Thursday, February 7, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय१८ वा ओव्या ८१८ ते ८८४ त्रिविध वर्ण कर्म




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ८१८  ते ८८४         त्रिविध  वर्ण कर्म


ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥ ४१॥


तेचि चारी वर्ण | पुससी जरी कोण कोण |
तरी जयां मुख्य ब्राह्मण | धुरेचे कां ॥ ८१८ ॥

धुरेचे= प्रमुख

येर क्षत्रिय वैश्य दोन्ही | तेही ब्राह्मणाच्याचि मानिजे मानी |
जे ते वैदिकविधानीं | योग्य म्हणौनि ॥ ८१९ ॥

चौथा शूद्रु जो धनंजया | वेदीं लागु नाहीं तया |
तऱ्हीं वृत्ति वर्णत्रया | आधीन तयाची ॥ ८२० ॥

वृत्ति=व्यवसाय, काम

तिये वृत्तिचिया जवळिका | वर्णा ब्राह्मणादिकां |
शूद्रही कीं देखा | चौथा जाला ॥ ८२१ ॥

जैसा फुलाचेनि सांगातें | तांतुं तुरंबिजे श्रीमंतें |
तैसें द्विजसंगें शूद्रातें | स्वीकारी श्रुती ॥ ८२२ ॥

तुरंबिजे=सुगंध घेणे

ऐसैसी गा पार्था | हे चतुर्वर्णव्यवस्था |
करूं आतां कर्मपथा | यांचिया रूपा ॥ ८२३ ॥

जिहीं गुणीं ते वर्ण चारी | जन्ममृत्यूंचिये कातरी |
चुकोनियां ईश्वरीं | पैठे होती ॥ ८२४ ॥

कातरी=कात्री दु:ख

जिये आत्मप्रकृतीचे इहीं | गुणीं सत्त्वादिकीं तिहीं |
कर्में चौघां चहूं ठाईं | वांटिलीं वर्णा ॥ ८२५ ॥

आत्मप्रकृतीचे=वागण्याची पद्धत, स्वभाव

जैसें बापें जोडिलें लेंका | वांटिलें सूर्यें मार्ग पांथिका |
नाना व्यापार सेवकां | स्वामी जैसें ॥ ८२६ ॥

तैसी प्रकृतीच्या गुणीं | जया कर्माची वेल्हावणी |
केली आहे वर्णीं | चहूं इहीं ॥ ८२७ ॥

वेल्हावणी=व्यवहार व्यापार विस्तार  

तेथ सत्त्वें आपल्या आंगीं | समीन\-निमीन भागीं |
दोघे केले नियोगी | ब्राह्मण क्षत्रिय ॥ ८२८ ॥

समीन\-निमीन=सम विषम (अर्धे अर्धे)
नियोगी=अधिकारी

आणि रज परी सात्त्विक | तेथ ठेविलें वैश्य लोक |
रजचि तमभेसक | तेथ शूद्र ते गा ॥ ८२९ ॥

 भेसक=मिश्रित

ऐसा येकाचि प्राणिवृंदा | भेदु चतुर्वर्णधा |
गुणींचि प्रबुद्धा | केला जाण ॥ ८३० ॥

मग आपुलें ठेविलें जैसें | आइतेंचि दीपें दिसे |
गुणभिन्न कर्म तैसें | शास्त्र दावी ॥ ८३१ ॥

तेंचि आतां कोण कोण | वर्णविहिताचें लक्षण |
हें सांगों ऐक श्रवण\- | सौभाग्यनिधी ॥ ८३२ ॥


शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ ४२॥

  शमन दमन तप शौच्य(शुचिर्भूतता), शांती आर्जव(सरळता) ज्ञान(अध्यात्म) विज्ञान(जगत ज्ञान) आस्तिक्य हे ब्राह्मणाचे कर्म

तरी सर्वेंद्रियांचिया वृत्ती | घेऊनि आपुल्या हातीं |
बुद्धि आत्मया मिळे येकांतीं | प्रिया जैसी ॥ ८३३ ॥

ऐसा बुद्धीचा उपरमु | तया नाम म्हणिपे शमु |
तो गुण गा उपक्रमु | जया कर्माचा ॥ ८३४ ॥

उपरमु= अंतर्मुख शमु= शांत  उपक्रमु=सुरवात

आणि बाह्येंद्रियांचें धेंडें | पिटूनि विधीचेनि दंडें |
नेदिजे अधर्माकडे | कहींचि जावों ॥ ८३५ ॥

धेंडें=बलिष्ठ (गुंड)

तो पैं गा शमा विरजा | दमु गुण जेथ दुजा |
आणि स्वधर्माचिया वोजा | जिणें जें कां ॥ ८३६ ॥

विरजा=मदतनीस  वोजा=साठी कारणा

सटवीचिये रातीं | न विसंबिजे जेवीं वाती |
तैसा ईश्वरनिर्णयो चित्तीं | वाहणें सदा ॥ ८३७ ॥

