ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १०५० ते १०९० साधना चालू
अहंकारं बलं दर्पं कामं
क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो
ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५३॥
(अहंकार बल दर्प काम क्रोध परिग्रह यांना
सोडून ममतेरहित शांत झालेला ब्रह्म मिळवतो )
तेथ आडवावया आले | दोषवैरी जे धोपटिले |
तयांमाजीं पहिलें | देहाहंकारु ॥ १०५० ॥
जो न मोकली मारुनी | जीवों नेदी उपजवोनि |
विचंबवी खोडां घालुनी | हाडांचिया ॥ १०५१ ॥
मोकली मारुनी =जो जीव घेवून सोडत नाही (मोकळा न सोडून)
उपजवोनि=जन्म
घेवून जगून न देणे पुन्हा
जन्मा घालणे
विचंबवी = कुजवणे
तयाचा देहदुर्ग हा थारा | मोडूनि घेतला तो वीरा |
आणि बळ हा दुसरा | मारिला वैरी ॥ १०५२ ॥
बळ =कामादी रागाचे सामर्थ्य
जो विषयाचेनि नांवें | चौगुणेंही वरी थांवे |
जेणें मृतावस्था धांवे | सर्वत्र जगा ॥ १०५३ ॥
चौगुणेंही वरी थांवे =चौपट वाढतो
मृतावस्था=मरण धावून
येते
तो विषय विषाचा अथावो | आघविया दोषांचा रावो |
परी ध्यानखड्गाचा घावो | साहेल कैंचा ? ॥
१०५४ ॥
अथावो=डोह
आणि प्रिय विषयप्राप्ती | करी जया सुखाची व्यक्ती |
तेचि घालूनि बुंथी | आंगीं जो वाजे ॥ १०५५ ॥
बुंथी=खोळ बुरखा
जो सन्मार्गा भुलवी | मग अधर्माच्या आडवीं |
सूनि वाघां सांपडवी | नरकादिकां ॥ १०५६ ॥
आडवीं=जंगलात सूनि=आणून
तो विश्वासें मारितां रिपु | निवटूनि घातला दर्पु |
आणि जयाचा अहा कंपु | तापसांसी ॥ १०५७ ॥
निवटूनि
=आत कोंडून दाबून
क्रोधा ऐसा महादोखु | जयाचा देखा परिपाकु |
भरिजे तंव अधिकु | रिता
होय जो ॥ १०५८ ॥
तो कामु कोणेच ठायीं | नसे ऐसें केलें पाहीं |
कीं तेंचि क्रोधाही | सहजें आलें ॥ १०५९ ॥
मुळाचें तोडणें जैसें | होय कां शाखोद्देशें |
कामु नाशलेनि नाशे | तैसा क्रोधु ॥ १०६० ॥
म्हणौनि काम वैरी | जाला जेथ ठाणोरी |
तेथ सरली वारी | क्रोधाचीही ॥ १०६१ ॥
ठाणोरी =युद्धात कामा आलेला
आणि समर्थु आपुला खोडा | शिसें वाहवी जैसा होडा |
तैसा भुंजौनि जो गाढा | परीग्रहो ॥ १०६२ ॥
राजा ज्याच्या पायात खोडा अडकावयच्या
आहेत त्यालाच डोक्यावर वाहायला लावतो
तसा भोग घेवून परिग्रह हा बलवान होई
जो माथांचि पालाणवी | अंगा अवगुण घालवी |
जीवें दांडी घेववी | ममत्वाची ॥ १०६३ ॥
पालाणवी=खोगीर
दांडी =ध्वज
शिष्यशास्त्रादिविलासें | मठादिमुद्रेचेनि मिसें |
घातले आहाती फांसे | निःसंगा जेणें ॥ १०६४ ॥
घरीं कुटुंबपणें सरे | तरी वनीं वन्य होऊनि अवतरे |
नागवीयाही शरीरें | लागला आहे ॥ १०६५ ॥
ऐसा दुर्जयो जो परीग्रहो | तयाचा फेडूनि ठावो |
भवविजयाचा उत्साहो | भोगीतसे जो ॥ १०६६ ॥
तेथ अमानित्वादि आघवे | ज्ञानगुणाचे जे मेळावे |
ते कैवल्यदेशींचे आघवे | रावो जैसे आले ॥ १०६७ ॥
तेव्हां सम्यक्ज्ञानाचिया | राणिवा उगाणूनि तया |
परिवारु होऊनियां | राहत आंगें ॥ १०६८ ॥
उगाणूनि =अर्पण करून
प्रवृत्तीचिये राजबिदीं | अवस्थाभेदप्रमदीं |
