ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ८१८ ते ८८४ त्रिविध
वर्ण कर्म
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥ ४१॥
तेचि चारी वर्ण | पुससी जरी कोण कोण |
तरी जयां मुख्य ब्राह्मण | धुरेचे कां ॥ ८१८ ॥
धुरेचे= प्रमुख
येर क्षत्रिय वैश्य दोन्ही | तेही ब्राह्मणाच्याचि मानिजे मानी |
जे ते वैदिकविधानीं | योग्य म्हणौनि ॥ ८१९ ॥
चौथा शूद्रु जो धनंजया | वेदीं लागु नाहीं तया |
तऱ्हीं वृत्ति वर्णत्रया | आधीन तयाची ॥ ८२० ॥
वृत्ति=व्यवसाय, काम
तिये वृत्तिचिया जवळिका | वर्णा ब्राह्मणादिकां |
शूद्रही कीं देखा | चौथा जाला ॥ ८२१ ॥
जैसा फुलाचेनि सांगातें | तांतुं तुरंबिजे श्रीमंतें |
तैसें द्विजसंगें शूद्रातें | स्वीकारी श्रुती ॥ ८२२ ॥
तुरंबिजे=सुगंध घेणे
ऐसैसी गा पार्था | हे चतुर्वर्णव्यवस्था |
करूं आतां कर्मपथा | यांचिया रूपा ॥ ८२३ ॥
जिहीं गुणीं ते वर्ण चारी | जन्ममृत्यूंचिये कातरी |
चुकोनियां ईश्वरीं | पैठे होती ॥ ८२४ ॥
कातरी=कात्री दु:ख
जिये आत्मप्रकृतीचे इहीं | गुणीं सत्त्वादिकीं तिहीं |
कर्में चौघां चहूं ठाईं | वांटिलीं वर्णा ॥ ८२५ ॥
आत्मप्रकृतीचे=वागण्याची पद्धत, स्वभाव
जैसें बापें जोडिलें लेंका | वांटिलें सूर्यें मार्ग पांथिका |
नाना व्यापार सेवकां | स्वामी जैसें ॥ ८२६ ॥
तैसी प्रकृतीच्या गुणीं | जया कर्माची वेल्हावणी |
केली आहे वर्णीं | चहूं इहीं ॥ ८२७ ॥
वेल्हावणी=व्यवहार व्यापार विस्तार
तेथ सत्त्वें आपल्या आंगीं | समीन\-निमीन भागीं |
दोघे केले नियोगी | ब्राह्मण क्षत्रिय ॥ ८२८ ॥
समीन\-निमीन=सम विषम (अर्धे अर्धे)
नियोगी=अधिकारी
आणि रज परी सात्त्विक | तेथ ठेविलें वैश्य लोक |
रजचि तमभेसक | तेथ शूद्र ते गा ॥ ८२९ ॥
भेसक=मिश्रित
ऐसा येकाचि प्राणिवृंदा | भेदु चतुर्वर्णधा |
गुणींचि प्रबुद्धा | केला जाण ॥ ८३० ॥
मग आपुलें ठेविलें जैसें | आइतेंचि दीपें दिसे |
गुणभिन्न कर्म तैसें | शास्त्र दावी ॥ ८३१ ॥
तेंचि आतां कोण कोण | वर्णविहिताचें लक्षण |
हें सांगों ऐक श्रवण\- | सौभाग्यनिधी ॥ ८३२ ॥
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ ४२॥
शमन दमन तप शौच्य(शुचिर्भूतता), शांती
आर्जव(सरळता) ज्ञान(अध्यात्म) विज्ञान(जगत ज्ञान) आस्तिक्य हे ब्राह्मणाचे कर्म
तरी सर्वेंद्रियांचिया वृत्ती | घेऊनि आपुल्या हातीं |
बुद्धि आत्मया मिळे येकांतीं | प्रिया जैसी ॥ ८३३ ॥
