Thursday, February 14, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या ८८५ ते ९३५ स्वधर्म श्रेष्ठ



ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर                           

ओव्या ८८५  ते ९३५    स्वधर्म श्रेष्ठ   


स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ ४५॥
(स्वभावा गुणा प्रमाणे प्राप्त, आपआपल्या कर्मात नित्य रत असलेला नर प्रम सिद्धि मोक्ष प्राप्त करतो )

आतां इयेचि विचक्षणा | वेगळालिया वर्णा |
उचित जैसें करणां | शब्दादिक ॥ ८८५ ॥

करणां =कानाला   इयेचि=(ही कर्मे )

नातरी जळदच्युता | पाणिया उचित सरिता |
सरितेसी पंडुसुता | सिंधु उचितु ॥ ८८६ ॥

तैसें वर्णाश्रमवशें | जें करणीय आलें असे |
गोरेया आंगा जैसें | गोरेपण ॥ ८८७ ॥  

तया स्वभावविहिता कर्मा | शास्त्राचेनि मुखें वीरोत्तमा |
प्रवर्तावयालागीं प्रमा | अढळ कीजे ॥ ८८८ ॥

प्रमा=बुध्दी

पैं आपुलेंचि रत्न थितें | घेपे पारखियाचेनि हातें |
तैसें स्वकर्म आपैतें | शास्त्रें करावीं ॥ ८८९ ॥
थितें=जवळ असणे

जैसी दिठी असे आपुलिया ठायीं | परी दीपेंवीण भोग नाहीं |
मार्गु न लाहतां काई | पाय असतां होय ? ॥ ८९० ॥

म्हणौनि ज्ञातिवशें साचारु | सहज असे जो अधिकारु |
तो आपुलिया शास्त्रें गोचरु | आपण कीजे ॥ ८९१ ॥

मग घरींचाचि ठेवा | जेवीं डोळ्यां दावी दिवा |
तरी घेतां काय पांडवा | आडळु असे ? ॥ ८९२ ॥

तैसें स्वभावें भागा आलें | वरी शास्त्रें खरें केलें |
तें विहित जो आपुलें | आचरे गा ॥ ८९३ ॥

परी आळसु सांडुनी | फळकाम दवडुनी |
आंगें जीवें मांडुनी | तेथेंचि भरु ॥ ८९४ ॥

भरु=आदरिजे, करणे

वोघीं पडिलें पाणी | नेणें आनानी वाहणी |
तैसा जाय आचरणीं | व्यवस्थौनी ॥ ८९५ ॥

अर्जुना जो यापरी | तें विहित कर्म स्वयें करी |
तो मोक्षाच्या ऐलद्वारीं | पैठा होय ॥ ८९६ ॥

जे अकरणा आणि निषिद्धा | न वचेचि कांहीं संबंधा |
म्हणौनि भवा विरुद्धा | मुकला तो ॥ ८९७ ॥

भवा=संसार भय

आणि काम्यकर्मांकडे | न परतेचि जेथ कोडें |
तेथ चंदनाचेही खोडे | न लेचि तो ॥ ८९८ ॥

कोडे=कौतुकाने सुद्धा
खोडे=चंदनाचे खोड पायात अडकवणे

येर नित्य कर्म तंव | फळत्यागें वेंचिलें सर्व |
म्हणौनि मोक्षाची शींव | ठाकूं लाहे ॥ ८९९  

ऐसेनि शुभाशुभीं संसारीं | सांडिला तो अवधारीं |
वौराग्यमोक्षद्वारीं | उभा ठाके ॥ ९०० ॥

जें सकळ भाग्याची सीमा | मोक्षलाभाची जें प्रमा |
नाना कर्ममार्गश्रमा | शेवटु जेथ ॥ ९०१ ॥

प्रमा=निश्चित ज्ञान

मोक्षफळें दिधली वोल | जें सुकृततरूचें फूल |
तयें वैराग्यीं ठेवी पाऊल | भंवरु जैसा ॥ ९०२ ॥

पाहीं आत्मज्ञानसुदिनाचा | वाधावा सांगतया अरुणाचा |
उदयो त्या वैराग्याचा | ठावो पावे ॥ ९०३ ॥

वाधावा=उदय, नांदी

किंबहुना आत्मज्ञान | जेणें हाता ये निधान |
तें वैराग्य दिव्यांजन | जीवें ले तो ॥ ९०४ ॥

ऐसी मोक्षाची योग्यता | सिद्धी जाय तया पंडुसुता |
अनुसरोनि विहिता | कर्मा यया ॥ ९०५ ॥

हें विहित कर्म पांडवा | आपुला अनन्य वोलावा |
आणि हेचि परम सेवा | मज सर्वात्मकाची ॥ ९०६ ॥

पैं आघवाचि भोगेंसीं | पतिव्रता क्रीडे प्रियेंसीं |
कीं तयाचीं नामें जैसीं | तपें तियां केलीं ॥ ९०७ ॥

तयाचीं नामें=त्या योगे

कां बाळका एकी माये | वांचोनि, जिणें काय आहे |
म्हणौनि सेविजे कीं तो होये | पाटाचा धर्मु ॥ ९०८ ॥

पाटाचा=श्रेष्ठ

नाना पाणी म्हणौनि मासा | गंगा न सांडितां जैसा |
सर्व तीर्थ सहवासा | वरपडा जाला ॥ ९०९ ॥

तैसें आपुलिया विहिता | उपावो असे न विसंबितां |
ऐसा कीजे कीं जगन्नाथा | आभारु पडे ॥ ९१० ॥

