ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ६९० ते ७३२
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥ २९॥
(व धृती यांचेही गुणामुळे त्रिविध भेद होतात ते नि:शेष प्रथक करून सगीतले आहेत )
आतां अविद्येचिया गांवीं | मोहाची वेढूनि मदवी |
संदेहाचीं आघवीं | लेऊनि लेणीं ॥ ६९० ॥
मदवी=वस्त्र
आत्मनिश्चयाची बरव | जया आरिसां पाहे सावयव |
तिये बुद्धीचीही धांव | त्रिधा असे ॥ ६९१ ॥
बरव =शोभा
अगा सत्वादि गुणीं इहीं | कायी एक तिहीं ठायीं |
न कीजेचि येथ पाहीं | जगामाजीं ॥ ६९२ ॥
कायी एक
तिहीं=तिघांपैकी एक
आगी न वसतां पोटीं | कवण काष्ठ असे सृष्टीं |
तैसें तें कैंचें दृश्यकोटीं | त्रिविध जें नोहे ॥ ६९३ ॥
दृश्यकोटीं=दृश्य जगात
म्हणौनि तिहीं गुणीं | बुद्धी केली त्रिगुणी |
धृतीसिही वांटणी | तैसीचि असे ॥ ६९४ ॥
तेंचि येक वेगळालें | यथा चिन्हीं अळंकारलें |
सांगिजैल उपाइलें | भेदलेपणें ॥ ६९५ ॥
परी बुद्धि धृति इयां | दोहीं भागामाजीं धनंजया |
आधीं रूप बुद्धीचिया | भेदासि करूं ॥ ६९६ ॥
तरी उत्तमा मध्यमा निकृष्टा | संसारासि गा सुभटा |
प्राणियां येतिया वाटा | तिनी आथी ॥ ६९७ ॥
जे अकरणीय काम्य निषिद्ध | ते हे मार्ग तिन्ही प्रसिद्ध |
संसारभयें सबाध | जीवां ययां ॥ ६९८ ॥
काम्य=कामनेने प्रेरित होवून केलेले
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ ३०॥
प्रवृत्तिं निवृत्तिं, कार्य अकार्ये, भय अभय,
बन्धं मोक्षं, कशात आहे हे जाणती ती सात्विक बुद्धी
म्हणौनि अधिकारें मानिलें | जें विधीचेनि वोघें आलें |
तें एकचि येथ भलें | नित्य कर्म ॥ ६९९ ॥
तेंचि आत्मप्राप्ति फळ | दिठी सूनि केवळ |
कीजे जैसें कां जळ | सेविजे ताहनें ॥ ७०० ॥
येतुलेनि तें कर्म | सांडी जन्मभय विषम |
करूनि दे उगम | मोक्षसिद्धि ॥ ७०१ ॥
विषम=वाईट कठीण
ऐसें करी तो भला | संसारभयें सांडिला |
करणीयत्वें आला | मुमुक्षुभागा ॥ ७०२ ॥
तेथ जे बुद्धि ऐसा | बळिया बांधे भरंवसा |
मोक्षु ठेविला ऐसा | जोडेल येथ ॥ ७०३ ॥
म्हणौनि निवृत्तीची मांडिली | सूनि प्रवृत्तितळीं |
इये कर्मीं बुडकुळी | द्यावीं कीं ना ? ॥ ७०४ ॥
सूनि=प्रवेशून बुडकुळी=बुडी
तृषार्ता उदकें जिणें | कां पुरीं पडलिया पोहणें |
अंधकूपीं गति किरणें | सूर्याचेनि ॥ ७०५ ॥
नाना पथ्येंसीं औषध लाहे | तरी रोगें दाटलाही जिये |
का मीना जिव्हाळा होये | जळाचा जरी ॥ ७०६ ॥
तरी तयाच्या जीविता | नाहीं जेवीं अन्यथा |
तैसें कर्मीं इये वर्ततां | जोडेचि मोक्षु ॥ ७०७ ॥
हें करणीयाचिया कडे | जें ज्ञान आथी चोखडें |
आणि अकरणीय हें फुडें | ऐसें जाण ॥ ७०८ ॥
करणीयाचिया=प्रवृतिच्या फुडें=नीट
जीं तिथें काम्यादिकें | संसारभयदायकें |
अकृत्यपणाचें आंबुखें | पडिलें जयां ॥ ७०९ ॥
आंबुखें= शिंतोडा ( डाग)
तिये कर्मीं अकार्यीं | जन्ममरणसमयीं |
प्रवृत्ति पळवी पायीं | मागिलींचि ॥ ७१० ॥
पैं आगीमाजीं न रिघवे | अथावीं न घालवे |
धगधगीत नागवे | शूळ जेवीं ॥ ७११ ॥
अथावीं=समुद्र खोल पाणी धगधगीत=तापलेल्या
नागवे=धरवत नाही
कां काळियानाग धुंधुवातु | देखोनि न घालवे हातु |
