ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ९८४ ते १०४९
सिद्धि
सिद्धिं
प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥ ५०॥
सिद्धि लाभता अशी बह्म प्राप्ती होतसे ज्ञानाची ती परमनिष्ठा सांगती भगवान
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥ ५०॥
सिद्धि लाभता अशी बह्म प्राप्ती होतसे ज्ञानाची ती परमनिष्ठा सांगती भगवान
परी हेचि आत्मसिद्धि | जो कोणी भाग्यनिधि |
श्रीगुरुकृपालब्धि\- | काळीं पावे ॥ ९८४ ॥
उदयतांचि दिनकरु | प्रकाशुचि आते आंधारु |
कां दीपसंगें कापुरु | दीपुचि होय ॥ ९८५ ॥
तया लवणाची कणिका | मिळतखेंवो उदका |
उदकचि होऊनि देखा | ठाके जेवीं ॥ ९८६ ॥
कां निद्रितु चेवविलिया | स्वप्नेंसि नीद वायां |
जाऊनि आपणपयां | मिळे जैसा ॥ ९८७ ॥
तैसें जया कोण्हासि दैवें | गुरुवाक्यश्रवणाचि सवें |
द्वैत गिळोनि विसंवे | आपणया वृत्ती ॥ ९८८ ॥
विसंवे=
विसावा
तयासी मग कर्म करणें | हें बोलिजैलचि कवणें |
आकाशा येणें जाणें | आहे काई ? | ॥ ९८९ ॥
म्हणौनि तयासि कांहीं | त्रिशुद्धि करणें नाहीं |
परी, ऐसें जरी हें कांहीं | नव्हे, जया ॥ ९९० ॥
कानावचनाचिये भेटी- | सरिसाचि पैं किरीटी |
वस्तु होऊनि उठी | कवणि एकु जो ॥ ९९१ ॥
येऱ्हवीं स्वकर्माचेनि वन्ही | काम्यनिषिद्धाचिया इंधनीं |
रजतमें कीर दोन्ही | जाळिलीं आधीं ॥ ९९२ ॥
पुत्र वित्त परलोकु | यया तिहींचा अभिलाखु |
घरीं होय पाइकु | हेंही जालें ॥ ९९३ ॥
इंद्रियें सैरा, पदार्थीं | रिगतां विटाळलीं होतीं |
तिये प्रत्याहार तीर्थीं | न्हाणिलीं कीर ॥ ९९४ ॥
आणि स्वधर्माचें फळ | ईश्वरीं अर्पूनि सकळ |
घेऊनि केलें अढळ | वैराग्यपद ॥ ९९५ ॥
ऐसी आत्मसाक्षात्कारीं | लाभे ज्ञानाची उजरी |
ते सामुग्री कीर पुरी | मेळविली ॥ ९९६ ॥
उजरी=उत्कर्ष दशा
आणि तेचि समयीं | सद्गुरु भेटले पाहीं |
तेवींचि तिहीं कांहीं | वंचिजेना ॥ ९९७ ॥
वंचिजेना=कमी न करता
परी वोखद घेतखेंवो | काय लाभे आपला ठावो ? |
कां उदयजतांचि दिवो | मध्यान्ह होय ? ॥ ९९८ ॥
सुक्षेत्रीं आणि वोलटें | बीजही पेरिलें गोमटें |
तरी आलोट फळ भेटे | परी वेळे कीं गा ॥ ९९९ ॥
जोडला मार्गु प्रांजळु | मिनला सुसंगाचाही मेळु |
तरी पाविजे वांचूनि वेळु | लागेचि कीं ॥ १००० ॥
तैसा वैराग्यलाभु जाला | वरी सद्गुरुही भेटला |
जीवीं अंकुरु फुटला | विवेकाचा ॥ १००१ ॥
तेणें ब्रह्म एक आथी | येर आघवीचि भ्रांती |
हेही कीर प्रतीती | गाढ केली ॥ १००२ ॥
परी तेंचि जें परब्रह्म | सर्वात्मक सर्वोत्तम |
मोक्षाचेंही काम | सरे जेथ ॥ १००३ ॥
यया तिन्ही अवस्था पोटीं | जिरवी जें गा किरीटी |
तया ज्ञानासिही मिठी | दे जे वस्तु ॥ १००४ ॥
ऐक्याचें एकपण सरे | जेथ आनंदकणुही विरे |
कांहींचि नुरोनि उरे | जें कांहीं गा ॥ १००५ ॥
तियें ब्रह्मीं ऐक्यपणें | ब्रह्मचि होऊनि असणें |
तें क्रमेंचि करूनि तेणें | पाविजे पैं ॥ १००६ ॥
