ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ८८५ ते ९३५ स्वधर्म श्रेष्ठ
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ ४५॥
(स्वभावा गुणा प्रमाणे प्राप्त,
आपआपल्या कर्मात नित्य रत असलेला नर प्रम सिद्धि मोक्ष प्राप्त करतो )
आतां इयेचि विचक्षणा | वेगळालिया वर्णा |
उचित जैसें करणां | शब्दादिक ॥ ८८५ ॥
आतां इयेचि विचक्षणा | वेगळालिया वर्णा |
उचित जैसें करणां | शब्दादिक ॥ ८८५ ॥
करणां =कानाला इयेचि=(ही कर्मे )
नातरी जळदच्युता | पाणिया उचित सरिता |
सरितेसी पंडुसुता | सिंधु उचितु ॥ ८८६ ॥
तैसें वर्णाश्रमवशें | जें करणीय आलें असे |
गोरेया आंगा जैसें | गोरेपण ॥ ८८७ ॥
तया स्वभावविहिता कर्मा | शास्त्राचेनि मुखें वीरोत्तमा |
प्रवर्तावयालागीं प्रमा | अढळ कीजे ॥ ८८८ ॥
प्रमा=बुध्दी
पैं आपुलेंचि रत्न थितें | घेपे पारखियाचेनि हातें |
तैसें स्वकर्म आपैतें | शास्त्रें करावीं ॥ ८८९ ॥
थितें=जवळ असणे
जैसी दिठी असे आपुलिया ठायीं | परी दीपेंवीण भोग नाहीं |
मार्गु न लाहतां काई | पाय असतां होय ? ॥ ८९० ॥
म्हणौनि ज्ञातिवशें साचारु | सहज असे जो अधिकारु |
तो आपुलिया शास्त्रें गोचरु | आपण कीजे ॥ ८९१ ॥
मग घरींचाचि ठेवा | जेवीं डोळ्यां दावी दिवा |
तरी घेतां काय पांडवा | आडळु असे ? ॥ ८९२ ॥
तैसें स्वभावें भागा आलें | वरी शास्त्रें खरें केलें |
तें विहित जो आपुलें | आचरे गा ॥ ८९३ ॥
परी आळसु सांडुनी | फळकाम दवडुनी |
आंगें जीवें मांडुनी | तेथेंचि भरु ॥ ८९४ ॥
भरु=आदरिजे, करणे
वोघीं पडिलें पाणी | नेणें आनानी वाहणी |
तैसा जाय आचरणीं | व्यवस्थौनी ॥ ८९५ ॥
अर्जुना जो यापरी | तें विहित कर्म स्वयें करी |
तो मोक्षाच्या ऐलद्वारीं | पैठा होय ॥ ८९६ ॥
जे अकरणा आणि निषिद्धा | न वचेचि कांहीं संबंधा |
म्हणौनि भवा विरुद्धा | मुकला तो ॥ ८९७ ॥
भवा=संसार भय
आणि काम्यकर्मांकडे | न परतेचि जेथ कोडें |
तेथ चंदनाचेही खोडे | न लेचि तो ॥ ८९८ ॥
कोडे=कौतुकाने सुद्धा
खोडे=चंदनाचे
खोड पायात अडकवणे
येर नित्य कर्म तंव | फळत्यागें वेंचिलें सर्व |
म्हणौनि मोक्षाची शींव | ठाकूं लाहे ॥ ८९९ ॥
ऐसेनि शुभाशुभीं संसारीं | सांडिला तो अवधारीं |
वौराग्यमोक्षद्वारीं | उभा ठाके ॥ ९०० ॥
जें सकळ भाग्याची सीमा | मोक्षलाभाची जें प्रमा |
नाना कर्ममार्गश्रमा | शेवटु जेथ ॥ ९०१ ॥
प्रमा=निश्चित ज्ञान
मोक्षफळें दिधली वोल | जें सुकृततरूचें फूल |
तयें वैराग्यीं ठेवी पाऊल | भंवरु जैसा ॥ ९०२ ॥
पाहीं आत्मज्ञानसुदिनाचा | वाधावा सांगतया अरुणाचा |
उदयो त्या वैराग्याचा | ठावो पावे ॥ ९०३ ॥
वाधावा=उदय, नांदी
किंबहुना आत्मज्ञान | जेणें हाता ये निधान |
तें वैराग्य दिव्यांजन | जीवें ले तो ॥ ९०४ ॥
ऐसी मोक्षाची योग्यता | सिद्धी जाय तया पंडुसुता |
अनुसरोनि विहिता | कर्मा यया ॥ ९०५ ॥
हें विहित कर्म पांडवा | आपुला अनन्य वोलावा |
आणि हेचि परम सेवा | मज सर्वात्मकाची ॥ ९०६ ॥
पैं आघवाचि भोगेंसीं | पतिव्रता क्रीडे प्रियेंसीं |
कीं तयाचीं नामें जैसीं | तपें तियां केलीं ॥ ९०७ ॥
तयाचीं
नामें=त्या योगे
कां बाळका एकी माये | वांचोनि, जिणें काय आहे |
म्हणौनि सेविजे कीं तो होये | पाटाचा धर्मु ॥ ९०८ ॥
पाटाचा=श्रेष्ठ
नाना पाणी म्हणौनि मासा | गंगा न सांडितां जैसा |
सर्व तीर्थ सहवासा | वरपडा जाला ॥ ९०९ ॥
तैसें आपुलिया विहिता | उपावो असे न विसंबितां |
ऐसा कीजे कीं जगन्नाथा | आभारु पडे ॥ ९१० ॥
अगा जया जें विहित | तें ईश्वराचें मनोगत |
