा जीव उपमर्दे=नष्ट  होतो
बागुलें= घाबरणे

म्हणौनि धनंजया | तूं संसारदुर्गती यया |
तरसील माझिया | प्रसादास्तव ॥ १२७३ ॥

अथवा हन अहंभावें | माझें बोलणें हें आघवें |
कानामनाचिये शिंवे | नेदिसी टेंकों ॥ १२७४ ॥

तरी नित्य मुक्त अव्ययो | तूं आहासि तें होऊनि वावो |
देहसंबंधाचा घावो | वाजेल आंगीं ॥ १२७५ ॥

जया देहसंबंधा आंतु | प्रतिपदीं आत्मघातु |
भुंजतां उसंतु | कहींचि नाहीं ॥ १२७६ ॥

भुंजतां=भोगता

येवढेनि दारुणें | निमणेनवीण निमणें |
पडेल जरी बोलणें | नेघसी माझें ॥ १२७७ ॥

निमणेनवीण निमणें=मेल्यावाचून मरणे
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष न्ंनहि व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥ ५९॥

अहंकाराचा आश्रय घेवून मी लढणार नाही असे मानने हा निश्चय मिथ्या आहे तुझी प्रकृती ते तुला करायला भाग पाडीन

पथ्यद्वेषिया पोषी ज्वरु | कां दीपद्वेषिया अंधकारु |
विवेकद्वेषें अहंकारु | पोषूनि तैसा ॥ १२७८ ॥

स्वदेहा नाम अर्जुनु | परदेहा नाम स्वजनु |
संग्रामा नाम मलिनु | पापाचारु ॥ १२७९ ॥

इया मती आपुलिया | तिघां तीन नामें ययां |
ठेऊनियां धनंजया | न झुंजें ऐसा ॥ १२८० ॥

जीवामाजीं निष्टंकु | करिसी जो आत्यंतिकु |
तो वायां धाडील नैसर्गिकु | स्वभावोचि तुझा ॥ १२८१ ॥

निष्टंकु=निश्चय

आणि मी अर्जुन हे आत्मिक | ययां वधु करणें हें पातक |
हे मायावांचूनि तात्त्विक | कांहीं आहे ? ॥ १२८२ ॥

आत्मिक=आप्त

आधीं जुंझार तुवां होआवें | मग झुंजावया शस्त्र घेयावें |
कां न जुंझावया करावें | देवांगण ॥ १२८३ ॥

देवांगण=प्रतिज्ञा

म्हणौनि न झुंजणें | म्हणसी तें वायाणें |
ना मानूं लोकपणें | लोकदृष्टीही ॥ १२८४ ॥

लोकपणें=लोकव्यवहार

तऱ्ही न झुंजें ऐसें | निष्टंकीसी जें मानसें |
तें प्रकृति अनारिसें | करवीलचि ॥ १२८५ ॥

अनारिसें=वेगळे


स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोपि तत् ॥ ६०॥


पैं पूर्वे वाहतां पाणी | पव्हिजे पश्चिमेचे वाहणीं |
तरी आग्रहोचि उरे तें आणी | आपुलिया लेखा ॥ १२८६ ॥

लेखा=वळण

कां साळीचा कणु म्हणे | मी नुगवें साळीपणें |
तरी आहे आन करणें | स्वभावासी ? ॥ १२८७ ॥

तैसा क्षात्रंस्कारसिद्धा | प्रकृती घडिलासी प्रबुद्धा |
आता नुठी म्हणसी हा धांदा | परी उठवीजसीचि तूं ॥ १२८८ ॥

धांदा=निष्फळ बोल

पैं शौर्य तेज दक्षता | एवमादिक पंडुसुता |
गुण दिधले जन्मतां | प्रकृती तुज ॥ १२८९ ॥

तरी तयाचिया समवाया\- | अनुरूप धनंजया |
न करितां उगलियां | नयेल असों ॥ १२९० ॥

उगलियां=उगे राहणे नयेल=न येईल

म्हणौनियां तिहीं गुणीं | बांधिलासि तूं कोदंडपाणी |
त्रिशुद्धी निघसी वाहणीं | क्षात्राचिया ॥ १२९१ ॥

त्रिशुद्धी =नक्कीच वाहणीं=वागणे रीत

ना हें आपुलें जन्ममूळ | न विचारीतचि केवळ |
न झुंजें ऐसें अढळ | व्रत जरी घेसी ॥ १२९२ ॥

जन्ममूळ= जन्म स्वभाव

तरी बांधोनि हात पाये | जो रथीं घातला होये |
तो न चाले तरी जाये | दिगंता जेवीं ॥ १२९३ ॥

तैसा तूं आपुलियाकडुनी | मीं कांहींच न करीं म्हणौनि |
ठासी परी भरंवसेनि | तूंचि करिसी ॥ १२९४ ॥

उत्तरु वैराटींचा राजा | पळतां तूं कां निघालासी झुंजा ? |
हा क्षात्रस्वभावो तुझा | झुंजवील तुज ॥ १२९५ ॥

महावीर अकरा अक्षौहिणी | तुवां येकें नागविले रणांगणीं |
तो स्वभावो कोदंडपाणी | झुंजवील तूंतें ॥ १२९६ ॥

हां गा रोगु कायी रोगिया | आवडे दरिद्र दरिद्रिया ? |
परी भोगविजे बळिया | अदृष्टें जेणें ॥ १२९७ ॥

बळिया=जबरदस्तीने

तें अदृष्ट अनारिसें | न करील ईश्वरवशें |
तो ईश्वरुही असे | हृदयीं तुझ्या ॥ १२९८ ॥
by dr. vikrant tikone


No comments:

Post a Comment