Saturday, January 12, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ,ओव्या ५८६ ते ६३० त्रिविध कर्म




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ५८६ ते ६३० त्रिविध कर्म


नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ २३॥

(नेमिले ,न गुंतता ,राग द्वेष रहित,फलपेक्षा न ठेवता केलेलं कर्म सात्विक)

तरी स्वाधिकाराचेनि मार्गें | आलें जें मानिलें आंगें |
पतिव्रतेचेनि परीष्वंगें | प्रियातें जैसें ॥ ५८६ ॥

परीष्वंगें =आलिंगणे

सांवळ्या आंगा चंदन | प्रमदालोचनीं अंजन |
तैसें अधिकारासी मंडण | नित्यपणें जें ॥ ५८७ ॥

मंडण =शोभा

तें नित्य कर्म भलें | होय नैमित्तिकीं सावाइलें |
सोनयासि जोडलें | सौरभ्य जैसें ॥ ५८८ ॥

सावाइलें =अधिक चांगले
 
आणि आंगा जीवाची संपत्ती | वेंचूनि बाळाची करी पाळती |
परी जीवें उबगणें हें स्थिती | न पाहे माय ॥ ५८९ ॥

तैसें सर्वस्वें कर्म अनुष्ठी | परी फळ न सूये दिठी |
उखिती क्रिया पैठी | ब्रह्मींचि करी ॥ ५९० ॥

उखिती=जशीच्या तशी    पैठी=स्वाधीन अर्पण करणे  ठेवणे

आणि प्रिय आलिया स्वभावें | शंबळ उरे वेंचे ठाउवें |
नव्हे तैसें सत्प्रसंगें करावें | पारुषे जरी ॥ ५९१ ॥


शंबळ = अन्नसामग्री  उरे वेंचे=सरो उरो
पारुषे =विफल झाले तरी (तसे करतांना नित्य कर्म)   

तरी अकरणाचेनि खेदें | द्वेषातें जीवीं न बांधे |
जालियाचेनि आनंदें | फुंजों नेणें ॥ ५९२ ॥
अकरणाचेनि=कर्म झाले नाही तरी

ऐस{}सिया हातवटिया | कर्म निफजे जें धनंजया |
जाण सात्विक हें तया | गुणनाम गा ॥ ५९३ ॥

ययावरी राजसाचें | लक्षण सांगिजेल साचें |
न करीं अवधानाचें | वाणेंपण ॥ ५९४ ॥

वाणेंपण=कमतरता


यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥ २४॥

(कामना धरून ,अहंकार पूर्वक ,खूप सायासाने केलेले कर्म राजस)

तरी घरीं मातापितरां | धड बोली नाहीं संसारा |
येर विश्व भरी आदरा | मूर्खु जैसा ॥ ५९५ ॥

का तुळशीचिया झाडा | दुरूनि न घापें सिंतोडा |
द्राक्षीचिया तरी बुडा | दूधचि लाविजे ॥ ५९६ ॥

तैसी नित्यनैमित्तिकें | कर्में जियें आवश्यकें |
तयांचेविषयीं न शके | बैसला उठूं ॥ ५९७ ॥

येरां काम्याचेनि तरी नांवें | देह सर्वस्व आघवें |
वेचितांही न मनवे | बहु ऐसें ॥ ५९८ ॥

अगा देवढी वाढी लाहिजे | तेथ मोल देतां न धाइजे |
पेरितां पुरें न म्हणिजे | बीज जेवीं ॥ ५९९ ॥

देवढी वाढी =दीड पट वाढ

कां परीसु आलिया हातीं | लोहालागीं सर्वसंपत्ती |
वेचितां ये उन्नती | साधकु जैसा ॥ ६०० ॥

वेचितां=खर्च करता    उन्नती=उत्साह उन्माद

तैसीं फळें देखोनि पुढें | काम्यकर्में दुवाडें |
करी परी तें थोकडें | केलेंही मानी ॥ ६०१ ॥

दुवाडें=कठीण

तेणें फळकामुकें | यथाविधी नेटकें |
काम्य कीजे तितुकें | क्रियाजात ॥ ६०२ ॥

आणि तयाही केलियाचें | तोंडीं लावी दौंडीचें |
कर्मी या नांवपाटाचें | वाणें सारी ॥ ६०३ ॥

दौंडीचें =दवंडी
नांवपाटाचें =मानाचे स्थान(लौकिक )
वाणें सारी =अंगावर घालणे


तैसा भरे कर्माहंकारु | मग पिता अथवा गुरु |
ते न मनी काळज्वरु | औषध जैसें ॥ ६०४ ॥

तैसेनि साहंकारें | फळाभिलाषियें नरें |
कीजे गा आदरें | जें जें कांहीं ॥ ६०५ ॥

परी तेंही करणें बहुवसा | वळघोनि करी सायासा |
जीवनोपावो कां जैसा | कोल्हाटियांचा ॥ ६०६ ॥

