Sunday, March 10, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या १०९१ ते११२९





ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या १०९१ ते११२९

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ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काण्‌क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥ ५४॥
(ब्रह्म झाला प्रसन्न आत्मा न शोक करतो न आकांक्षा
सम पाहे सर्व भुता माझी परम भक्ति लाभता )

ते ब्रह्मभावयोग्यता | पुरुषु तो मग पंडुसुता |
आत्मबोधप्रसन्नता\- | पदीं बैसे ॥ १०९१ ॥

जेणें निपजे रससोय | तो तापुही जैं जाय |
तैं ते कां होय | प्रसन्न जैसी ॥ १०९२ ॥

नाना भरतिया लगबगा | शरत्काळीं सांडिजे गंगा |
कां गीत रहातां उपांगा | वोहटु पडे ॥ १०९३ ॥

उपांगा=इतर साथ देणारी वाद्य वगैरे

तैसा आत्मबोधीं उद्यमु | करितां होय जो श्रमु |
तोही जेथें समु | होऊनि जाय ॥ १०९४ ॥

आत्मबोधप्रशस्ती | हे तिये दशेची ख्याती |
ते भोगितसे महामती | योग्यु तो गा ॥ १०९५ ॥

आत्मबोध प्रशस्ती=प्रसन्नता

तेव्हां आत्मत्वें शोचावें | कांहीं पावावया कामावें |
हें सरलें समभावें | भरितें तया ॥ १०९६ ॥

उदया येतां गभस्ती | नाना नक्षत्रव्यक्ती |
हारवीजती दीप्ती | आंगिका जेवीं ॥ १०९७ ॥
आंगिका=अंगाने स्वतेजाणे


तेवीं उठतिया आत्मप्रथा | हे भूतभेदव्यवस्था |
मोडीत मोडीत पार्था | वास पाहे तो ॥ १०९८ ॥

आत्मप्रथा =आत्मनुभव  वास=अनुभवणे पाहणे

पाटियेवरील अक्षरें | जैसीं पुसतां येती करें |
तैसीं हारपती भेदांतरें | तयाचिये दृष्टी ॥ १०९९ ॥

तैसेनि अन्यथा ज्ञानें | जियें घेपती जागरस्वप्नें |
तियें दोन्ही केलीं लीनें | अव्यक्तामाजीं ॥ ११०० ॥

मग तेंही अव्यक्त | बोध वाढतां झिजत |
पुरलां बोधीं समस्त | बुडोनि जाय ॥ ११०१ ॥

जैसी भोजनाच्या व्यापारीं | क्षुधा जिरत जाय अवधारीं |
मग तृप्तीच्या अवसरीं | नाहींच होय ॥ ११०२ ॥

नाना चालीचिया वाढी | वाट होत जाय थोडी |
मग पातला ठायीं बुडी | देऊनि निमे ॥ ११०३ ॥

कां जागृति जंव जंव उद्दीपे | तंव तंव निद्रा हारपे |
मग जागीनलिया स्वरूपें | नाहींच होय ॥ ११०४ ॥

हें ना आपुलें पूर्णत्व भेटें | जेथ चंद्रासीं वाढी खुंटे |
तेथ शुक्लपक्षु आटे | निःशेषु जैसा ॥ ११०५ ॥

तैसा बोध्यजात गिळितु | बोधु बोधें ये मज आंतु |
मिसळला तेथ साद्यंतु | अबोधु गेला ॥ ११०६ ॥

तेव्हां कल्पांताचिये वेळे | नदी सिंधूचें पेंडवळें |
मोडूनि भरलें जळें | आब्रह्म जैसें ॥ ११०७ ॥

पेंडवळें =भिन्नता

नाना गेलिया घट मठ | आकाश ठाके एकवट |
कां जळोनि काष्ठें काष्ठ | वन्हीचि होय ॥ ११०८ ॥

नातरी लेणियांचे ठसे | आटोनि गेलिया मुसे |
नामरूप भेदें जैसें | सांडिजे सोनें ॥ ११०९ ॥

