ज्ञानेश्वरी
/ अध्याय अठरावा /
संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ११७४ ते १२०४
तेथ कर्म आणि कर्ता | हें जाऊनि पंडुसुता |
मियां आत्मेनि मज पाहतां | मीचि होय ॥ ११७४ ॥
पैं दर्पणातें दर्पणें | पाहिलिया होय न पाहणें |
सोनें झांकिलिया सुवर्णें | ना झांकें जेवीं ॥ ११७५ ॥
दीपातें दीपें प्रकाशिजे | तें न प्रकाशणेंचि निपजे |
तैसें कर्म मियां कीजे | तें करणें कैंचें ? ॥
११७६ ॥
कर्मही करितचि आहे | जैं करावें हें भाष जाये |
तैं न करणेंचि होये | तयाचें केलें ॥ ११७७ ॥
क्रियाजात मी जालेपणें | घडे कांहींचि न करणें |
तयाचि नांव पूजणें | खुणेचें माझें ॥ ११७८ ॥
म्हणौनि करीतयाही वोजा | तें न करणें हेंचि कपिध्वजा |
निफजे तिया महापूजा | पूजी तो मातें ॥ ११७९ ॥
वोजा=योग्यता
एवं तो बोले तें स्तवन | तो देखे तें दर्शन |
अद्वया मज गमन | तो चाले तेंचि ॥ ११८० ॥
तो करी तेतुली पूजा | तो कल्पी तो जपु माझा |
तो असे तेचि कपिध्वजा | समाधी माझी ॥ ११८१ ॥
जैसें कनकेंसी कांकणें | असिजे अनन्यपणें |
तो भक्तियोगें येणें | मजसीं तैसा ॥ ११८२ ॥
उदकीं कल्लोळु | कापुरीं परीमळु |
रत्नीं उजाळु | अनन्यु जैसा ॥ ११८३ ॥
किंबहुना तंतूंसीं पटु | कां मृत्तिकेसीं घटु |
तैसा तो एकवटु | मजसीं माझा ॥ ११८४ ॥
इया अनन्यसिद्धा भक्ती | या आघवाचि दृश्यजातीं |
मज आपणपेंया सुमती | द्रष्टयातें जाण ॥ ११८५ ॥
दृश्यजातीं=दृश्य जगत
तिन्ही अवस्थांचेनि द्वारें | उपाध्युपहिताकारें |
भावाभावरूप स्फुरे | दृश्य जें हें ॥ ११८६ ॥
तिन्ही=सृजन पालन
नाश
उपाध्युपहिताकारें=उपाधीतील झाकलेले (प्रपंच )
तें हें आघवेंचि मी द्रष्टा | ऐसिया बोधाचा माजिवटा |
अनुभवाचा सुभटा | धेंडा तो नाचे ॥ ११८७ ॥
माजिवटा=धुंद झाला
धेंडा=वधू वराला
नाचवणारा
रज्जु जालिया गोचरु | आभासतां तो व्याळाकारु |
रज्जुचि ऐसा निर्धारु | होय जेवीं ॥ ११८८ ॥
भांगारापरतें कांहीं | लेणें गुंजहीभरी नाहीं |
हें आटुनियां ठायीं | कीजे जैसे ॥ ११८९ ॥
उदका येकापरतें | तरंग नाहींचि हें निरुतें |
जाणोनि तया आकारातें | न घेपे जेवीं ॥ ११९० ॥
नातरी स्वप्नविकारां समस्तां | चेऊनियां उमाणें घेतां |
तो आपणयापरौता | न दिसे जैसा ॥ ११९१ ॥
उमाणें=मोजणे, निर्णय घेणे
तैसें जें कांहीं आथी नाथी | येणें होय ज्ञेयस्फुर्ती |
तें ज्ञाताचि मी हें प्रतीती | होऊनि भोगी ॥ ११९२ ॥
ज्ञेयस्फुर्ती=ज्ञेय असे
जाणणे
जाणे अजु मी अजरु | अक्षयो मी अक्षरु |
अपूर्वु मी अपारु | आनंदु मी ॥ ११९३ ॥
अचळु मी अच्युतु | अनंतु मी अद्वैतु |
आद्यु मी अव्यक्तु | व्यक्तुही मी ॥ ११९४ ॥
ईश्य मी ईश्वरु | अनादि मी अमरु |
अभय मी आधारु | आधेय मी ॥ ११९५ ॥
आधेय =आधारविण
स्वामी मी सदोदितु | सहजु मी सततु |
सर्व मी सर्वगतु | सर्वातीतु मी ॥ ११९६ ॥
नवा मी पुराणु | शून्यु मी संपूर्णु |
स्थुलु मी अणु | जें कांहीं तें मी ॥ ११९७ ॥
अक्रियु मी येकु | असंगु मी अशोकु |
व्यापु मी व्यापकु | पुरुषोत्तमु मी ॥ ११९८ ॥
अशब्दु मी अश्रोत्रु | अरूपु मी अगोत्रु |
समु मी स्वतंत्रु | ब्रह्म मी परु ॥ ११९९ ॥
ऐसें आत्मत्वें मज एकातें | इया अद्वयभक्ती जाणोनि निरुतें |
आणि याही बोधा जाणतें | तेंही मीचि जाणें ॥ १२०० ॥
पैं चेइलेयानंतरें | आपुलें एकपण उरे |
तेंही तोंवरी स्फुरे | तयाशींचि जैसें ॥ १२०१ ॥
स्फुरे =कळणे ज्याचे त्यालाच
कां प्रकाशतां अर्कु | तोचि होय प्रकाशकु |
तयाही अभेदा द्योतकु | तोचि जैसा ॥ १२०२ ॥
द्योतकु =भेदातीत दर्शक
तैसा वेद्यांच्या विलयीं | केवळ वीदकु उरे पाहीं |
तेणें जाणवें तया तेंही | हेंही जो जाणे ॥ १२०३ ॥
वेद्यांच्या=जाणायचे ते वीदकु=जाणणारा
तया अद्वयपणा आपुलिया | जाणती ज्ञप्ती जे धनंजया |
ते ईश्वरचि मी हे तया | बोधासि ये ॥ १२०४ ॥
ज्ञप्ती =ज्ञान
by dr. vikrant tikone
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