म्हणौनि केलिया निभ्रांत | सांपडेचि तो ॥ ९११ ॥
निभ्रांत=चिंता विरहित
पैं जीवाचे कसीं उतरली | ते दासी कीं गोसावीण जाली |
सिसे वेंचि तया मविली | वही जेवीं ॥ ९१२ ॥
जीवाचे=स्वामीच्या सिसे=डोके
मविली =प्राप्त होतो वही=मानसन्मान
तैसें स्वामीचिया मनोभावा | न चुकिजे हेचि परमसेवा |
येर तें गा पांडवा | वाणिज्य करणें ॥ ९१३ ॥
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥ ४६॥
(ज्या पासून सर्व भूत प्रवृती ,ज्याने व्यापले हे जगत ,स्वकर्मे त्यास पुजिता, सिद्धि लाभते मानवा)
म्हणौनि विहित क्रिया केली | नव्हे तयाची खूण पाळिली |
जयापसूनि कां आलीं | आकारा भूतें ॥ ९१४ ॥
जो अविद्येचिया चिंधिया | गुंडूनि जीव बाहुलिया |
खेळवीतसे तिगुणिया | अहंकाररज्जू ॥ ९१५ ॥
गुंडूनि=गुंडाळून
जेणें जग हें समस्त | आंत बाहेरी पूर्ण भरित |
जालें आहे दीपजात | तेजें जैसें ॥ ९१६ ॥
तया सर्वात्मका ईश्वरा | स्वकर्मकुसुमांची वीरा |
पूजा केली होय अपारा | तोषालागीं ॥ ९१७ ॥
म्हणौनि तिये पूजे | रिझलेनि आत्मराजें |
वैराग्यसिद्धि देईजे | पसाय तया ॥ ९१८ ॥
पसाय=प्रसाद
हें सर्वही नावडे जैसें
| वांत होय ॥ ९१९ ॥
जिये वैराग्यदशें | ईश्वराचेनि वेधवशें |
जिये वैराग्यदशें | ईश्वराचेनि वेधवशें |
सर्वही=(एहिक)
प्राणनाथाचिया आधी | विरहिणीतें जिणेंही बाधी |
तैसें सुखजात त्रिशुद्धी | दुःखचि लागे ॥ ९२० ॥
सम्यक्ज्ञान नुदैजतां | वेधेंचि तन्मयता |
उपजे ऐसी योग्यता | बोधाची लाहे ॥ ९२१ ॥
म्हणौनि मोक्षलाभालागीं | जो व्रतें वाहातसें आंगीं |
तेणें स्वधर्मु आस्था चांगी | अनुष्ठावा ॥ ९२२ ॥
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४७॥
*(उणा असला तरी स्वधर्म श्रेष्ठ ,परधर्माहून अनुष्ठिता ,स्वभावानुसार कर्म करता पाप नाशिती )
अगा आपुला हा स्वधर्मु | आचरणीं जरी विषमु |
तरी पाहावा तो परिणामु | फळेल जेणें ॥ ९२३ ॥
जैं सुखालागीं आपणपयां | निंबचि आथी धनंजया |
तैं कडुवटपणा तयाचिया | उबगिजेना ॥ ९२४ ॥
फळणया ऐलीकडे | केळीतें पाहातां आस मोडे |
ऐसी त्यजिली तरी जोडे | तैसें कें गोमटें ॥ ९२५ ॥
आस मोडे=आशा मोडते, दु:ख होते
तरी कसे
भेटेल गोमटें=गोड सुंदर
तेवीं स्वधर्मु सांकडु | देखोनि केला जरी कडु |
तरी मोक्षसुरवाडु | अंतरला कीं ॥ ९२६ ॥
आणि आपुली माये | कुब्ज जरी आहे |
तरी जीये तें नोहे | स्नेह कुऱ्हें कीं ॥ ९२७ ॥
येरी जिया पराविया | रंभेहुनि बरविया |
तिया काय कराविया | बाळकें तेणें ? ॥ ९२८ ॥
अगा पाणियाहूनि बहुवें | तुपीं गुण कीर आहे |
परी मीना काय होये | असणें तेथ ॥ ९२९ ॥
पैं आघविया जगा जें विख | तें विख किडियाचें पीयूख |
आणि जगा गूळ तें देख | मरण तया ॥ ९३० ॥
म्हणौनि जे विहित जया जेणें | फिटे संसाराचें धरणें |
क्रिया कठोर तऱ्ही तेणें | तेचि करावी ॥ ९३१ ॥
येरा पराचारा बरविया | ऐसें होईल टेंकलया |
पायांचें चालणें डोइया | केलें जैसें ॥ ९३२ ॥
पराचारा=पर आचार बरविया=बरवे चांगले
यालागीं कर्म आपुले | जें जातिस्वभावें असे आलें |
तें करी तेणें जिंतिलें | कर्मबंधातें ॥ ९३३ ॥
आणि स्वधर्मुचि पाळावा | परधर्मु तो गाळावा |
हा नेमुही पांडवा | न कीजेचि पै गा ? ॥ ९३४ ॥
नेमही करायची गरज नाही
तरी आत्मा दृष्ट नोहे | तंव कर्म करणें कां ठाये ? |
आणि करणें तेथ आहे | आयासु आधीं ॥ ९३५ ॥
दृष्ट=दिसणे ठाये =थांबते आयासु=कष्ट
by dr. vikrant tikone
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