Monday, March 25, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या १२०५ ते १२४५






ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर                           

ओव्या १२०ते १२४५
मग द्वैताद्वैतातीत | मीचि आत्मा एकु निभ्रांत |
हें जाणोनि जाणणें जेथ | अनुभवीं रिघे ॥ १२०५ ॥

तेथ चेइलियां येकपण | दिसे जे आपुलया आपण |
तेंही जातां नेणों कोण | होईजे जेवीं ॥ १२०६ ॥

कां डोळां देखतिये क्षणीं | सुवर्णपण सुवर्णीं |
नाटितां होय आटणी | अळंकाराचीही ॥ १२०७ ॥

नाना लवण तोय होये | मग क्षारता तोयत्वें राहे |
तेही जिरतां जेवीं जाये | जालेपण तें ॥ १२०८ ॥

तैसा मी तो हें जें असे | तें स्वानंदानुभवसमरसें |
कालवूनिया प्रवेशे | मजचिमाजीं ॥ १२०९ ॥

आणि तो हे भाष जेथ जाये | तेथे मी हें कोण्हासी आहे |
ऐसा मी ना तो तिये सामाये | माझ्याचि रूपीं ॥ १२१० ॥

जेव्हां कापुर जळों सरे | तयाचि नाम अग्नि पुरी |
मग उभयतातीत उरे | आकाश जेवीं ॥ १२११ ॥

का धाडलिया एका एकु | वाढे तो शून्य विशेखु |
तैसा आहे नाहींचा शेखु | मीचि मग आथी ॥ १२१२ ॥

धाडलिया=वजा केल्यावर वाढे=उरते विशेखु=बाकी

शेखु =शेवट (महत्व)


तेथ ब्रह्मा आत्मा ईशु | यया बोला मोडे सौरसु |
न बोलणें याही पैसु | नाहीं तेथ ॥ १२१३ ॥

सौरसु =स्वारस्य  पैसु =आधार

न बोलणेंही न बोलोनी | तें बोलिजे तोंड भरुनी |
जाणिव नेणिव नेणोनी | जाणिजे तें ॥ १२१४ ॥

तेथ बुझिजे बोधु बोधें | आनंदु घेपे आनंदें |
सुखावरी नुसधें | सुखचि भोगिजे ॥ १२१५ ॥

तेथ लाभु जोडला लाभा | प्रभा आलिंगिली प्रभा |
विस्मयो बुडाला उभा | विस्मयामाजीं ॥ १२१६ ॥

शमु तेथ सामावला | विश्रामु विश्रांति आला |
अनुभवु वेडावला | अनुभूतिपणें ॥ १२१७ ॥

किंबहुना ऐसें निखळ | मीपण जोडे तया फळ |
सेवूनि वेली वेल्हाळ | क्रमयोगाची ते ॥ १२१८ ॥

वेल्हाळ=विस्तृत

पैं क्रमयोगिया किरीटी | चक्रवर्तीच्या मुकुटीं |
मी चिद्रत्न तें साटोवाटीं | होय तो माझा ॥ १२१९ ॥

साटोवाटीं =मोबदला

कीं क्रमयोगप्रासादाचा | कळसु जो हा मोक्षाचा |
तयावरील अवकाशाचा | उवावो जाला तो ॥ १२२० ॥

उवावो =विस्तार

नाना संसार आडवीं | क्रमयोग वाट बरवी |
जोडिली ते मदैक्यगांवीं | पैठी जालीसे ॥ १२२१ ॥

आडवीं=आरण्य

हें असो क्रमयोगबोधें | तेणें भक्तिचिद्गांगें |
मी स्वानंदोदधी वेगें | ठाकिला कीं गा ॥ १२२२ ॥

भक्तिचिद्गांगें =भक्ति ज्ञान रूपी गंगा स्वानंदोदधी=स्वानंद समुद्र

हा ठायवरी सुवर्मा | क्रमयोगीं आहे महिमा |
म्हणौनि वेळोवेळां तुम्हां | सांगतों आम्ही ॥ १२२३ ॥

ठायवरी=योग्यता

पैं देशें काळें पदार्थें | साधूनि घेइजे मातें |
तैसा नव्हे मी आयतें | सर्वांचें सर्वही ॥ १२२४ ॥

म्हणौनि माझ्या ठायीं | जाचावें न लगे कांहीं |
मी लाभें इयें उपायीं | साचचि गा ॥ १२२५ ॥