न वचवे खोपेआंतु | वाघाचिये ॥ ७१२ ॥
धुंधुवातु=फुत्कारता वचवे=जाणे
तैसें कर्म अकरणीय | देखोनि महाभय |
उपजे निःसंदेह | बुद्धी जिये ॥ ७१३ ॥
वाढिलें रांधूनि विखें | तेथें जाणिजे मृत्यु न चुके |
तेवीं निषेधीं कां देखे | बंधातें जे ॥ ७१४ ॥
मग बंधभयभरितीं | तियें निषिद्धीं प्राप्ती |
विनियोगु जाणे निवृत्ती | कर्माचिये ॥ ७१५ ॥
ऐसेनि कार्याकार्यविवेकी | जे प्रवृत्ति निवृत्ति मापकी |
खरा कुडा पारखी | जियापरी ॥ ७१६ ॥
मापकी=मोजणारी तुलना करणारी
तैसी कृत्याकृत्यशुद्धी | बुझे जे निरवधी |
सात्विक म्हणिपे बुद्धी | तेचि तूं जाण ॥ ७१७ ॥
बुझे=जाणते निरवधी=अमाप
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥ ३१॥
(धर्म अधर्मं कार्यं अकार्य याचा बोध न होणारी बुद्धी राजस )
आणि बकाच्या गांवीं | घेपे क्षीरनीर सकलवी |
कां अहोरात्रींची गोंवी | आंधळें नेणे ॥ ७१८ ॥
सकलवी=सगळे गोंवी=गुंता
जया फुलाचा मकरंदु फावे | तो काष्ठें कोरूं धांवे |
परी भ्रमरपणा नव्हे | अव्हांटा जेवीं ॥ ७१९ ॥
अव्हांटा=विसंगत
तैसीं इयें कार्याकार्यें | धर्माधर्मरूपें जियें |
तियें न चोजवितां जाये | जाणती जे कां ॥ ७२० ॥
अगा डोळांवीण मोतियें | घेतां पाडु मिळे विपायें |
न मिळणें तें आहे | ठेविलें तेथें ॥ ७२१ ॥
पाडु=योग्य
तैसें अकरणीय अवचटें | नोडवे तरीच लोटे |
येऱ्हवीं जाणें एकवटें | दोन्ही जे कां ॥ ७२२ ॥
अवचटें =चुकून नोडवे=न ओढवे (समोर
आले नाही तर)
लोटे=दूर करी (दोन्ही=चांगले वाईट)
ते गा बुद्धि चोखविषीं | जाण येथ राजसी |
अक्षत टाकिली जैसी | मांदियेवरी ॥ ७२३ ॥
चोखविषीं=चांगली जाण टाकिली =वाटली
मांदियेवरी=गर्दीवर
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ ३२॥
आणि राजा जिया वाटा जाये | ते चोरांसि आडव होये |
कां राक्षसां दिवो पाहे | राती होऊनि ॥ ७२४ ॥
नाना निधानचि निदैवा | होये कोळसयाचा उडवा |
पैं असतें आपणपें जीवा | नाहीं जालें ॥ ७२५ ॥
उडवा=ढीग
तैसें धर्मजात तितुकें | जिये बुद्धीसी पातकें |
साच तें लटिकें | ऐसेंचि बुझे ॥ ७२६ ॥
ते आघवेचि अर्थ | करूनि घाली अनर्थ |
गुण ते ते व्यवस्थित | दोषचि मानी ॥ ७२७ ॥
किंबहुना श्रुतिजातें | अधिष्ठूनि केलें सरतें |
तेतुलेंही उपरतें | जाणे जे बुद्धी ॥ ७२८ ॥
उपरतें=विपरीत
ते कोणातेंही न पुसतां | तामसी जाणावी पंडुसुता |
रात्री काय धर्मार्था | साच करावी | ॥ ७२९ ॥
धर्मार्था=धर्म कार्या
एवं बुद्धीचे भेद | तिन्ही तुज विशद |
सांगितले स्वबोध\- | कुमुदचंद्रा ॥ ७३० ॥
स्वरूप
बोध रूपी कमळास चंद्रमा
आतां ययाचि बुद्धिवृत्ती | निष्टंकिला कर्मजातीं |
खांदु मांडिजे धृती | त्रिविधा तया ॥ ७३१ ॥
निष्टंकिला= निश्चित
खांदु मांडिजे =आधार देणे
तिये धृतीचेही विभाग | तिन्ही यथालिंग |
सांगिजती चांग | अवधान देईं ॥ ७३२ ॥
http://dnyaneshwariabhyas.blogspot.in/
तिये धृतीचेही विभाग | तिन्ही यथालिंग |
सांगिजती चांग | अवधान देईं ॥ ७३२ ॥
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by dr. vikrant tikone
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