ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ७७२ ते ८१२ त्रिविध सुख
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥ ३६॥
(तीन प्रकरचे सुख ऐक, अभ्यासात गोड व दु:खाचा अंत करणारे )
म्हणे सुखत्रयसंज्ञा | सांगों म्हणौनि प्रतिज्ञा |
बोलिलों तें प्राज्ञा | ऐक आतां ॥ ७७२ ॥
तरी सुख तें गा किरीटी | दाविजेल तुज दिठी |
जें आत्मयाचिये भेटी | जीवासि होय ॥ ७७३ ॥
परी मात्रेचेनि मापें | दिव्यौषध जैसें घेपें |
कां कथिलाचें कीजे रुपें | रसभावनीं ॥ ७७४ ॥
नाना लवणाचें जळु | होआवया, दोनि चार वेळु |
देऊनि सांडिजती ढाळु | तोयाचें जेवीं ॥ ७७५ ॥
सांडिजती
=सांडणे ढाळु=हबके
तेवीं जालेनि सुखलेशें | जीवु भाविलिया अभ्यासें |
जीवपणाचें नासे | दुःख जेथें ॥ ७७६ ॥
भाविलिया=अनुभूती आल्यावर
तें येथ आत्मसुख | जालें असे त्रिगुणात्मक |
तेंही सांगों एकैक | रूप आतां ॥ ७७७ ॥
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ३७॥
(सुरवातीला विषगत अंती अमृत तुल्य ते सुख सात्विक होते आत्मबुद्धी प्रसन्नेतून)
आतां चंदनाचें बूड | सर्पी जैसें दुवाड |
कां निधानाचें तोंड | विवसिया जेवीं ॥ ७७८ ॥
विवसिया=हडळ भूत
अगा स्वर्गींचें गोमटें | आडव यागसंकटें |
कां बाळपण दासटें | त्रासकाळें ॥ ७७९ ॥
आडव=त्रासदायक दासटे=दु:खदायी कारक
हें असो दीपाचिये सिद्धी | अवघड धू आधीं |
नातरी तो औषधीं | जिभेचा ठावो ॥ ७८० ॥
ठावो=चटका किंवा कडवटपणा लागणे
तयापरी पांडवा | जया सुखाचा रिगावा |
विषम तेथ मेळावा | यमदमांचा ॥ ७८१ ॥
रिगावा=प्रवेश विषम=कठीण अवघड
देत सर्वस्नेहा मिठी | आगीं ऐसें वैराग्य उठी |
स्वर्ग संसारा कांटी | काढितचि ॥ ७८२ ॥
सर्वस्नेहा=प्रेम आसक्ती
कांटी =कुंपण
काटे
विवेकश्रवणें खरपुसें | जेथ व्रताचरणें कर्कशें |
करितां जाती भोकसे | बुद्ध्यादिकांचे ॥ ७८३ ॥
भोकसे = इथे मालिन्य
काढणे हा अर्थ (पेंढा भरलेले प्राणी करणे)
सुषुम्नेचेनि तोंडें | गिळिजे प्राणापानाचे लोंढे |
बोहणियेसीचि येवढें | भारी जेथ ॥ ७८४ ॥
बोहणियेसीचि
=सुरवातीला
जें सारसांही विघडतां | होय वोहाहूनि वस्त काढितां |
ना भणंगु दवडितां | भाणयावरुनी ॥ ७८५ ॥
सारसांही
= सारस पक्षी
विघडतां=ताटातुट होता
वोहाहूनि
वस्त=कासेपासून वासरू काढता
भणंगु=भिकारी भाणयावरुनी=जेवणावरून
पैं मायेपुढौनि बाळक | काळें नेतां एकुलतें एक |
होय कां उदक | तुटतां मीना ॥ ७८६ ॥
तैसें विषयांचें घर | इंद्रियां सांडितां थोर |
युगांतु होय तें वीर | विराग साहाती ॥ ७८७ ॥
ऐसा जया सुखाचा आरंभु | दावी काठिण्याचा क्षोभु |
मग क्षीराब्धी लाभु | अमृताचा जैसा ॥ ७८८ ॥
पहिलया वैराग्यगरळा | धैर्यशंभु वोडवी गळा |
तरी ज्ञानामृतें सोहळा | पाहे जेथें ॥ ७८९ ॥
वैराग्य गरळा= वैराग्य विष वोडवी=पुढे करणे
पैं कोलिताही कोपे ऐसें | द्राक्षांचें हिरवेपण असे |
तें परीपाकीं कां जैसें | माधुर्य आते ॥ ७९० ॥
कोलिताही=निखार्याचा चटका
तें वैराग्यादिक तैसें | पिकलिया आत्मप्रकाशें |
मग वैराग्येंसींही नाशे | अविद्याजात ॥ ७९१ ॥
तेव्हां सागरीं गंगा जैसी | आत्मीं मीनल्या बुद्धि तैसी |
अद्वयानंदाची आपैसी | खाणी उघडे ॥ ७९२ ॥
ऐसें स्वानुभवविश्रामें | वैराग्यमूळ जें परिणमे |
तें सात्विक येणें नामें | बोलिजे सुख ॥ ७९३ ॥
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८॥
(विषय संयोग होता सुरवातीला गोड पण अंती विष ते सुख राजस)