अगा जया जें विहित | तें ईश्वराचें मनोगत |
म्हणौनि केलिया निभ्रांत | सांपडेचि तो ॥ ९११ ॥

निभ्रांत=चिंता विरहित

पैं जीवाचे कसीं उतरली | ते दासी कीं गोसावीण जाली |
सिसे वेंचि तया मविली | वही जेवीं ॥ ९१२ ॥

जीवाचे=स्वामीच्या  सिसे=डोके
मविली =प्राप्त होतो  वही=मानसन्मान

तैसें स्वामीचिया मनोभावा | न चुकिजे हेचि परमसेवा |
येर तें गा पांडवा | वाणिज्य करणें ॥ ९१३ ॥

 
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥ ४६॥

(ज्या पासून सर्व भूत प्रवृती ,ज्याने व्यापले हे जगत ,स्वकर्मे त्यास पुजिता, सिद्धि लाभते मानवा)

म्हणौनि विहित क्रिया केली | नव्हे तयाची खूण पाळिली |
जयापसूनि कां आलीं | आकारा भूतें ॥ ९१४ ॥

जो अविद्येचिया चिंधिया | गुंडूनि जीव बाहुलिया |
खेळवीतसे तिगुणिया | अहंकाररज्जू ॥ ९१५ ॥

गुंडूनि=गुंडाळून

जेणें जग हें समस्त | आंत बाहेरी पूर्ण भरित |
जालें आहे दीपजात | तेजें जैसें ॥ ९१६ ॥

तया सर्वात्मका ईश्वरा | स्वकर्मकुसुमांची वीरा |
पूजा केली होय अपारा | तोषालागीं ॥ ९१७ ॥

म्हणौनि तिये पूजे | रिझलेनि आत्मराजें |
वैराग्यसिद्धि देईजे | पसाय तया ॥ ९१८ ॥

पसाय=प्रसाद

हें सर्वही नावडे जैसें | वांत होय ॥ ९१९ ॥
जिये वैराग्यदशें | ईश्वराचेनि वेधवशें |

सर्वही=(एहिक)

प्राणनाथाचिया आधी | विरहिणीतें जिणेंही बाधी |
तैसें सुखजात त्रिशुद्धी | दुःखचि लागे ॥ ९२० ॥

सम्यक्‌ज्ञान नुदैजतां | वेधेंचि तन्मयता |
उपजे ऐसी योग्यता | बोधाची लाहे ॥ ९२१ ॥

म्हणौनि मोक्षलाभालागीं | जो व्रतें वाहातसें आंगीं |
तेणें स्वधर्मु आस्था चांगी | अनुष्ठावा ॥ ९२२ ॥


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४७॥
 *(उणा असला तरी स्वधर्म श्रेष्ठ ,परधर्माहून अनुष्ठिता ,स्वभावानुसार कर्म करता पाप नाशिती )

अगा आपुला हा स्वधर्मु | आचरणीं जरी विषमु |
तरी पाहावा तो परिणामु | फळेल जेणें ॥ ९२३ ॥

जैं सुखालागीं आपणपयां | निंबचि आथी धनंजया |
तैं कडुवटपणा तयाचिया | उबगिजेना ॥ ९२४ ॥

फळणया ऐलीकडे | केळीतें पाहातां आस मोडे |
ऐसी त्यजिली तरी जोडे | तैसें कें गोमटें ॥ ९२५ ॥

आस मोडे=आशा मोडते, दु:ख होते
तरी कसे भेटेल  गोमटें=गोड सुंदर

तेवीं स्वधर्मु सांकडु | देखोनि केला जरी कडु |
तरी मोक्षसुरवाडु | अंतरला कीं ॥ ९२६ ॥

आणि आपुली माये | कुब्ज जरी आहे |
तरी जीये तें नोहे | स्नेह कुऱ्हें कीं ॥ ९२७ ॥

येरी जिया पराविया | रंभेहुनि बरविया |
तिया काय कराविया | बाळकें तेणें ? ॥ ९२८ ॥

अगा पाणियाहूनि बहुवें | तुपीं गुण कीर आहे |
परी मीना काय होये | असणें तेथ ॥ ९२९ ॥

पैं आघविया जगा जें विख | तें विख किडियाचें पीयूख |
आणि जगा गूळ तें देख | मरण तया ॥ ९३० ॥

म्हणौनि जे विहित जया जेणें | फिटे संसाराचें धरणें |
क्रिया कठोर तऱ्ही तेणें | तेचि करावी ॥ ९३१ ॥

येरा पराचारा बरविया | ऐसें होईल टेंकलया |
पायांचें चालणें डोइया | केलें जैसें ॥ ९३२ ॥

पराचारा=पर आचार   बरविया=बरवे चांगले

यालागीं कर्म आपुले | जें जातिस्वभावें असे आलें |
तें करी तेणें जिंतिलें | कर्मबंधातें ॥ ९३३ ॥

आणि स्वधर्मुचि पाळावा | परधर्मु तो गाळावा |
हा नेमुही पांडवा | न कीजेचि पै गा ? ॥ ९३४ ॥
नेमही करायची गरज नाही

तरी आत्मा दृष्ट नोहे | तंव कर्म करणें कां ठाये ? |
आणि करणें तेथ आहे | आयासु आधीं ॥ ९३५ ॥

दृष्ट=दिसणे   ठाये =थांबते आयासु=कष्ट

by dr. vikrant tikone

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