क्रमेंचि=क्रमा क्रमाने
भुकेलियापासीं | वोगरिलें षड्रसीं |
तो तृप्ति प्रतिग्रासीं | लाहे जेवीं ॥ १००७ ॥
तैसा वैराग्याचा वोलावा | विवेकाचा तो दिवा |
आंबुथितां आत्मठेवा | काढीचि तो ॥ १००८ ॥
आंबुथितां=पेटवता
तरी भोगिजे आत्मऋद्धी | येवढी योग्यतेची सिद्धी |
जयाच्या आंगीं निरवधी | लेणें जाली ॥ १००९ ॥
आत्मऋद्धी=आत्म ऐश्वर्य
तो जेणें क्रमें ब्रह्म | होणें करी गा सुगम |
तया क्रमाचें आतां वर्म | आईक सांगों ॥ १०१० ॥
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥ ५१॥
(विशुद्ध बुद्धी युक्त ,नियमात धृती ठेवून शब्दादी विषय त्यागून राग द्वेषास जिंकून )
तरी गुरु दाविलिया वाटा | येऊन विवेकतीर्थतटा |
धुऊनियां मळकटा | बुद्धीचा तेणें ॥ १०११ ॥
मग राहूनें उगळिली | प्रभा चंद्रें आलिंगिली |
तैसी शुद्धत्वें जडली | आपणयां बुद्धि ॥ १०१२ ॥
उगळिली=बाहेर टाकली
सांडूनि कुळें दोन्ही | प्रियासी अनुसरे कामिनी |
द्वंद्वत्यागें स्वचिंतनीं | पडली तैसी ॥ १०१३ ॥
आणि ज्ञान ऐसें जिव्हार | नेवों नेवों निरंतर |
इंद्रियीं केले थोर | शब्दादिक जे ॥ १०१४ ॥
जिव्हार =
जीवन (प्रिय) नेवों नेवों=नेतात
ते रश्मिजाळ काढलेया | मृगजळ जाय लया |
तैसें वृत्तिरोधें तयां | पांचांही केलें ॥ १०१५ ॥
वृत्तिरोधें=पाठ भेद =धृती रोधे बुद्धीला
रोखून
नेणतां अधमाचिया अन्ना | खादलिया कीजे वमना |
तैसीं वोकविली सवासना | इंद्रियें विषयीं ॥ १०१६ ॥
मग प्रत्यगावृत्ती चोखटें | लाविलीं गंगेचेनि तटें |
ऐसीं प्रायश्चित्तें धुवटें | केलीं येणें ॥ १०१७ ॥
प्रत्यगावृत्ती=आत्मसाक्षात्कार प्रवृतीच्या
तटावर
पाठीं सात्विकें धीरें तेणें | शोधारलीं तियें करणें |
मग मनेंसीं योगधारणें | मेळविलीं ॥ १०१८ ॥
शोधारलीं=शुद्ध करून
तेवींचि प्राचीनें इष्टानिष्टें | भोगेंसीं येउनी भेटे |
तेथ देखिलियाही वोखटें | द्वेषु न करी ॥ १०१९ ॥
ना गोमटेंचि विपायें | तें आणूनि पुढां सूये |
तयालागीं न होये | साभिलाषु ॥ १०२० ॥
यापरी इष्टानिष्टीं | रागद्वेष किरीटी |
त्यजूनि गिरिकपाटीं | निकुंजीं वसे ॥ १०२१ ॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥ ५२॥
एकांत सेवून मितहरी राहून काया वाचा मन ताब्यात ठेवून ,सदा ध्यान योग व वैराग्य आचरणारा
गजबजा सांडिलिया | वसवी वनस्थळिया |
अंगाचियाचि मांदिया | एकलेया ॥ १०२२ ॥
गजबजा =गोंगाट मांदिया =समुदाय
शमदमादिकीं खेळे | न बोलणेंचि चावळे |
गुरुवाक्याचेनि मेळें | नेणे वेळु ॥ १०२३ ॥
चावळे=बोलणे मेळें=सोबत चिंतणे
आणि आंगा बळ यावें | नातरी क्षुधा जावें |
कां जिभीचे पुरवावे | मनोरथ ॥ १०२४ ॥
भोजन करितांविखीं | ययां तिहींतें न लेखी |
आहारीं मिती संतोषीं | माप न सूये ॥ १०२५ ॥
अशनाचेनि पावकें | हारपतां प्राणु पोखे |
इतुकियाचि भागु मोटकें | अशन करी ॥ १०२६ ॥
पावकें=जठराग्नि पोखे =पोषितो अशन=भोजन
आणि परपुरुषें कामिली | कुळवधू आंग न घाली |