तरी सर्वेंद्रियांचिया वृत्ती | घेऊनि आपुल्या हातीं |
बुद्धि आत्मया मिळे येकांतीं | प्रिया जैसी ॥ ८३३ ॥
ऐसा बुद्धीचा उपरमु | तया नाम म्हणिपे शमु |
तो गुण गा उपक्रमु | जया कर्माचा ॥ ८३४ ॥
उपरमु= अंतर्मुख शमु= शांत उपक्रमु=सुरवात
आणि बाह्येंद्रियांचें धेंडें | पिटूनि विधीचेनि दंडें |
नेदिजे अधर्माकडे | कहींचि जावों ॥ ८३५ ॥
धेंडें=बलिष्ठ (गुंड)
तो पैं गा शमा विरजा | दमु गुण जेथ दुजा |
आणि स्वधर्माचिया वोजा | जिणें जें कां ॥ ८३६ ॥
विरजा=मदतनीस वोजा=साठी कारणा
सटवीचिये रातीं | न विसंबिजे जेवीं वाती |
तैसा ईश्वरनिर्णयो चित्तीं | वाहणें सदा ॥ ८३७ ॥
सटवीचिये=प्रसूती नंतरची 5 वी रात्र
वाती=दिवा
तया नाम तप | ते तिजया गुणाचें रूप |
आणि शौचही निष्पाप | द्विविध जेथ ॥ ८३८ ॥
मन भावशुद्धी भरलें | आंग क्रिया अळंकारिलें |
ऐसें सबाह्य जियालें | साजिरें जें कां ॥ ८३९ ॥
तया नाम शौच पार्था | तो कर्मीं गुण जये चौथा |
आणि पृथ्वीचिया परी सर्वथा | सर्व जें साहाणें ॥ ८४० ॥
ते गा क्षमा पांडवा | गुण जेथ पांचवा |
स्वरांमाजीं सुहावा | पंचमु जैसा ॥ ८४१ ॥
सुहावा=मधुर सुंदर
आणि वांकडेनी वोघेंसीं | गंगा वाहे उजूचि जैसी |
कां पुटीं वळला ऊसीं | गोडी जैसी ॥ ८४२ ॥
पुटीं=पेरे
तैसा विषमांही जीवां- | लागीं उजुकारु बरवा |
तें आर्जव गा साहावा | जेथींचा गुण ॥ ८४३ ॥
उजुकारु=सरळपणे वागणारा
आणि पाणियें प्रयत्नें माळी | अखंड जचे झाडामुळीं |
परी तें आघवेंचि फळीं | जाणे जेवीं ॥ ८४४ ॥
जचे=श्रमणे जाणे=जाणून असतो
तैसें शास्त्राचारें तेणें | ईश्वरुचि येकु पावणें |
हें फुडें जें कां जाणणें | तें येथ ज्ञान ॥ ८४५ ॥
तें गा कर्मीं जिये | सातवा गुण होये |
आणि विज्ञान हें पाहें | एवंरूप ॥ ८४६ ॥
तरी सत्वशुद्धीचिये वेळे | शास्त्रें कां ध्यानबळें |
ईश्वरतत्त्वींचि मिळे | निष्टंकबुद्धी ॥ ८४७ ॥
निष्टंकबुद्धी=निश्चयात्मक
हें विज्ञान बरवें | गुणरत्न जेथ आठवें |
आणि आस्तिक्य जाणावें | नववा गुण ॥ ८४८ ॥
आणि आस्तिक्य जाणावें | नववा गुण ॥ ८४८ ॥
पैं राजमुद्रा आथिलिया | प्रजा भजे भलतया |
तेवीं शास्त्रें स्वीकारिलिया | मार्गमात्रातें ॥ ८४९ ॥
तेवीं शास्त्रें स्वीकारिलिया | मार्गमात्रातें ॥ ८४९ ॥
आदरें जें कां मानणें | तें आस्तिक्य मी म्हणें |
तो नववा गुण जेणें | कर्म तें साच ॥ ८५० ॥
तो नववा गुण जेणें | कर्म तें साच ॥ ८५० ॥