सटवीचिये=प्रसूती नंतरची 5 वी रात्र
वाती=दिवा

तया नाम तप | ते तिजया गुणाचें रूप |
आणि शौचही निष्पाप | द्विविध जेथ ॥ ८३८ ॥

मन भावशुद्धी भरलें | आंग क्रिया अळंकारिलें |
ऐसें सबाह्य जियालें | साजिरें जें कां ॥ ८३९ ॥

तया नाम शौच पार्था | तो कर्मीं गुण जये चौथा |
आणि पृथ्वीचिया परी सर्वथा | सर्व जें साहाणें ॥ ८४० ॥

ते गा क्षमा पांडवा | गुण जेथ पांचवा |
स्वरांमाजीं सुहावा | पंचमु जैसा ॥ ८४१ ॥

सुहावा=मधुर सुंदर

आणि वांकडेनी वोघेंसीं | गंगा वाहे उजूचि जैसी |
कां पुटीं वळला ऊसीं | गोडी जैसी ॥ ८४२ ॥

पुटीं=पेरे
 
तैसा विषमांही जीवां- | लागीं उजुकारु बरवा |
तें आर्जव गा साहावा | जेथींचा गुण ॥ ८४३ ॥

 उजुकारु=सरळपणे वागणारा

आणि पाणियें प्रयत्नें माळी | अखंड जचे झाडामुळीं |
परी तें आघवेंचि फळीं | जाणे जेवीं ॥ ८४४ ॥

जचे=श्रमणे  जाणे=जाणून असतो

तैसें शास्त्राचारें तेणें | ईश्वरुचि येकु पावणें |
हें फुडें जें कां जाणणें | तें येथ ज्ञान ॥ ८४५ ॥

तें गा कर्मीं जिये | सातवा गुण होये |
आणि विज्ञान हें पाहें | एवंरूप ॥ ८४६ ॥

तरी सत्वशुद्धीचिये वेळे | शास्त्रें कां ध्यानबळें |
ईश्वरतत्त्वींचि मिळे | निष्टंकबुद्धी ॥ ८४७ ॥

निष्टंकबुद्धी=निश्चयात्मक

हें विज्ञान बरवें | गुणरत्न जेथ आठवें |
आणि आस्तिक्य जाणावें | नववा गुण ॥ ८४८ ॥

पैं राजमुद्रा आथिलिया | प्रजा भजे भलतया |
तेवीं शास्त्रें स्वीकारिलिया | मार्गमात्रातें ॥ ८४९ ॥

आदरें जें कां मानणें | तें आस्तिक्य मी म्हणें |
तो नववा गुण जेणें | कर्म तें साच ॥ ८५० ॥

एवं नवही शमादिक | गुण जेथ निर्दोख |
तें कर्म जाण स्वाभाविक | ब्राह्मणाचें ॥ ८५१ ॥

तो नवगुणरत्नाकरु | यया नवरत्नांचा हारु |
न फेडीत ले दिनकरु | प्रकाशु जैसा ॥ ८५२ ॥

ले= परिधान करणे

नाना चांपा चांपौळी पूजिला | चंद्रु चंद्रिका धवळला |
कां चंदनु निजें चर्चिला | सौरभ्यें जेवीं ॥ ८५३ ॥

 चांपौळी=चाफा कळ्या सौरभ्यें=सुगंध

तेवीं नवगुणटिकलग | लेणें ब्राह्मणाचें अव्यंग |
कहींचि न संडी आंग | ब्राह्मणाचें ॥ ८५४ ॥

टिकलग=जडले

आतां उचित जें क्षत्रिया | तेंहीं कर्म धनंजया |
सांगों ऐक प्रज्ञेचिया | भरोवरी ॥ ८५५ ॥
 
भरोवरी=सामग्री

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥ ४३॥
शौर्य तेज बुद्धी दक्षता युद्धी पलायन दान प्रजेवर सत्ता  हे क्षत्रिय कर्म
 
तरी भानु हा तेजें | नापेक्षी जेवीं विरजे |
कां सिंहें न पाहिजे | जावळिया ॥ ८५६ ॥

विरजे=मदत जावळिया=सहय्यक

ऐसा स्वयंभ जो जीवें लाठु | सावायेंवीण उद्भटु |
ते शौर्य गा जेथ श्रेष्ठु | पहिला गुण ॥ ८५७ ॥

लाठु =बलिष्ठ उद्भटु=शूर

आणि सूर्याचेनि प्रतापें | कोडिही नक्षत्र हारपे |
ना तो तरी न लोपे | सचंद्रीं तिहीं ॥ ८५८ ॥

सचंद्रीं=चंद्रा सहित  

तैसेनि आपुले प्रौढीगुणें | जगा या विस्मयो देणें |
आपण तरी क्षोभणें | कायसेनही ॥ ८५९ ॥

प्रौढीगुणें=मोठेपण

तें प्रागल्भ्यरूप तेजा | जिये कर्मीं गुण दुजा |
आणि धीरु तो तिजा | जेथींचा गुण ॥ ८६० ॥

