ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ९३६ ते ९८३ सहजप्राप्त ,कर्म निष्कर्म
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥ ४८॥
सहज कर्म न सोडावे जरी सदोष सर्व कर्मात दोष असे जसा अग्नीत धूम
म्हणौनि भलतिये कर्मीं | आयासु जऱ्ही उपक्रमीं |
तरी काय स्वधर्मीं | दोषु सांगें ? ॥ ९३६ ॥
उपक्रमीं=सुरवातीला
आगा उजू वाटा चालावें | तऱ्ही पायचि शिणवावे |
ना आडरानें धांवावें | तऱ्ही तेंचि ॥ ९३७ ॥
पैं शिळा कां सिदोरिया | दाटणें एक धनंजया |
परी जें वाहतां विसांवया | मिळिजे तें घेपे ॥ ९३८ ॥
सिदोरिया =शिदोरी दाटणें=ओझ्याने दडपणे
येऱ्हवीं कणा आणि भूसा | कांडितांही सोसु सरिसा |
जेंचि रंधन श्वान मांसा | तेंचि हवी ॥ ९३९ ॥
रंधन=शिजवण्याचे कष्ट कूत्रांचे मांस व हवीशान्न
दधी जळाचिया घुसळणा | व्यापार सारिखेचि विचक्षणा |
वाळुवे तिळा घाणा | गाळणें एक ॥ ९४० ॥
पैं नित्य होम देयावया | कां सैरा आगी सुवावया |
फुंकितां धू धनंजया | साहणें तेंचि ॥ ९४१ ॥
सैरा=स्वैर
परी धर्मपत्नी धांगडी | पोसितां जरी एकी वोढी |
तरी कां अपरवडी | आणावी आंगा ? ॥ ९४२ ॥
धांगडी=रखेल वोढी-=सायास ओढातान अपरवडी=अपकीर्ती
हां गा पाठीं लागला घाई
| मरण न चुकेचि पाहीं |
तरी समोरला काई | आगळें न कीजे ? ॥ ९४३ ॥
तरी समोरला काई | आगळें न कीजे ? ॥ ९४३ ॥
घाई=रणात पाठीं लागला=पळून जाता
आगळें=वेगळे (लढणे)
(किंवा
पाठीघाव लागला तरी मरण व समोरून लागला तरी मरण)
कुलस्त्री, दांड्याचे घाये | परघर रिगालीहि, जरी साहे |
तरी स्वपतीतें वायें | सांडिलें कीं | ॥ ९४४ ॥
दांड्याचे
घाये =दंडुक्याचा मार
तैसें आवडतेंही करणें | न निपजे शिणल्याविणें |
तरी विहित बा रे कोणें | बोलें भारी ? ॥ ९४५ ॥
भारी= कठीण
वरी थोडेंचि अमृत घेतां | सर्वस्व वेंचो कां पंडुसुता |
जेणें जोडे जीविता | अक्षयत्व ॥ ९४६ ॥
येर काह्यां मोलें वेंचूनि | विष पियावे घेऊनि |
आत्महत्येसि निमोनि | जाइजे जेणें ॥ ९४७ ॥
तैसें जाचूनियां इंद्रियें | वेंचूनि आयुष्याचेनि दिये |
सांचलें पापीं आन आहे | दुःखावाचूनि ? ॥ ९४८ ॥
दिये=दिवस
म्हणौनि करावा स्वधर्मु | जो करितां हिरोनि घे श्रमु |
उचित देईल परमु | पुरुषार्थराजु ॥ ९४९ ॥
याकारणें किरीटी | स्वधर्माचिये राहाटी |
न विसंबिजे संकटीं | सिद्धमंत्र जैसा ॥ ९५० ॥
कां नाव जैसी उदधीं | महारोगी दिव्यौषधी |
न विसंबिजे तया बुद्धी | स्वकर्म येथ ॥ ९५१ ॥
मग ययाचि गा कपिध्वजा | स्वकर्माचिया महापूजा |
तोषला ईशु तमरजा | झाडा करुनी ॥ ९५२ ॥
शुद्धसत्त्वाचिया वाटा | आणी आपुली उत्कंठा |
भवस्वर्ग काळकूटा | ऐसें दावी ॥ ९५३ ॥
उत्कंठा= इच्छा आवड भवस्वर्ग=हा लोक व स्वर्ग लोक
जियें वैराग्य येणें बोलें | मागां संसिद्धी रूप केलें |
किंबहुना तें आपुलें | मेळवी खागें ॥ ९५४ ॥
संसिद्धी=पूर्ण प्राप्ती खागें=ठिकाण मुक्काम
मग जिंतिलिया हे भोये | पुरुष सर्वत्र जैसा होये |
कां जालाही जें लाहे | तें आतां सांगों ॥ ९५५ ॥
भोये=वैराग्य भूमिका
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥ ४९॥
तरी देहादिक हें संसारें | सर्वही मांडलेंसे जें गुंफिरें |
तेथ नातुडे तो वागुरें | वारा जैसा ॥ ९५६ ॥
गुंफिरें=गुंता वागुरें =जाळी