एवं नवही शमादिक | गुण जेथ निर्दोख |
तें कर्म जाण स्वाभाविक | ब्राह्मणाचें ॥ ८५१ ॥
तें कर्म जाण स्वाभाविक | ब्राह्मणाचें ॥ ८५१ ॥
तो नवगुणरत्नाकरु | यया नवरत्नांचा हारु |
न फेडीत ले दिनकरु | प्रकाशु जैसा ॥ ८५२ ॥
न फेडीत ले दिनकरु | प्रकाशु जैसा ॥ ८५२ ॥
ले= परिधान करणे
नाना चांपा चांपौळी पूजिला
| चंद्रु चंद्रिका धवळला |
कां चंदनु निजें चर्चिला | सौरभ्यें जेवीं ॥ ८५३ ॥
कां चंदनु निजें चर्चिला | सौरभ्यें जेवीं ॥ ८५३ ॥
चांपौळी=चाफा कळ्या सौरभ्यें=सुगंध
तेवीं नवगुणटिकलग | लेणें ब्राह्मणाचें अव्यंग |
कहींचि न संडी आंग | ब्राह्मणाचें ॥ ८५४ ॥
टिकलग=जडले
आतां उचित जें क्षत्रिया
| तेंहीं कर्म धनंजया |
सांगों ऐक प्रज्ञेचिया | भरोवरी ॥ ८५५ ॥
भरोवरी=सामग्री
सांगों ऐक प्रज्ञेचिया | भरोवरी ॥ ८५५ ॥
भरोवरी=सामग्री
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥ ४३॥
शौर्य तेज बुद्धी दक्षता युद्धी पलायन दान प्रजेवर सत्ता हे क्षत्रिय कर्म
तरी भानु हा तेजें | नापेक्षी जेवीं विरजे |
कां सिंहें न पाहिजे | जावळिया ॥ ८५६ ॥
विरजे=मदत जावळिया=सहय्यक
ऐसा स्वयंभ जो जीवें लाठु | सावायेंवीण उद्भटु |
ते शौर्य गा जेथ श्रेष्ठु | पहिला गुण ॥ ८५७ ॥
लाठु =बलिष्ठ उद्भटु=शूर
आणि सूर्याचेनि प्रतापें | कोडिही नक्षत्र हारपे |
ना तो तरी न लोपे | सचंद्रीं तिहीं ॥ ८५८ ॥
सचंद्रीं=चंद्रा सहित
तैसेनि आपुले प्रौढीगुणें | जगा या विस्मयो देणें |
आपण तरी न क्षोभणें | कायसेनही ॥ ८५९ ॥
प्रौढीगुणें=मोठेपण
तें प्रागल्भ्यरूप तेजा | जिये कर्मीं गुण दुजा |
आणि धीरु तो तिजा | जेथींचा गुण ॥ ८६० ॥
प्रागल्भ्यरूप=(पाणीदार) श्रेष्ठ गुण
वरिपडलिया आकाश | बुद्धीचे डोळे मानस |
झांकी ना ते परीयेस | धैर्य जेथें ॥ ८६१ ॥
आणि पाणी हो कां भलतेतुकें | परी तें जिणौनि पद्म फांके |
कां आकाश उंचिया जिंके | आवडे तयातें ॥ ८६२ ॥
भलतेतुकें=हवे तेवढे खोल
तेवीं विविध अवस्था | पातलिया जिणौनि पार्था |
प्रज्ञाफळ तया अर्था | वेझ देणें जें ॥ ८६३ ॥
जिणौनि=जिंकून प्रज्ञाफळ = बुद्धी वेझ देणें=मार्ग काढणे
तें दक्षत्व गा चोख | जेथ चौथा गुण देख |
आणि झुंज अलौकिक | तो पांचवा गुण ॥ ८६४ ॥
आदित्याचीं झाडें | सदा सन्मुख सूर्याकडे |
तेवीं समोर शत्रूपुढें | होणें जें कां ॥ ८६५ ॥
आदित्याचीं=सूर्यफूल
माहेवणी प्रयत्नेंसी | चुकविजे सेजे जैसी |
रिपू पाठी नेदिजे तैसी | समरांगणीं ॥ ८६६ ॥
