Thursday, January 31, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या ७७२ ते ८१७ (त्रिविध सुख)






ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ७७२  ते ८१२     त्रिविध सुख
 

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥ ३६॥

(तीन प्रकरचे सुख ऐक, अभ्यासात गोड व दु:खाचा अंत करणारे )

म्हणे सुखत्रयसंज्ञा | सांगों म्हणौनि प्रतिज्ञा |
बोलिलों तें प्राज्ञा | ऐक आतां ॥ ७७२ ॥

तरी सुख तें गा किरीटी | दाविजेल तुज दिठी |
जें आत्मयाचिये भेटी | जीवासि होय ॥ ७७३ ॥

परी मात्रेचेनि मापें | दिव्यौषध जैसें घेपें |
कां कथिलाचें कीजे रुपें | रसभावनीं ॥ ७७४ ॥

नाना लवणाचें जळु | होआवया, दोनि चार वेळु |
देऊनि सांडिजती ढाळु | तोयाचें जेवीं ॥ ७७५ ॥

सांडिजती =सांडणे   ढाळु=हबके

तेवीं जालेनि सुखलेशें | जीवु भाविलिया अभ्यासें |
जीवपणाचें नासे | दुःख जेथें ॥ ७७६ ॥

भाविलिया=अनुभूती आल्यावर

तें येथ आत्मसुख | जालें असे त्रिगुणात्मक |
तेंही सांगों एकैक | रूप आतां ॥ ७७७ ॥


यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ३७॥

(सुरवातीला विषगत अंती अमृत तुल्य ते सुख सात्विक होते आत्मबुद्धी प्रसन्नेतून)

आतां चंदनाचें बूड | सर्पी जैसें दुवाड |
कां निधानाचें तोंड | विवसिया जेवीं ॥ ७७८ ॥

विवसिया=हडळ भूत

अगा स्वर्गींचें गोमटें | आडव यागसंकटें |
कां बाळपण दासटें | त्रासकाळें ॥ ७७९ ॥
आडव=त्रासदायक  दासटे=दु:खदायी कारक

हें असो दीपाचिये सिद्धी | अवघड धू आधीं |
नातरी तो औषधीं | जिभेचा ठावो ॥ ७८० ॥

ठावो=चटका किंवा कडवटपणा लागणे

तयापरी पांडवा | जया सुखाचा रिगावा |
विषम तेथ मेळावा | यमदमांचा ॥ ७८१ ॥

रिगावा=प्रवेश विषम=कठीण अवघड

देत सर्वस्नेहा मिठी | आगीं ऐसें वैराग्य उठी |
स्वर्ग संसारा कांटी | काढितचि ॥ ७८२ ॥

सर्वस्नेहा=प्रेम आसक्ती
कांटी =कुंपण काटे

विवेकश्रवणें खरपुसें | जेथ व्रताचरणें कर्कशें |
करितां जाती भोकसे | बुद्ध्यादिकांचे ॥ ७८३ ॥

भोकसे = इथे मालिन्य काढणे हा अर्थ (पेंढा भरलेले प्राणी करणे)

सुषुम्नेचेनि तोंडें | गिळिजे प्राणापानाचे लोंढे |
बोहणियेसीचि येवढें | भारी जेथ ॥ ७८४ ॥

बोहणियेसीचि =सुरवातीला

जें सारसांही विघडतां | होय वोहाहूनि वस्त काढितां |
ना भणंगु दवडितां | भाणयावरुनी ॥ ७८५ ॥

सारसांही = सारस पक्षी   विघडतां=ताटातुट होता
वोहाहूनि वस्त=कासेपासून वासरू काढता
भणंगु=भिकारी भाणयावरुनी=जेवणावरून
    
पैं मायेपुढौनि बाळक | काळें नेतां एकुलतें एक |
होय कां उदक | तुटतां मीना ॥ ७८६ ॥

तैसें विषयांचें घर | इंद्रियां सांडितां थोर |
युगांतु होय तें वीर | विराग साहाती ॥ ७८७ ॥

ऐसा जया सुखाचा आरंभु | दावी काठिण्याचा क्षोभु |
मग क्षीराब्धी लाभु | अमृताचा जैसा ॥ ७८८ ॥

पहिलया वैराग्यगरळा | धैर्यशंभु वोडवी गळा |
तरी ज्ञानामृतें सोहळा | पाहे जेथें ॥ ७८९ ॥

वैराग्य गरळा= वैराग्य विष  वोडवी=पुढे करणे

पैं कोलिताही कोपे ऐसें | द्राक्षांचें हिरवेपण असे |
तें परीपाकीं कां जैसें | माधुर्य आते ॥ ७९० ॥

कोलिताही=निखार्‍याचा चटका

तें वैराग्यादिक तैसें | पिकलिया आत्मप्रकाशें |
मग वैराग्येंसींही नाशे | अविद्याजात ॥ ७९१ ॥  

तेव्हां सागरीं गंगा जैसी | आत्मीं मीनल्या बुद्धि तैसी |
अद्वयानंदाची आपैसी | खाणी उघडे ॥ ७९२ ॥

ऐसें स्वानुभवविश्रामें | वैराग्यमूळ जें परिणमे |
तें सात्विक येणें नामें | बोलिजे सुख ॥ ७९३ ॥
 
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८॥

(विषय संयोग होता सुरवातीला गोड पण  अंती विष ते सुख राजस)

