ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ११३० ते ११७३ (अद्वैतभक्ति)
भक्त्या मामभिजानाति
यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो
ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ ५५॥
भक्तीने मज जाणतो कोण मी
केवढा तत्वता ,असे तत्वता
जाणून माझ्या ठायी प्रवेशे तो
या ज्ञान भक्ति सहज | भक्तु एकवटला मज |
मीचि केवळ हें तुज | श्रुतही आहे ॥ ११३० ॥
जे उभऊनियां भुजा | ज्ञानिया आत्मा माझा |
हे बोलिलों कपिध्वजा | सप्तमाध्यायीं ॥ ११३१ ॥
ते कल्पादीं भक्ति मियां | श्रीभागवतमिषें ब्रह्मया |
उत्तम म्हणौनि धनंजया | उपदेशिली ॥ ११३२ ॥
ज्ञानी इयेतें स्वसंवित्ती | शैव म्हणती शक्ती |
आम्ही परम भक्ती | आपुली म्हणो ॥ ११३३ ॥
स्वसंवित्ती =आत्मज्ञान
हे मज मिळतिये वेळे | तया क्रमयोगियां फळे |
मग समस्तही निखिळें | मियांचि भरे ॥ ११३४ ॥
तेथ वैराग्य विवेकेंसी | आटे बंध मोक्षेंसीं |
वृत्ती तिये आवृत्तीसीं | बुडोनि जाय ॥ ११३५ ॥
आवृत्तीसीं =वारंवार चिंतनने (वृतीचा वृतीत
बुडते असाही एक अर्थ )
घेऊनि ऐलपणातें | परत्व हारपें जेथें |
गिळूनि चाऱ्ही भूतें | आकाश जैसें ॥ ११३६ ॥
तया परी थडथाद | साध्यसाधनातीत शुद्ध |
तें मी होऊनि एकवद | भोगितो मातें ॥ ११३७ ॥
थडथाद=अलिप्ततेने एकवद=एकरूप
घडोनि सिंधूचिया आंगा | सिंधूवरी तळपे गंगा |
तैसा पाडु तया भोगा | अवधारी जो ॥ ११३८ ॥
तळपे= विसावे
कां आरिसयासि आरिसा | उटूनि दाविलिया जैसा |
देखणा अतिशयो तैसा | भोगणा तिये ॥ ११३९ ॥
उटूनि=स्वच्छ करून
हे असो दर्पणु नेलिया | तो मुख बोधुही गेलिया |
देखलेंपण एकलेया | आस्वादिजे जेवीं ॥ ११४० ॥
चेइलिया स्वप्न नाशे | आपलें ऐक्यचि दिसे |
ते दुजेनवीण जैसें | भोगिजे का ॥ ११४१ ॥
तोचि जालिया, भोगु तयाचा | न घडे हा, भावो जयांचा |
तिहीं, बोलें केवीं बोलाचा | उच्चारु कीजे ॥ ११४२
॥
तोचि जालिया=(अश्या प्रकारे एकरूप होत)
बोलें केवीं बोलाचा=शब्दाने केवळ
शब्दांचा उच्चार
तयांच्या नेणों गांवीं | रवी प्रकाशी हन दिवी |
कीं व्योमालागीं मांडवी | उभिली तिहीं ॥ ११४३ ॥
हां गा राजन्यत्व नव्हतां आंगीं | रावो रायपण काय भोगी ? |
कां आंधारु हन आलिंगी | दिनकरातें ? ॥
११४४ ॥
राजन्यत्व=राजेपण
आणि आकाश जें नव्हे | तया आकाश काय जाणवे ? |
रत्नाच्या रूपीं मिरवे | गुंजांचें लेणें ? ॥
११४५ ॥
म्हणौनि मी होणें नाहीं | तया मीचि आहें केहीं |
मग भजेल हें कायी | बोलों कीर ॥ ११४६ ॥
यालागीं तो क्रमयोगी | मी जालाचि मातें भोगी |
तारुण्य कां तरुणांगीं | जियापरी ॥ ११४७ ॥
तरंग सर्वांगीं तोय चुंबी | प्रभा सर्वत्र विलसे बिंबीं |
नाना अवकाश नभीं | लुंठतु जैसा ॥ ११४८ ॥
लुंठतु=लोळणे
तैसा रूप होऊनि माझें | मातें क्रियावीण तो भजे |
अलंकारु का सहजें | सोनयातें जेवीं ॥ ११४९ ॥
का चंदनाची द्रुती जैसी | चंदनीं भजे अपैसी |