आणि विषयेंद्रियां | मेळु होतां धनंजया |
जें सुख जाय थडिया | सांडूनि दोन्ही ॥ ७९४ ॥
थडिया=तीर मर्यादा
अधिकारिया रिगतां गांवो | होय जैसा उत्साहो |
कां रिणावरी विवाहो | विस्तारिला ॥ ७९५ ॥
रिणावरी=ऋण
नाना रोगिया जिभेपासीं | केळें गोड साखरेसीं |
कां बचनागाची जैसी | मधुरता पहिली ॥ ७९६ ॥
पहिलें संवचोराचें मैत्र | हाटभेटीचें कलत्र |
कां लाघवियाचे विचित्र | विनोद ते ॥ ७९७ ॥
कलत्र=वेश्या लाघवियाचे=नकलाकर बहुरुपी
तैसें विषयेंद्रियदोखीं | जें सुख जीवातें पोखी |
मग उपडिला खडकीं | हंसु जैसा ॥ ७९८ ॥
उपडिला=आपटून मारणे
तैसी जोडी आघवी आटे | जीविताचा ठाय फिटे |
सुकृताचियाही सुटे | धनाची गांठी ॥ ७९९ ॥
जोडी=मिळवलेले सुकृता=पुण्य
आणिक भोगिलें जें कांहीं | तें स्वप्न तैसें होय नाहीं |
मग हानीच्याचि घाईं | लोळावें उरे ॥ ८०० ॥
होय
नाहीं =झाले न झाल्यागत घाईं=घाव
ऐसें आपत्ती जें सुख | ऐहिकीं परिणमे देख |
परत्रीं कीर विख | होऊनि परते ॥ ८०१ ॥
आपत्ती=संकटमय
जे इंद्रियजाता लळा | दिधलिया धर्माचा मळा |
जाळूनि भोगिजे सोहळा | विषयांचा जेथ ॥ ८०२ ॥
तेथ पातकें बांधिती थावो | तियें नरकीं देती ठावो |
जेणें सुखें हा अपावो | परत्रीं ऐसा ॥ ८०३ ॥
थावो=बळ बळावतात
पैं नामें विष महुरें | परी मारूनि अंतीं खरें |
तैसें आदि जें गोडिरें | अंतीं कडू ॥ ८०४ ॥
महुरें=गोड
पार्था तें सुख साचें | वळिलें आहे रजाचें |
म्हणौनि न शिवें तयाचें | आंग कहीं ॥ ८०५ ॥
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३९॥
सुरवात व अंतीहि बांधून मोहात ,निद्रा आळस प्रमाद (दुर्लक्ष चूक ) यापासून होते ते तामस सुख
आणि अपेयाचेनि पानें | अखाद्याचेनि भोजनें |
स्वैरस्त्रीसंनिधानें | होय जें सुख ॥ ८०६ ॥
का पुढिलांचेनि मारें | नातरी परस्वापहारें |
जें सुख अवतरे | भाटाच्या बोलीं ॥ ८०७ ॥
परस्वापहारें=दुसर्याचे सर्वस्व हरण करणे
जें आलस्यावरी पोखिजे | निद्रेमाजीं जें देखिजे |
जयाच्या आद्यंतीं भुलिजे | आपुली वाट ॥ ८०८ ॥
तें गा सुख पार्था | तामस जाण सर्वथा |
हें बहु न सांगोंचि जें कथा | असंभाव्य हे ॥ ८०९ ॥
ऐसें कर्मभेदें मुदलें | फळसुखही त्रिधा जालें |
तें हें यथागमें केलें | गोचर तुज ॥ ८१० ॥
ते कर्ता कर्म कर्मफळ | ये त्रिपुटी येकी केवळ |
वांचूनि कांहींचि नसे स्थूल | सूक्ष्मीं इये ॥ ८११ ॥
आणि हे तंव त्रिपुटी | तिहीं गुणीं इहीं किरीटी |
गुंफिली असे पटीं | तांतुवीं जैसी ॥ ८१२ ॥
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ ४०॥
या पृथ्वीवर अथवा स्वर्गात देवलोकात या प्रकृती गुणातून कुणी मुक्त नाही
म्हणौनि प्रकृतीच्या आवलोकीं | न बंधिजे इहीं सत्वादिकीं |
तैसी स्वर्गीं ना मृत्युलोकीं | आथी वस्तु ॥ ८१३ ॥
प्रकृतीच्या=माया
कैंचा लोंवेवीण कांबळा | मातियेवीण मोदळा |
का जळेंवीण कल्लोळा | होणें आहे ? ॥ ८१४ ॥
लोंवेवीण=लोकर मोदळा=ढेकूळ
तैसें न होनि गुणाचें | सृष्टीची रचना रचे |
ऐसें नाहींचि गा साचें | प्राणिजात ॥ ८१५ ॥
यालागीं हें सकळ | तिहीं गुणांचेंचि केवळ |
घडलें आहे निखिळ | ऐसें जाण ॥ ८१६ ॥
गुणीं देवां त्रयी लाविली | गुणीं लोकीं त्रिपुटी पाडिली |
चतुर्वर्णा घातली | सिनानीं उळिगें ॥ ८१७ ॥
देवां
त्रयी=त्रिदेव केले त्रिपुटी=तीन भाग (स्वर्ग पृथ्वी पाताळ)
सिनानीं
वेग वेगळी
उळिगें= व्यवसाय कष्ट
by dr. vikrant tikone
No comments:
Post a Comment