सायासा=कष्ट जीवनोपावो=जगण्यासाठी केलेली खटाटोप

एका कणालागीं उंदिरु | आसका उपसे डोंगरु |
कां शेवाळोद्देशें दर्दुरु | समुद्रु डहुळी ॥ ६०७ ॥

आसका =सगळा   डहुळी=घुसळी


पैं भिकेपरतें न लाहे | तऱ्ही गारुडी सापु वाहे |
काय कीजे शीणुचि होये | गोडु येकां ॥ ६०८ ॥

शीणुचि=त्रास

हे असो परमाणूचेनि लाभें | पाताळ लंघिती वोळंबे |
तैसें स्वर्गसुखलोभें | विचंबणें जें ॥ ६०९ ॥

वोळंबे =वाळवी

तें काम्य कर्म सक्लेश | जाणावें येथ राजस |
आतां चिन्ह परिस | तामसाचें ॥ ६१० ॥


अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५॥

(अविचारने, नाश हिंसा न पाहता ,सामर्थ्य नसता केलेले मोहग्रस्त कर्म तामस )

तरी तें गा तामस कर्म | जें निंदेचें काळें धाम |
निषेधाचें जन्म | सांच जेणें ॥ ६११ ॥

जें निपजविल्यापाठीं | कांहींच न दिसे दिठी |
रेघ काढलिया पोटीं | तोयाचे जेवीं ॥ ६१२ ॥

कां कांजी घुसळलिया | कां राखोंडी फुंकलिया |
कांहीं न दिसे गाळिलिया | वाळुघाणा ॥ ६१३ ॥

नाना उपणिलिया भूंस | कां विंधिलिया आकाश |
नाना मांडिलिया पाश | वारयासी ॥ ६१४ ॥

हें आवघेंचि जैसें | वांझें होऊनि नासे |
जें केलिया पाठीं तैसें | वायांचि जाय ॥ ६१५ ॥

येऱ्हवीं नरदेहाही येवढें | धन आटणीये पडे |
जें कर्म निफजवितां मोडे | जगाचें सुख ॥ ६१६ ॥

आटणीये=वाया जाई   निफजवितां=करतांना

जैसा कमळवनीं फांसु | काढिलिया कांटसु |
आपण झिजे नाशु | कमळां करी ॥ ६१७ ॥

कां आपण आंगें जळे | आणि नागवी जगाचे डोळे |
पतंगु जैसा सळें | दीपाचेनि ॥ ६१८ ॥

नागवी जगाचे डोळे =अंधार करतो   सळें =स्पर्शाने

तैसें सर्वस्व वायां जावो | वरी देहाही होय घावो |
परी पुढिलां अपावो | निफजविजे जेणें ॥ ६१९ ॥

माशी आपणयातें गिळवी | परी पुढीला वांती शिणवी |
तें कश्मळ आठवी | आचरण जें ॥ ६२० ॥
कश्मळ=पापी

तेंही करावयो दोषें | मज सामर्थ्य असे कीं नसे |
हेंहीं पुढील तैसें | न पाहतां करी ॥ ६२१ ॥

केवढा माझा उपावो | करितां कोण प्रस्तावो |
केलियाही आवो | काय येथ ॥ ६२२ ॥

उपावो=सामर्थ्य, प्रस्तावो=प्रसंग  आवो=लाभ

इये जाणिवेची सोये | अविवेकाचेनि पायें |
पुसोनियां होये | साटोप कर्मीं ॥ ६२३ ॥

सोये=मार्ग    साटोप=प्रवृत

आपला वसौटा जाळुनी | बिसाटे जैसा वन्ही |
कां स्वमर्यादा गिळोनि | सिंधु उठी ॥ ६२४ ॥

वसौटा =वस्ती    बिसाटे=पसरे

मग नेणें बहु थोडें | न पाहे मागें पुढें |
मार्गामार्ग येकवढें | करीत चाले ॥ ६२५ ॥

तैसें कृत्याकृत्य सरकटित | आपपर नुरवित |
कर्म होय तें निश्चित | तामस जाण ॥ ६२६ ॥
 
ऐसी गुणत्रयभिन्ना | कर्माची गा अर्जुना |
हे केली विवंचना | उपपत्तींसीं ॥ ६२७ ॥

विवंचना=विस्तार

आतां ययाचि कर्मा भजतां | कर्माभिमानिया कर्ता |
तो जीवुही त्रिविधता | पातला असे ॥ ६२८ ॥

चतुराश्रमवशें | एकु पुरुषु चतुर्धा दिसे |
कर्तया त्रैविध्य तैसें | कर्मभेदें ॥ ६२९ ॥

तरी तयां तिहीं आंतु | सात्विक तंव प्रस्तुतु |
सांगेन दत्तचित्तु | आकर्णीं तूं ॥ ६३० ॥

by dr. vikrant tikone

******************************************************

No comments:

Post a Comment