कीजत आहे प्रतिपदीं | सुखाचें लोण ॥ १०६९ ॥
राजबिदीं =राजमार्ग
अवस्थाभेद=उत्पती स्थिति लय ,.जागृती
स्वप्न सुषुप्ति
प्रमदीं =स्त्रिया लोण=वोवळून घेणे
पुढां बोधाचिये कांबीवरी | विवेकु दृश्याची मांदी सारी |
योगभूमिका आरती करी | येती जैसिया ॥ १०७० ॥
कांबीवरी =बोधाच्या काठीने मांदी=गर्दी
तेथ ऋद्धिसिद्धींचीं अनेगें | वृंदें मिळती प्रसंगें |
तिये पुष्पवर्षीं आंगें | नाहातसे तो ॥ १०७१ ॥
ऐसेनि ब्रह्मैक्यासारिखें | स्वराज्य येतां जवळिकें |
झळंबित आहे हरिखें | तिन्ही लोक ॥ १०७२ ॥
झळंबित=ओसंडून वाहणे
तेव्हां वैरियां कां मैत्रियां | तयासि माझें म्हणावया |
समानता धनंजया | उरेचिही ना ॥ १०७३ ॥
समानता=सम असल्याने
हें ना भलतेणें व्याजें | तो जयातें म्हणे माझें |
तें नोडवेचि कां दुजें | अद्वितीय जाला ॥ १०७४ ॥
पैं आपुलिया एकी सत्ता | सर्वही कवळूनिया पंडुसुता |
कहीं न लगती ममता | धाडिली तेणें ॥ १०७५ ॥
ऐसा जिंतिलिया रिपुवर्गु | अपमानिलिया हें जगु |
अपैसा योगतुरंगु | स्थिर जाला ॥ १०७६ ॥
अपमानिलिया =संसार लोभ सोडता
तुरंगु=घोडा
वैराग्याचें गाढलें | अंगी त्राण होतें भलें |
तेंही नावेक ढिलें | तेव्हां करी ॥ १०७७ ॥
गाढलें =घट्ट त्राण =चिलखत
आणि निवटी ध्यानाचें खांडें | तें दुजें नाहींचि पुढें |
म्हणौनि हातु आसुडें | वृत्तीचाही ॥ १०७८ ॥
निवटी=नष्ट करणे
खांडें =शस्त्र खड्ग आसुडें=हिसका बसने थांबणे
जैसें रसौषध खरें | आपुलें काज करोनि पुरें |
आपणही नुरे | तैसें होतसे ॥ १०७९ ॥
देखोनि ठाकिता ठावो | धांवता थिरावे पावो |
तैसा ब्रह्मसामीप्यें थावो | अभ्यासु सांडी ॥ १०८० ॥
ठाकिता
ठावो=मुक्कामची जागा
घडतां महोदधीसी | गंगा वेगु सांडी जैसी |
कां कामिनी कांतापासीं | स्थिर होय ॥ १०८१ ॥
नाना फळतिये वेळे | केळीची वाढी मांटुळे |
कां गांवापुढें वळे | मार्गु जैसा ॥ १०८२ ॥
मांटुळे =थांबते संपते वळे=वळणे सरणे
तैसा आत्मसाक्षात्कारु | होईल देखोनि गोचरु |
ऐसा साधन हतियेरु | हळुचि ठेवी ॥ १०८३ ॥
म्हणौनि ब्रह्मेंसी तया | ऐक्याचा समो धनंजया |
होतसे तैं उपाया | वोहटु पडे ॥ १०८४ ॥
मग वैराग्याची गोंधळुक | जे ज्ञानाभ्यासाचें वार्धक्य |
योगफळाचाही परिपाक | दशा जे कां ॥ १०८५ ॥
गोंधळुक =पूर्ण वैराग्य
ते शांति पैं गा सुभगा | संपूर्ण ये तयाचिया आंगा |
तैं ब्रह्म होआवया जोगा | होय तो पुरुषु ॥ १०८६ ॥
पुनवेहुनी चतुर्दशी | जेतुलें उणेपण शशी |
कां सोळे पाऊनि जैसी | पंधरावी वानी ॥ १०८७ ॥
सागरींही पाणी वेगें | संचरे तें रूप गंगे |
येर निश्चळ जें उगें | तें समुद्रु जैसा ॥ १०८८ ॥
ब्रह्मा आणि ब्रह्महोतिये | योग्यते तैसा पाडु आहे |
तेंचि शांतीचेनि लवलाहें | होय तो गा ॥ १०८९ ॥
पाडु =फरक लवलाहें=लगेचच
पैं तेंचि होणेंनवीण | प्रतीती आलें जें ब्रह्मपण |
ते ब्रह्म होती जाण | योग्यता येथ ॥ १०९० ॥
by dr. vikrant tikone
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