ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १२०५
ते १२४५
मग द्वैताद्वैतातीत | मीचि आत्मा एकु निभ्रांत |
हें जाणोनि जाणणें जेथ | अनुभवीं रिघे ॥ १२०५ ॥
तेथ चेइलियां येकपण | दिसे जे आपुलया आपण |
तेंही जातां नेणों कोण | होईजे जेवीं ॥ १२०६ ॥
कां डोळां देखतिये क्षणीं | सुवर्णपण सुवर्णीं |
नाटितां होय आटणी | अळंकाराचीही ॥ १२०७ ॥
नाना लवण तोय होये | मग क्षारता तोयत्वें राहे |
तेही जिरतां जेवीं जाये | जालेपण तें ॥ १२०८ ॥
तैसा मी तो हें जें असे | तें स्वानंदानुभवसमरसें |
कालवूनिया प्रवेशे | मजचिमाजीं ॥ १२०९ ॥
आणि तो हे भाष जेथ जाये | तेथे मी हें कोण्हासी आहे |
ऐसा मी ना तो तिये सामाये | माझ्याचि रूपीं ॥ १२१० ॥
जेव्हां कापुर जळों सरे | तयाचि नाम अग्नि पुरी |
मग उभयतातीत उरे | आकाश जेवीं ॥ १२११ ॥
का धाडलिया एका एकु | वाढे तो शून्य विशेखु |
तैसा आहे नाहींचा शेखु | मीचि मग आथी ॥ १२१२ ॥
धाडलिया=वजा केल्यावर
वाढे=उरते
विशेखु=बाकी
शेखु =शेवट (महत्व)
तेथ ब्रह्मा आत्मा ईशु | यया बोला मोडे सौरसु |
न बोलणें याही पैसु | नाहीं तेथ ॥ १२१३ ॥
सौरसु =स्वारस्य पैसु =आधार
न बोलणेंही न बोलोनी | तें बोलिजे तोंड भरुनी |
जाणिव नेणिव नेणोनी | जाणिजे तें ॥ १२१४ ॥
तेथ बुझिजे बोधु बोधें | आनंदु घेपे आनंदें |
सुखावरी नुसधें | सुखचि भोगिजे ॥ १२१५ ॥
तेथ लाभु जोडला लाभा | प्रभा आलिंगिली प्रभा |
विस्मयो बुडाला उभा | विस्मयामाजीं ॥ १२१६ ॥
शमु तेथ सामावला | विश्रामु विश्रांति आला |
अनुभवु वेडावला | अनुभूतिपणें ॥ १२१७ ॥
किंबहुना ऐसें निखळ | मीपण जोडे तया फळ |
सेवूनि वेली वेल्हाळ | क्रमयोगाची ते ॥ १२१८ ॥
वेल्हाळ=विस्तृत
पैं क्रमयोगिया किरीटी | चक्रवर्तीच्या मुकुटीं |
मी चिद्रत्न तें साटोवाटीं | होय तो माझा ॥ १२१९ ॥
साटोवाटीं =मोबदला
कीं क्रमयोगप्रासादाचा | कळसु जो हा मोक्षाचा |
तयावरील अवकाशाचा | उवावो जाला तो ॥ १२२० ॥
उवावो =विस्तार
नाना संसार आडवीं | क्रमयोग वाट बरवी |
जोडिली ते मदैक्यगांवीं | पैठी जालीसे ॥ १२२१ ॥
आडवीं=आरण्य
हें असो क्रमयोगबोधें | तेणें भक्तिचिद्गांगें |
मी स्वानंदोदधी वेगें | ठाकिला कीं गा ॥ १२२२ ॥
भक्तिचिद्गांगें =भक्ति ज्ञान रूपी गंगा स्वानंदोदधी=स्वानंद समुद्र
हा ठायवरी सुवर्मा | क्रमयोगीं आहे महिमा |
म्हणौनि वेळोवेळां तुम्हां | सांगतों आम्ही ॥ १२२३ ॥
ठायवरी=योग्यता
पैं देशें काळें पदार्थें | साधूनि घेइजे मातें |
तैसा नव्हे मी आयतें | सर्वांचें सर्वही ॥ १२२४ ॥
म्हणौनि माझ्या ठायीं | जाचावें न लगे कांहीं |
मी लाभें इयें उपायीं | साचचि गा ॥ १२२५ ॥
जाचावें=कष्ट करणे
एक शिष्य एक गुरु | हा रूढला साच व्यवहारु |
तो मत्प्राप्तिप्रकारु | जाणावया ॥ १२२६ ॥
अगा वसुधेच्या पोटीं | निधान सिद्ध किरीटी |
वन्हि सिद्ध काष्ठीं | वोहां दूध ॥ १२२७ ॥
वोहां=कासेला
परी लाभे तें असतें | तया कीजे उपायातें |
येर सिद्धचि तैसा तेथें | उपायीं मी ॥ १२२८ ॥
हा फळहीवरी उपावो | कां पां प्रस्तावीतसे देवो |
हे
पुसतां परी अभिप्रावो |
येथिंचा ऐसा ॥ १२२९ ॥
फळहीवरी=आता
पर्यंतचा फळ प्राप्तीचा
जे गीतार्थाचें चांगावें | मोक्षोपायपर आघवें |
आन शास्त्रोपाय कीं नव्हे | प्रमाणसिद्ध ॥ १२३० ॥
चांगलेपण इतर शास्त्रांनी संगितले म्हणून नव्हे तर..
