Tuesday, March 5, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा, ओव्या १०५० ते १०९० साधना चालू




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या १०५० ते १०९०   साधना  चालू   


अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५३॥


(अहंकार बल दर्प काम क्रोध परिग्रह यांना सोडून ममतेरहित शांत झालेला ब्रह्म  मिळवतो )

तेथ आडवावया आले | दोषवैरी जे धोपटिले |
तयांमाजीं पहिलें | देहाहंकारु ॥ १०५० ॥


जो न मोकली मारुनी | जीवों नेदी उपजवोनि |
विचंबवी खोडां घालुनी | हाडांचिया ॥ १०५१ ॥

मोकली मारुनी =जो जीव घेवून सोडत नाही (मोकळा न सोडून)

उपजवोनि=जन्म घेवून जगून न देणे पुन्हा जन्मा घालणे

विचंबवी = कुजवणे


तयाचा देहदुर्ग हा थारा | मोडूनि घेतला तो वीरा |
आणि बळ हा दुसरा | मारिला वैरी ॥ १०५२ ॥

बळ =कामादी रागाचे सामर्थ्य


जो विषयाचेनि नांवें | चौगुणेंही वरी थांवे |
जेणें मृतावस्था धांवे | सर्वत्र जगा ॥ १०५३ ॥

चौगुणेंही वरी थांवे =चौपट वाढतो

मृतावस्था=मरण धावून येते


तो विषय विषाचा अथावो | आघविया दोषांचा रावो |
परी ध्यानखड्गाचा घावो | साहेल कैंचा ? ॥ १०५४ ॥

अथावो=डोह


आणि प्रिय विषयप्राप्ती | करी जया सुखाची व्यक्ती |
तेचि घालूनि बुंथी | आंगीं जो वाजे ॥ १०५५ ॥

 

बुंथी=खोळ बुरखा


जो सन्मार्गा भुलवी | मग अधर्माच्या आडवीं |
सूनि वाघां सांपडवी | नरकादिकां ॥ १०५६ ॥

 

आडवीं=जंगलात सूनि=आणून


तो विश्वासें मारितां रिपु | निवटूनि घातला दर्पु |
आणि जयाचा अहा कंपु | तापसांसी ॥ १०५७ ॥

 

 निवटूनि =आत कोंडून दाबून


क्रोधा ऐसा महादोखु | जयाचा देखा परिपाकु |
भरिजे तंव अधिकु | रिता होय जो ॥ १०५८ ॥


तो कामु कोणेच ठायीं | नसे ऐसें केलें पाहीं |
कीं तेंचि क्रोधाही | सहजें आलें ॥ १०५९ ॥


मुळाचें तोडणें जैसें | होय कां शाखोद्देशें |
कामु नाशलेनि नाशे | तैसा क्रोधु ॥ १०६० ॥


म्हणौनि काम वैरी | जाला जेथ ठाणोरी |
तेथ सरली वारी | क्रोधाचीही ॥ १०६१ ॥

 

ठाणोरी =युद्धात कामा आलेला


आणि समर्थु आपुला खोडा | शिसें वाहवी जैसा होडा |
तैसा भुंजौनि जो गाढा | परीग्रहो ॥ १०६२ ॥

 

राजा ज्याच्या पायात खोडा अडकावयच्या आहेत त्यालाच डोक्यावर वाहायला लावतो

तसा भोग घेवून परिग्रह हा बलवान  होई


जो माथांचि पालाणवी | अंगा अवगुण घालवी |
जीवें दांडी घेववी | ममत्वाची ॥ १०६३ ॥

 

पालाणवी=खोगीर

दांडी =ध्वज


शिष्यशास्त्रादिविलासें | मठादिमुद्रेचेनि मिसें |
घातले आहाती फांसे | निःसंगा जेणें ॥ १०६४ ॥


घरीं कुटुंबपणें सरे | तरी वनीं वन्य होऊनि अवतरे |
नागवीयाही शरीरें | लागला आहे ॥ १०६५ ॥


ऐसा दुर्जयो जो परीग्रहो | तयाचा फेडूनि ठावो |
भवविजयाचा उत्साहो | भोगीतसे जो ॥ १०६६ ॥


तेथ अमानित्वादि आघवे | ज्ञानगुणाचे जे मेळावे |
ते कैवल्यदेशींचे आघवे | रावो जैसे आले ॥ १०६७ ॥

             
तेव्हां सम्यक्‌ज्ञानाचिया | राणिवा उगाणूनि तया |
परिवारु होऊनियां | राहत आंगें ॥ १०६८ ॥

 

उगाणूनि =अर्पण करून


प्रवृत्तीचिये राजबिदीं | अवस्थाभेदप्रमदीं |
कीजत आहे प्रतिपदीं | सुखाचें लोण ॥ १०६९ ॥