का अकृत्रिम शशीं | चंद्रिका ते ॥ ११५० ॥
द्रुती=सुगंध
तैसी क्रिया, कीर न साहे | तऱ्ही, अद्वैतीं भक्ति आहे |
हें अनुभवाचिजोगें नव्हे | बोला{ऐ}सें ॥ ११५१ ॥
(अद्वैत भक्ति खरोखर क्रिया न साहता स्वभावत: असते )
तेव्हां पूर्वसंस्कार छंदें | जें कांहीं तो अनुवादे |
तेणें आळविलेनि वो दें | बोलतां मीचि ॥ ११५२ ॥
अनुवादे=बोले
बोलतया बोलताचि भेटे | तेथें बोलिलें हें न घटे |
तें मौन तंव गोमटें | स्तवन माझें ॥ ११५३ ॥
म्हणौनि तया बोलतां | बोली बोलतां मी भेटतां |
मौन होय तेणें तत्वतां | स्तवितो मातें ॥ ११५४ ॥
तैसेंचि बुद्धी का दिठी | जें तो देखों जाय किरीटी |
तें देखणें दृश्य लोटी | देखतेंचि दावी ॥ ११५५ ॥
आरिसया आधीं जैसें | देखतेंचि मुख दिसेअ |
तयाचें देखणें तैसें | मेळवी द्रष्टें ॥ ११५६ ॥
दृश्य जाउनियां द्रष्टें | द्रष्टयासीचि जैं भेटे |
तैं एकलेपणें न घटे | द्रष्टेपणही ॥ ११५७ ॥
तेथ स्वप्नींचिया प्रिया | चेवोनि झोंबो गेलिया |
ठायिजे दोन्ही न होनियां | आपणचि जैसें ॥ ११५८ ॥
ठायिजे=थांबते
का दोहीं काष्ठाचिये घृष्टी\- | माजीं वन्हि एक उठी |
तो दोन्ही हे भाष आटी | आपणचि होय ॥ ११५९ ॥
नाना प्रतिबिंब हातीं | घेऊं गेलिया गभस्ती |
बिंबताही असती | जाय जैसी ॥ ११६० ॥
तैसा मी होऊनि देखतें | तो घेऊं जाय दृश्यातें |
तेथ दृश्य ने थितें | द्रष्टृत्वेंसीं ॥ ११६१ ॥
रवि आंधारु प्रकाशिता | नुरेचि जेवीं प्रकाश्यता |
तेंवीं दृश्यीं नाही द्रष्टृता | मी जालिया ॥ ११६२ ॥
मग देखिजे ना न देखिजे | ऐसी जे दशा निपजे |
ते तें दर्शन माझें | साचोकारें ॥ ११६३ ॥
तें भलतयाही किरीटी | पदार्थाचिया भेटी |
द्रष्टृदृश्यातीता दृष्टी | भोगितो सदा ॥ ११६४ ॥
आणि आकाश हें आकाशें | दाटलें न ढळें जैसें |
मियां आत्मेन आपणपें तैसें | जालें तया ॥ ११६५ ॥
कल्पांतीं उदक उदकें | रुंधिलिया वाहों ठाके |
तैसा आत्मेनि मियां येकें | कोंदला तो ॥ ११६६ ॥
रुंधिलिया=अडवणे
पावो आपणपयां वोळघे ? | केवीं वन्हि आपणपयां लागे ? |
आपणपां पाणी रिघे | स्नाना कैसें ? ॥
११६७ ॥
पावो=पाय आपणपयां वोळघे =स्वत: वर चढणे
म्हणौनि सर्व मी जालेपणें | ठेलें तया येणें जाणें |
तेंचि गा यात्रा करणें | अद्वया मज ॥ ११६८ ॥
पैं जळावरील तरंगु | जरी धाविन्नला सवेगु |
तरी नाहीं भूमिभागु | क्रमिला तेणें ॥ ११६९ ॥
जें सांडावें कां मांडावें | जें चालणें जेणें चालावें |
तें तोयचि एक आघवें | म्हणौनियां ॥ ११७० ॥
गेलियाही भलतेउता | उदकपणें पंडुसुता |
तरंगाची एकात्मता | न मोडेचि जेवीं ॥ ११७१ ॥
तैसा मीपणें हा लोटला | तो आघवेंयाचि मजआंतु आला |
या यात्रा होय भला | कापडी माझा ॥ ११७२ ॥
कापडी=यात्रेकरू
आणि शरीर स्वभाववशें | कांहीं येक करूं जरी बैसे |
तरी मीचि तो तेणें मिषें | भेटे तया ॥ ११७३ ॥
by dr. vikrant tikone
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