वारा आभाळचि फेडी | वांचूनि सूर्यातें न घडी |
कां हातु बाबुळी धाडी | तोय न करी ॥ १२३१ ॥
आभाळचि=ढग घडी=घडवी बाबुळी=शेवाळ
तैसा आत्मदर्शनीं आडळु | असे अविद्येचा जो मळु |
तो शास्त्र नाशी येरु निर्मळु | मी प्रकाशें स्वयें ॥ १२३२ ॥
म्हणौनि आघवींचि शास्त्रें | अविद्याविनाशाचीं पात्रें |
वांचोनि न होतीं स्वतंत्रें | आत्मबोधीं ॥ १२३३ ॥
तया अध्यात्मशास्त्रांसीं | जैं साचपणाची ये पुसी |
तैं येइजे जया ठायासी | ते हे गीता ॥ १२३४ ॥
पुसी=विचारणा
भानुभूषिता प्राचिया | सतेजा दिशा आघविया |
तैसी शास्त्रेश्वरा गीता या | सनाथें शास्त्रें ॥ १२३५ ॥
प्राचिया=पूर्व दिशा
हें असो येणें शास्त्रेश्वरें | मागां उपाय बहुवे विस्तारें |
सांगितला जैसा करें | घेवों ये आत्मा ॥ १२३६ ॥
परी प्रथमश्रवणासवें | अर्जुना विपायें हें फावे |
हा भावो सकणवे | धरूनि श्रीहरी ॥ १२३७ ॥
विपायें हें फावे =कदाचित न कळणे
तेंचि प्रमेय एक वेळ | शिष्यीं होआवया अढळ |
सांगतसे मुकुल | मुद्रा आतां ॥ १२३८ ॥
मुकुल | मुद्रा=थोडक्यात मर्म
आणि प्रसंगें गीता | ठावोही हा संपता |
म्हणौनि दावी आद्यंता | एकार्थत्व ॥ १२३९ ॥
एकार्थत्व=सार
जे ग्रंथाच्या मध्यभागीं | नाना अधिकारप्रसंगीं |
निरूपण अनेगीं | सिद्धांतीं केलें ॥ १२४० ॥
तरी तेतुलेही सिद्धांत | इयें शास्त्रीं प्रस्तुत |
हे पूर्वापर नेणत | कोण्ही जैं मानी ॥ १२४१ ॥
पूर्वापर =मागचे पुढचे
तैं महासिद्धांताचा आवांका | सिद्धांतकक्षा अनेका |
भिडऊनि आरंभु देखा | संपवीतु असे ॥ १२४२ ॥
आवांका =अंतर्भूत सिद्धांतकक्षा=सिद्धांत मर्यादा
भिडऊनि आरंभु =आरंभी
सांगितलेला पुन्हा स्पर्शून
एथ अविद्यानाशु हें स्थळ | तेणें मोक्षोपादान फळ |
या दोहीं केवळ | साधन ज्ञान ॥ १२४३ ॥
हें इतुलेंचि नानापरी | निरूपिलें ग्रंथविस्तारीं |
तें आतां दोहीं अक्षरीं | अनुवादावें ॥ १२४४ ॥
दोहीं अक्षरीं=थोडक्यात
म्हणौनि उपेयही हातीं | जालया उपायस्थिती |
देव प्रवर्तले तें पुढती | येणेंचि भावें ॥ १२४५ ॥
उपेयही=साध्य उपायस्थिती=साधन स्वरूप
by dr. vikrant tikone
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