 

राजबिदीं =राजमार्ग 

अवस्थाभेद=उत्पती स्थिति लय ,.जागृती स्वप्न सुषुप्ति  

प्रमदीं =स्त्रिया  लोण=वोवळून घेणे


पुढां बोधाचिये कांबीवरी | विवेकु दृश्याची मांदी सारी |
योगभूमिका आरती करी | येती जैसिया ॥ १०७० ॥

 

कांबीवरी =बोधाच्या काठीने     मांदी=गर्दी


तेथ ऋद्धिसिद्धींचीं अनेगें | वृंदें मिळती प्रसंगें |
तिये पुष्पवर्षीं आंगें | नाहातसे तो ॥ १०७१ ॥


ऐसेनि ब्रह्मैक्यासारिखें | स्वराज्य येतां जवळिकें |
झळंबित आहे हरिखें | तिन्ही लोक ॥ १०७२ ॥

 

झळंबित=ओसंडून वाहणे


तेव्हां वैरियां कां मैत्रियां | तयासि माझें म्हणावया |
समानता धनंजया | उरेचिही ना ॥ १०७३ ॥

 

समानता=सम असल्याने


हें ना भलतेणें व्याजें | तो जयातें म्हणे माझें |
तें नोडवेचि कां दुजें | अद्वितीय जाला ॥ १०७४ ॥


पैं आपुलिया एकी सत्ता | सर्वही कवळूनिया पंडुसुता |
कहीं न लगती ममता | धाडिली तेणें ॥ १०७५ ॥


ऐसा जिंतिलिया रिपुवर्गु | अपमानिलिया हें जगु |
अपैसा योगतुरंगु | स्थिर जाला ॥ १०७६ ॥

 

अपमानिलिया =संसार लोभ सोडता

तुरंगु=घोडा


वैराग्याचें गाढलें | अंगी त्राण होतें भलें |
तेंही नावेक ढिलें | तेव्हां करी ॥ १०७७ ॥

 

गाढलें =घट्ट त्राण =चिलखत


आणि निवटी ध्यानाचें खांडें | तें दुजें नाहींचि पुढें |
म्हणौनि हातु आसुडें | वृत्तीचाही ॥ १०७८ ॥

 

निवटी=नष्ट करणे

खांडें =शस्त्र खड्ग  आसुडें=हिसका बसने थांबणे


जैसें रसौषध खरें | आपुलें काज करोनि पुरें |
आपणही नुरे | तैसें होतसे ॥ १०७९ ॥


देखोनि ठाकिता ठावो | धांवता थिरावे पावो |
तैसा ब्रह्मसामीप्यें थावो | अभ्यासु सांडी ॥ १०८० ॥

 

ठाकिता ठावो=मुक्कामची जागा


घडतां महोदधीसी | गंगा वेगु सांडी जैसी |
कां कामिनी कांतापासीं | स्थिर होय ॥ १०८१ ॥


नाना फळतिये वेळे | केळीची वाढी मांटुळे |
कां गांवापुढें वळे | मार्गु जैसा ॥ १०८२ ॥

मांटुळे =थांबते संपते वळे=वळणे सरणे


तैसा आत्मसाक्षात्कारु | होईल देखोनि गोचरु |
ऐसा साधन हतियेरु | हळुचि ठेवी ॥ १०८३ ॥


म्हणौनि ब्रह्मेंसी तया | ऐक्याचा समो धनंजया |
होतसे तैं उपाया | वोहटु पडे ॥ १०८४ ॥


मग वैराग्याची गोंधळुक | जे ज्ञानाभ्यासाचें वार्धक्य |
योगफळाचाही परिपाक | दशा जे कां ॥ १०८५ ॥

गोंधळुक =पूर्ण वैराग्य


ते शांति पैं गा सुभगा | संपूर्ण ये तयाचिया आंगा |
तैं ब्रह्म होआवया जोगा | होय तो पुरुषु ॥ १०८६ ॥


पुनवेहुनी चतुर्दशी | जेतुलें उणेपण शशी |
कां सोळे पाऊनि जैसी | पंधरावी वानी ॥ १०८७ ॥


सागरींही पाणी वेगें | संचरे तें रूप गंगे |
येर निश्चळ जें उगें | तें समुद्रु जैसा ॥ १०८८ ॥


ब्रह्मा आणि ब्रह्महोतिये | योग्यते तैसा पाडु आहे |
तेंचि शांतीचेनि लवलाहें | होय तो गा ॥ १०८९ ॥

 

पाडु =फरक  लवलाहें=लगेचच


पैं तेंचि होणेंनवीण | प्रतीती आलें जें ब्रह्मपण |
ते ब्रह्म होती जाण | योग्यता येथ ॥ १०९० ॥

by dr. vikrant tikone

No comments:

Post a Comment