पैं परिपाकाचिये वेळे | फळ देठें ना देठु फळें |
न धरे तैसें स्नेह खुळें | सर्वत्र होय ॥ ९५७ ॥
खुळें=खुले ,मोकळे
पुत्र वित्त कलत्र | हे जालियाही स्वतंत्र |
माझें न म्हणे पात्र | विषाचें जैसें ॥ ९५८ ॥
हें असो विषयजाती | बुद्धि, पोळली ऐसी माघौती |
पाउलें घेऊनि एकांतीं | हृदयाच्या रिगे ॥ ९५९ ॥
ऐसया अंतःकरण | बाह्य येतां तयाची आण |
न मोडी समर्था भेण | दासी जैसी ॥ ९६० ॥
तैसें ऐक्याचिये मुठी | माजिवडें चित्त किरीटी |
करूनि वेधी नेहटीं | आत्मयाच्या ॥ ९६१ ॥
माजिवडें=मध्ये नेहटीं=जोरात आत जाने दाबणे
तेव्हां दृष्टादृष्ट स्पृहे | निमणें जालेंचि आहे |
आगीं दडपलिया धुयें | राहिजे जैसें ॥ ९६२ ॥
दृष्टादृष्ट
=इहपर लोकीची स्पृहे=अभिलाषे
धुयें=धूर
म्हणौनि नियमिलिया मानसीं | स्पृहा नासौनि जाय आपैसीं |
किंबहुना तो ऐसी | भूमिका पावे ॥ ९६३ ॥
पैं अन्यथा बोधु आघवा | मावळोनि तया पांडवा |
बोधमात्रींचि जीवा | ठावो होय ॥ ९६४ ॥
धरवणी वेंचें सरे | तैसें भोगें प्राचीन पुरे |
नवें तंव नुपकरे | कांहीचि करूं ॥ ९६५ ॥
धरवणी=साचलेले पाणी (किंवा नदी उगमी सरता)
नुपकरे-साह्य
ऐसीं कर्में साम्यदशा | होय तेथ वीरेशा |
मग श्रीगुरु आपैसा | भेटेचि गा ॥ ९६६ ॥
रात्रीची चौपाहरी | वेंचलिया अवधारीं |
डोळ्यां तमारी | मिळे जैसा ॥ ९६७ ॥
चौपाहरी=चवथा प्रहर
का येऊनि फळाचा घडु | पारुषवी केळीची वाढु |
श्रीगुरु भेटोनि करी पाडु | बुभुत्सु तैसा ॥ ९६८ ॥
पारुषवी=थांबते पाडु-=योग्यता बुभुत्सु=मुमुक्षू (भुकेला )
मग आलिंगिला पूर्णिमा | जैसा उणीव सांडी चंद्रमा |
तैसें होय वीरोत्तमा | गुरुकृपा तया ॥ ९६९ ॥
तेव्हां अबोधुमात्र असे | तो तंव तया कृपा नासे |
तेथ निशीसवें जैसें | आंधारें जाय ॥ ९७० ॥
अबोधुमात्र=अज्ञान
तैसी अबोधाचिये कुशी | कर्म कर्ता कार्य ऐशी |
त्रिपुटी असे ते जैसी | गाभिणी मारिली ॥ ९७१ ॥
तैसेंचि अबोधनाशासवें | नाशे क्रियाजात आघवें |
ऐसा समूळ संभवे | संन्यासु हा ॥ ९७२ ॥
येणें मुळाज्ञानसंन्यासें | दृश्याचा जेथ ठावो पुसे |
तेथ बुझावें तें आपैसें | तोचि आहे ॥ ९७३ ॥
बुझावें=प्राप्त करून घ्यावे
चेइलियावरी पाहीं | स्वप्नींचिया तिये डोहीं |
आपणयातें काई | काढूं जाइजे ? ॥ ९७४ ॥
तैं मी नेणें आतां जाणेन | हें सरलें तया दुःस्वप्न |
जाला ज्ञातृज्ञेयाविहीन | चिदाकाश ॥ ९७५ ॥
मुखाभासेंसी आरिसा | परौता नेलिया वीरेशा |
पाहातेपणेंवीण जैसा | पाहाता ठाके ॥ ९७६ ॥
तैसें नेणणें जें गेलें | तेणें जाणणेंही नेलें |
मग निष्क्रिय उरलें | चिन्मात्रचि ॥ ९७७ ॥
तेथ स्वभावें धनंजया | नाहीं कोणीचि क्रिया |
म्हणौनि प्रवादु तया | नैष्कर्म्यु ऐसा ॥ ९७८ ॥
तें आपुलें आपणपें | असे तेंचि होऊनि हारपे |
तरंगु कां वायुलोपें | समुद्रु जैसा ॥ ९७९ ॥
तैसें न होणें निफजे | ते नैष्कर्म्यसिद्धि जाणिजे |
सर्वसिद्धींत सहजें | परम हेचि ॥ ९८० ॥
देउळाचिया कामा कळसु | उपरम गंगेसी सिंधु प्रवेशु |
कां सुवर्णशुद्धी कसु | सोळावा जैसा ॥ ९८१ ॥
उपरम=पाठभेद परम
तैसें आपुलें नेणणें | फेडिजे का जाणणें |
तेंहि गिळूनि असणें | ऐसी जे दशा ॥ ९८२ ॥
तियेपरतें कांहीं | निपजणें आन नाहीं |
म्हणौनि म्हणिपे पाहीं | परमसिद्धि ते ॥ ९८३ ॥
by dr. vikrant tikone
No comments:
Post a Comment