माहेवणी=गरोदर
हा क्षत्रियाचेया आचारीं | पांचवा गुणेंद्रु अवधारीं |
चहूं पुरुषार्थां शिरीं | भक्ति जैसी ॥ ८६७ ॥
आणि जालेनि फुलें फळें | शाखिया जैसीं मोकळे |
कां उदार परीमळें | पद्माकरु ॥ ८६८ ॥
नाना आवडीचेनि मापें | चांदिणें भलतेणें घेपे |
पुढिलांचेनि संकल्पें | तैसें जें देणें ॥ ८६९ ॥
घेपे=घेणे
तें उमप गा दान | जेथ सहावें गुणरत्न |
आणि आज्ञे एकायतन | होणें जें कां ॥ ८७० ॥
उमप=अमाप एकायतन =एकनिष्ठ
पोषूनि अवयव आपुले | करविजतीं मानविले |
तेवीं पालणें लोभविलें | जग जें भोगणें ॥ ८७१ ॥
पालणें
लोभविलें=प्रेमाने प्रतिपालण करणे
तया नाम ईश्वरभावो | जो सर्वसामर्थ्याचा ठावो |
तो गुणांमाजीं रावो | सातवा जेथ ॥ ८७२ ॥
ऐसें जें शौर्यादिकीं | इहीं सात गुणविशेखीं |
अळंकृत सप्तऋखीं | आकाश जैसें ॥ ८७३ ॥
तैसें सप्तगुणीं विचित्र | कर्म जें जगीं पवित्र |
तें सहज जाण क्षात्र | क्षत्रियाचें ॥ ८७४ ॥
नाना क्षत्रिय नव्हे नरु | तो सत्त्वसोनयाचा मेरु |
म्हणौनि गुणस्वर्गां आधारु | सातां इयां ॥ ८७५ ॥
नातरी सप्तगुणार्णवीं | परीवारली बरवी |
हे क्रिया नव्हे पृथ्वी | भोगीतसे तो ॥ ८७६ ॥
परीवारली=वेढली
कां गुणांचे सातांही ओघीं | हे क्रिया ते गंगा जगीं |
तया महोदधीचिया आंगीं | विलसे जैसी ॥ ८७७ ॥
महोदधीचिया=सागर
परी हें बहु असो देख | शौर्यादि गुणात्मक |
कर्म गा नैसर्गिक | क्षात्रजातीसी ॥ ८७८ ॥
आतां वैश्याचिये जाती | उचित जे महामती |
ते ऐकें गा निरुती | क्रिया सांगों ॥ ८७९ ॥
निरुती=उचित
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ ४४॥
(शेती गोरक्षा ,व्यापार हे वैश्य कर्म, सेवा करणे हे शूद्र कर्म)
तरी भूमि बीज नांगरु | यया भांडवलाचा आधारु |
घेऊनि लाभु अपारु | मेळवणें जें ॥ ८८० ॥
किंबहुना कृषी जिणें | गोधनें राखोनि वर्तणें |
कां समर्घीची विकणें | महर्घीवस्तु ॥ ८८१ ॥
समर्घीची=स्वस्त महर्घी=महाग
येतुलाचि पांडवा | वैश्यातें कर्माचा मेळावा |
हा वैश्यजातीस्वभावा | आंतुला जाण ॥ ८८२ ॥
आणि वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मण | हे द्विजन्में तिन्ही वर्ण |
ययांचें जें शुश्रूषण | तें शूद्रकर्म ॥ ८८३ ॥
पैं द्विजसेवेपरौतें | धांवणें नाहीं शूद्रातें |
एवं चतुर्वर्णोचितें | दाविलीं कर्में ॥ ८८४ ॥
by dr. vikrant tikone
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