प्रागल्भ्यरूप=(पाणीदार) श्रेष्ठ गुण

वरिपडलिया आकाश | बुद्धीचे डोळे मानस |
झांकी ना ते परीयेस | धैर्य जेथें ॥ ८६१ ॥

आणि पाणी हो कां भलतेतुकें | परी तें जिणौनि पद्म फांके |
कां आकाश उंचिया जिंके | आवडे तयातें ॥ ८६२ ॥

भलतेतुकें=हवे तेवढे खोल

तेवीं विविध अवस्था | पातलिया जिणौनि पार्था |
प्रज्ञाफळ तया अर्था | वेझ देणें जें ॥ ८६३ ॥

जिणौनि=जिंकून प्रज्ञाफळ = बुद्धी    वेझ देणें=मार्ग काढणे

तें दक्षत्व गा चोख | जेथ चौथा गुण देख |
आणि झुंज अलौकिक | तो पांचवा गुण ॥ ८६४ ॥
 
आदित्याचीं झाडें | सदा सन्मुख सूर्याकडे |
तेवीं समोर शत्रूपुढें | होणें जें कां ॥ ८६५ ॥

आदित्याचीं=सूर्यफूल

माहेवणी प्रयत्नेंसी | चुकविजे सेजे जैसी |
रिपू पाठी नेदिजे तैसी | समरांगणीं ॥ ८६६ ॥

माहेवणी=गरोदर

हा क्षत्रियाचेया आचारीं | पांचवा गुणेंद्रु अवधारीं |
चहूं पुरुषार्थां शिरीं | भक्ति जैसी ॥ ८६७ ॥

आणि जालेनि फुलें फळें | शाखिया जैसीं मोकळे |
कां उदार परीमळें | पद्माकरु ॥ ८६८ ॥

नाना आवडीचेनि मापें | चांदिणें भलतेणें घेपे |
पुढिलांचेनि संकल्पें | तैसें जें देणें ॥ ८६९ ॥

घेपे=घेणे

तें उमप गा दान | जेथ सहावें गुणरत्न |
आणि आज्ञे एकायतन | होणें जें कां ॥ ८७० ॥

उमप=अमाप एकायतन =एकनिष्ठ

पोषूनि अवयव आपुले | करविजतीं मानविले |
तेवीं पालणें लोभविलें | जग जें भोगणें ॥ ८७१ ॥

पालणें लोभविलें=प्रेमाने प्रतिपालण करणे

तया नाम ईश्वरभावो | जो सर्वसामर्थ्याचा ठावो |
तो गुणांमाजीं रावो | सातवा जेथ ॥ ८७२ ॥

ऐसें जें शौर्यादिकीं | इहीं सात गुणविशेखीं |
अळंकृत सप्तऋखीं | आकाश जैसें ॥ ८७३ ॥

तैसें सप्तगुणीं विचित्र | कर्म जें जगीं पवित्र |
तें सहज जाण क्षात्र | क्षत्रियाचें ॥ ८७४ ॥

नाना क्षत्रिय नव्हे नरु | तो सत्त्वसोनयाचा मेरु |
म्हणौनि गुणस्वर्गां आधारु | सातां इयां ॥ ८७५ ॥

नातरी सप्तगुणार्णवीं | परीवारली बरवी |
हे क्रिया नव्हे पृथ्वी | भोगीतसे तो ॥ ८७६ ॥

परीवारली=वेढली

कां गुणांचे सातांही ओघीं | हे क्रिया ते गंगा जगीं |
तया महोदधीचिया आंगीं | विलसे जैसी ॥ ८७७ ॥

महोदधीचिया=सागर

परी हें बहु असो देख | शौर्यादि गुणात्मक |
कर्म गा नैसर्गिक | क्षात्रजातीसी ॥ ८७८ ॥

आतां वैश्याचिये जाती | उचित जे महामती |
ते ऐकें गा निरुती | क्रिया सांगों ॥ ८७९ ॥

निरुती=उचित


कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ ४४॥

(शेती गोरक्षा ,व्यापार हे वैश्य कर्म, सेवा करणे हे शूद्र कर्म)

तरी भूमि बीज नांगरु | यया भांडवलाचा आधारु |
घेऊनि लाभु अपारु | मेळवणें जें ॥ ८८० ॥

किंबहुना कृषी जिणें | गोधनें राखोनि वर्तणें |
कां समर्घीची विकणें | महर्घीवस्तु ॥ ८८१ ॥

समर्घीची=स्वस्त     महर्घी=महाग

येतुलाचि पांडवा | वैश्यातें कर्माचा मेळावा |
हा वैश्यजातीस्वभावा | आंतुला जाण ॥ ८८२ ॥

आणि वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मण | हे द्विजन्में तिन्ही वर्ण |
ययांचें जें शुश्रूषण | तें शूद्रकर्म ॥ ८८३ ॥

पैं द्विजसेवेपरौतें | धांवणें नाहीं शूद्रातें |
एवं चतुर्वर्णोचितें | दाविलीं कर्में ॥ ८८४ ॥

by dr. vikrant tikone

 
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