निद्रालस्या न मोकली | आसन तैसें ॥ १०२७ ॥
दंडवताचेनि प्रसंगें | भुयीं हन अंग लागे |
वांचूनि येर नेघे | राभस्य तेथ ॥ १०२८ ॥
राभस्य =लोळण (अविचार)
देहनिर्वाहापुरतें | राहाटवी हातांपायांतें |
किंबहुना आपैतें | सबाह्य केलें ॥ १०२९ ॥
आपैतें =स्वाधीन
आणि मनाचा उंबरा | वृत्तीसी देखों नेदी वीरा |
तेथ कें वाग्व्यापारा | अवकाशु असे ? ॥ १०३० ॥
ऐसेनि देह वाचा मानस | हें जिणौनि बाह्यप्रदेश |
आकळिलें आकाश | ध्यानाचें तेणें ॥ १०३१ ॥
गुरुवाक्यें उठविला | बोधीं निश्चयो आपुला |
न्याहाळीं हातीं घेतला | आरिसा जैसा ॥ १०३२ ॥
पैं ध्याता आपणचि परी | ध्यानरूप वृत्तिमाझारीं |
ध्येयत्वें घे हे अवधारीं | ध्यानरूढी गा ॥ १०३३ ॥
ध्यानरूढी=ध्यानाची रित
तेथ ध्येय ध्यान ध्याता | ययां तिहीं एकरूपता |
होय तंव पंडुसुता | कीजे तें गा ॥ १०३४ ॥
म्हणौनि तो मुमुक्षु | आत्मज्ञानीं जाला दक्षु |
परी पुढां सूनि पक्षु | योगाभ्यासाचा ॥ १०३५ ॥
सूनि =आश्रय
घेणे प्रवेश घेणे
अपानरंध्रद्वया | माझारीं धनंजया |
पार्ष्णीं पिडूनियां | कांवरुमूळ ॥ १०३६ ॥
पार्ष्णीं
=टाच कांवरुमूळ =शिवण
आकुंचूनि अध | देऊनि तिन्ही बंध |
करूनि एकवद | वायुभेदी ॥ १०३७ ॥
प्राणअपान वायु एकत्र करून
कुंडलिनी जागवूनि | मध्यमा विकाशूनि |
आधारादि भेदूनि | आज्ञावरी ॥ १०३८ ॥
मध्यमा =सुषुम्ना
सहस्त्रदळाचा मेघु | पीयुषें वर्षोनि चांगु |
तो मूळवरी वोघु | आणूनियां ॥ १०३९ ॥
नाचतया पुण्यगिरी | चिद्भैरवाच्या खापरीं |
मनपवनाची खीच पुरी | वाढूनियां ॥ १०४० ॥
खीच =खिचडी
नैवेद्य खापरीं=भिक्षापात्र
जालिया योगाचा गाढा | मेळावा सूनि हा पुढां |
ध्यान मागिलीकडां | स्वयंभ केलें ॥ १०४१ ॥
तिन्ही बंधाचा समुदाय पुढे करून
आणि ध्यान योग दोन्ही | इयें आत्मतत्वज्ञानीं |
पैठा होआवया निर्विघ्नीं | आधींचि तेणें ॥ १०४२ ॥
अगोदरच त्याने
वीतरागतेसारिखा | जोडूनि ठेविला सखा |
तो आघवियाचि भूमिका- | सवें चाले ॥ १०४३ ॥
वीतरागतेसारिखा=वैराग्य
पहावें दिसे तंववरी | दिठीतें न संडी दीप जरी |
तरी कें आहे अवसरी | देखावया ॥ १०४४ ॥
अवसरी =उशीर
तैसें मोक्षीं प्रवर्तलया | वृत्ती ब्रह्मीं जाय लया |
तंव वैराग्य आथी तया | भंगु कैचा | ॥ १०४५ ॥
म्हणौनि सवैराग्यु | ज्ञानाभ्यासु तो सभाग्यु |
करूनि जाला योग्यु | आत्मलाभा ॥ १०४६ ॥
ऐसी वैराग्याची आंगीं | बाणूनियां वज्रांगीं |
राजयोगतुरंगीं | आरूढला ॥ १०४७ ॥
वरी आड पडिलें दिठी | सानें थोर निवटी |
तें बळीं विवेकमुष्टीं | ध्यानाचें खांडें ॥ १०४८ ॥
निवटी=जिंकणे खांडें=तलवार
ऐसेनि संसाररणाआंतु | आंधारीं सूर्य तैसा असे जातु |
मोक्षविजयश्रीये वरैतु | होआवयालागीं ॥ १०४९ ॥
ऐसेनि संसाररणाआंतु | आंधारीं सूर्य तैसा असे जातु |
मोक्षविजयश्रीये वरैतु | होआवयालागीं ॥ १०४९ ॥
वरैतु=वर होण्यास
by dr. vikrant tikone
No comments:
Post a Comment