हेंही असो चेइलया | तें स्वप्न नाहीं जालया |
मग आपणचि आपणयां | उरिजे जैसें ॥ १११० ॥

तैसी मी एकवांचूनि कांहीं | तया तयाहीसकट नाहीं |
हे चौथी भक्ति पाहीं | माझी तो लाहे ॥ ११११ ॥

येर आर्तु जिज्ञासु अर्थार्थी | हे भजती जिये पंथीं |
ते तिन्ही पावोनी चौथी | म्हणिपत आहे ॥ १११२ ॥

सरूपता

येऱ्हवीं तिजी ना चौथी | हे पहिली ना सरती |
पैं माझिये सहजस्थिती | भक्ति नाम ॥ १११३ ॥
 
जें नेणणें माझें प्रकाशूनि | अन्यथात्वें मातें दाऊनि |
सर्वही सर्वीं भजौनि | बुझावीतसे जे ॥ १११४ ॥
नेणणें=अनाकलियत्व
अन्यथात्वें=विपरीत भाव   भजौनि=भक्ति करावयास लावी
बुझावीतसे=समजूत घालणे

जो जेथ जैसें पाहों बैसे | तया तेथ तैसेंचि असे |
हें उजियेडें कां दिसे | अखंडें जेणें ॥ १११५ ॥

स्वप्नाचें दिसणें न दिसणें | जैसें आपलेनि असलेपणें |
विश्वाचें आहे नाहीं जेणें | प्रकाशें तैसें ॥ १११६ ॥

ऐसा हा सहज माझा | प्रकाशु जो कपिध्वजा |
तो भक्ति या वोजा | बोलिजे गा ॥ १११७ ॥

वोजा=योग्यता

म्हणौनि आर्ताच्या ठायीं | हे आर्ति होऊनि पाहीं |
अपेक्षणीय जें कांहीं | तें मीचि केला ॥ १११८ ॥

जिज्ञासुपुढां वीरेशा | हेचि होऊनि जिज्ञासा |
मी कां जिज्ञास्यु ऐसा | दाखविला ॥ १११९ ॥

हेंचि होऊनि अर्थना | मीचि माझ्या अर्थीं अर्जुना |
करूनि अर्थाभिधाना | आणी मातें ॥ ११२० ॥

अर्थना=उद्देश अर्थाभिधाना=अर्थ नावाला

एवं घेऊनि अज्ञानातें | माझी भक्ति जे हे वर्ते |
ते दावी मज द्रष्टयातें | दृश्य करूनि ॥ ११२१ ॥

येथें मुखचि दिसे मुखें | या बोला कांहीं न चुके |
तरी दुजेपण हें लटिकें | आरिसा करी ॥ ११२२ ॥

दिठी चंद्रचि घे साचें | परी येतुलें हें तिमिराचें |
जे एकचि असे तयाचे | दोनी दावी ॥ ११२३ ॥

तिमिराचें =तिमिर रोग  

तैसा सर्वत्र मीचि मियां | घेपतसें भक्ति इया |
परी दृश्यत्व हें वायां | अज्ञानवशें ॥ ११२४ ॥
 
तें अज्ञान आतां फिटलें | माझें दृष्टृत्व मज भेटलें |
निजबिंबीं एकवटलें | प्रतिबिंब जैसें ॥ ११२५ ॥

पैं जेव्हांही असे किडाळ | तेव्हांही सोनेंचि अढळ |
परी तें कीड गेलिया केवळ | उरे जैसें ॥ ११२६ ॥

हां गा पूर्णिमे आधीं कायी | चंद्रु सावयवु नाहीं ? |
परी तिये दिवशीं भेटे पाहीं | पूर्णता तया ॥ ११२७ ॥

तैसा मीचि ज्ञानद्वारें | दिसें परी हस्तांतरें |
मग दृष्टृत्व तें सरे | मियांचि मी लाभें ॥ ११२८ ॥

हस्तांतरें=इतर मदतीने

म्हणौनि दृश्यपथा- | अतीतु माझा पार्था |
भक्तियोगु चवथा | म्हणितला गा ॥ ११२९ ॥

by dr. vikrant tikone


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