जाचावें=कष्ट करणे

एक शिष्य एक गुरु | हा रूढला साच व्यवहारु |
तो मत्प्राप्तिप्रकारु | जाणावया ॥ १२२६ ॥

अगा वसुधेच्या पोटीं | निधान सिद्ध किरीटी |
वन्हि सिद्ध काष्ठीं | वोहां दूध ॥ १२२७ ॥

वोहां=कासेला

परी लाभे तें असतें | तया कीजे उपायातें |
येर सिद्धचि तैसा तेथें | उपायीं मी ॥ १२२८ ॥


हा फळहीवरी उपावो | कां पां प्रस्तावीतसे देवो |

हे पुसतां परी अभिप्रावो | येथिंचा ऐसा ॥ १२२९ ॥

फळहीवरी=आता पर्यंतचा फळ प्राप्तीचा

जे गीतार्थाचें चांगावें | मोक्षोपायपर आघवें |
आन शास्त्रोपाय कीं नव्हे | प्रमाणसिद्ध ॥ १२३० ॥

चांगलेपण इतर शास्त्रांनी संगितले म्हणून नव्हे तर..

वारा आभाळचि फेडी | वांचूनि सूर्यातें न घडी |
कां हातु बाबुळी धाडी | तोय न करी ॥ १२३१ ॥

आभाळचि=ढग    घडी=घडवी   बाबुळी=शेवाळ

तैसा आत्मदर्शनीं आडळु | असे अविद्येचा जो मळु |
तो शास्त्र नाशी येरु निर्मळु | मी प्रकाशें स्वयें ॥ १२३२ ॥

म्हणौनि आघवींचि शास्त्रें | अविद्याविनाशाचीं पात्रें |
वांचोनि न होतीं स्वतंत्रें | आत्मबोधीं ॥ १२३३ ॥

तया अध्यात्मशास्त्रांसीं | जैं साचपणाची ये पुसी |
तैं येइजे जया ठायासी | ते हे गीता ॥ १२३४ ॥

पुसी=विचारणा

भानुभूषिता प्राचिया | सतेजा दिशा आघविया |
तैसी शास्त्रेश्वरा गीता या | सनाथें शास्त्रें ॥ १२३५ ॥

प्राचिया=पूर्व दिशा

हें असो येणें शास्त्रेश्वरें | मागां उपाय बहुवे विस्तारें |
सांगितला जैसा करें | घेवों ये आत्मा ॥ १२३६ ॥

परी प्रथमश्रवणासवें | अर्जुना विपायें हें फावे |
हा भावो सकणवे | धरूनि श्रीहरी ॥ १२३७ ॥

विपायें हें फावे =कदाचित न कळणे

तेंचि प्रमेय एक वेळ | शिष्यीं होआवया अढळ |
सांगतसे मुकुल | मुद्रा आतां ॥ १२३८ ॥

मुकुल | मुद्रा=थोडक्यात मर्म

आणि प्रसंगें गीता | ठावोही हा संपता |
म्हणौनि दावी आद्यंता | एकार्थत्व ॥ १२३९ ॥

एकार्थत्व=सार

जे ग्रंथाच्या मध्यभागीं | नाना अधिकारप्रसंगीं |
निरूपण अनेगीं | सिद्धांतीं केलें ॥ १२४० ॥

तरी तेतुलेही सिद्धांत | इयें शास्त्रीं प्रस्तुत |
हे पूर्वापर नेणत | कोण्ही जैं मानी ॥ १२४१ ॥

पूर्वापर =मागचे पुढचे

तैं महासिद्धांताचा आवांका | सिद्धांतकक्षा अनेका |
भिडऊनि आरंभु देखा | संपवीतु असे ॥ १२४२ ॥

आवांका =अंतर्भूत सिद्धांतकक्षा=सिद्धांत मर्यादा  

भिडऊनि आरंभु =आरंभी सांगितलेला पुन्हा स्पर्शून


एथ अविद्यानाशु हें स्थळ | तेणें मोक्षोपादान फळ |
या दोहीं केवळ | साधन ज्ञान ॥ १२४३ ॥

हें इतुलेंचि नानापरी | निरूपिलें ग्रंथविस्तारीं |
तें आतां दोहीं अक्षरीं | अनुवादावें ॥ १२४४ ॥

दोहीं अक्षरीं=थोडक्यात

म्हणौनि उपेयही हातीं | जालया उपायस्थिती |
देव प्रवर्तले तें पुढती | येणेंचि भावें ॥ १२४५ ॥

उपेयही=साध्य    उपायस्थिती=साधन स्वरूप

by dr. vikrant tikone

 


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