आणि विषयेंद्रियां | मेळु होतां धनंजया |
जें सुख जाय थडिया | सांडूनि दोन्ही ॥ ७९४ ॥

थडिया=तीर मर्यादा

अधिकारिया रिगतां गांवो | होय जैसा उत्साहो |
कां रिणावरी विवाहो | विस्तारिला ॥ ७९५ ॥

रिणावरी=ऋण

नाना रोगिया जिभेपासीं | केळें गोड साखरेसीं |
कां बचनागाची जैसी | मधुरता पहिली ॥ ७९६ ॥

पहिलें संवचोराचें मैत्र | हाटभेटीचें कलत्र |
कां लाघवियाचे विचित्र | विनोद ते ॥ ७९७ ॥

कलत्र=वेश्या लाघवियाचे=नकलाकर बहुरुपी

तैसें विषयेंद्रियदोखीं | जें सुख जीवातें पोखी |
मग उपडिला खडकीं | हंसु जैसा ॥ ७९८ ॥

उपडिला=आपटून मारणे

तैसी जोडी आघवी आटे | जीविताचा ठाय फिटे |
सुकृताचियाही सुटे | धनाची गांठी ॥ ७९९ ॥

जोडी=मिळवलेले सुकृता=पुण्य


आणिक भोगिलें जें कांहीं | तें स्वप्न तैसें होय नाहीं |
मग हानीच्याचि घाईं | लोळावें उरे ॥ ८०० ॥

होय नाहीं =झाले न झाल्यागत घाईं=घाव

ऐसें आपत्ती जें सुख | ऐहिकीं परिणमे देख |
परत्रीं कीर विख | होऊनि परते ॥ ८०१ ॥

आपत्ती=संकटमय

जे इंद्रियजाता लळा | दिधलिया धर्माचा मळा |
जाळूनि भोगिजे सोहळा | विषयांचा जेथ ॥ ८०२ ॥

तेथ पातकें बांधिती थावो | तियें नरकीं देती ठावो |
जेणें सुखें हा अपावो | परत्रीं ऐसा ॥ ८०३ ॥

थावो=बळ  बळावतात

पैं नामें विष महुरें | परी मारूनि अंतीं खरें |
तैसें आदि जें गोडिरें | अंतीं कडू ॥ ८०४ ॥

महुरें=गोड

पार्था तें सुख साचें | वळिलें आहे रजाचें |
म्हणौनि न शिवें तयाचें | आंग कहीं ॥ ८०५ ॥


यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३९॥

सुरवात व अंतीहि बांधून मोहात ,निद्रा आळस प्रमाद (दुर्लक्ष चूक ) यापासून होते ते तामस सुख

आणि अपेयाचेनि पानें | अखाद्याचेनि भोजनें |
स्वैरस्त्रीसंनिधानें | होय जें सुख ॥ ८०६ ॥

का पुढिलांचेनि मारें | नातरी परस्वापहारें |
जें सुख अवतरे | भाटाच्या बोलीं ॥ ८०७ ॥

परस्वापहारें=दुसर्‍याचे सर्वस्व हरण करणे

जें आलस्यावरी पोखिजे | निद्रेमाजीं जें देखिजे |
जयाच्या आद्यंतीं भुलिजे | आपुली वाट ॥ ८०८ ॥

तें गा सुख पार्था | तामस जाण सर्वथा |
हें बहु न सांगोंचि जें कथा | असंभाव्य हे ॥ ८०९ ॥

ऐसें कर्मभेदें मुदलें | फळसुखही त्रिधा जालें |
तें हें यथागमें केलें | गोचर तुज ॥ ८१० ॥

ते कर्ता कर्म कर्मफळ | ये त्रिपुटी येकी केवळ |
वांचूनि कांहींचि नसे स्थूल | सूक्ष्मीं इये ॥ ८११ ॥

आणि हे तंव त्रिपुटी | तिहीं गुणीं इहीं किरीटी |
गुंफिली असे पटीं | तांतुवीं जैसी ॥ ८१२ ॥



न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ ४०॥
या पृथ्वीवर अथवा स्वर्गात देवलोकात या प्रकृती गुणातून कुणी मुक्त नाही

म्हणौनि प्रकृतीच्या आवलोकीं | न बंधिजे इहीं सत्वादिकीं |
तैसी स्वर्गीं ना मृत्युलोकीं | आथी वस्तु ॥ ८१३ ॥

प्रकृतीच्या=माया

कैंचा लोंवेवीण कांबळा | मातियेवीण मोदळा |
का जळेंवीण कल्लोळा | होणें आहे ? ॥ ८१४ ॥

लोंवेवीण=लोकर मोदळा=ढेकूळ

तैसें न होनि गुणाचें | सृष्टीची रचना रचे |
ऐसें नाहींचि गा साचें | प्राणिजात ॥ ८१५ ॥

यालागीं हें सकळ | तिहीं गुणांचेंचि केवळ |
घडलें आहे निखिळ | ऐसें जाण ॥ ८१६ ॥

गुणीं देवां त्रयी लाविली | गुणीं लोकीं त्रिपुटी पाडिली |
चतुर्वर्णा घातली | सिनानीं उळिगें ॥ ८१७ ॥

देवां त्रयी=त्रिदेव केले त्रिपुटी=तीन भाग (स्वर्ग पृथ्वी पाताळ)
सिनानीं वेग वेगळी    उळिगें= व्यवसाय कष्ट

by dr. vikrant tikone

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