ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ५८६ ते ६३० त्रिविध कर्म
नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ २३॥
(नेमिले ,न गुंतता ,राग द्वेष रहित,फलपेक्षा न ठेवता केलेलं कर्म सात्विक)
तरी स्वाधिकाराचेनि मार्गें | आलें जें मानिलें आंगें |
पतिव्रतेचेनि परीष्वंगें | प्रियातें जैसें ॥ ५८६ ॥
परीष्वंगें =आलिंगणे
सांवळ्या आंगा चंदन | प्रमदालोचनीं अंजन |
तैसें अधिकारासी मंडण | नित्यपणें जें ॥ ५८७ ॥
तैसें अधिकारासी मंडण | नित्यपणें जें ॥ ५८७ ॥
मंडण =शोभा
तें नित्य कर्म भलें | होय नैमित्तिकीं
सावाइलें |
सोनयासि जोडलें | सौरभ्य जैसें ॥ ५८८ ॥
सोनयासि जोडलें | सौरभ्य जैसें ॥ ५८८ ॥
सावाइलें =अधिक चांगले
आणि आंगा जीवाची संपत्ती | वेंचूनि बाळाची करी पाळती |
परी जीवें उबगणें हें स्थिती | न पाहे माय ॥ ५८९ ॥
तैसें सर्वस्वें कर्म अनुष्ठी | परी फळ न सूये दिठी |
उखिती क्रिया पैठी | ब्रह्मींचि करी ॥ ५९० ॥
उखिती=जशीच्या तशी पैठी=स्वाधीन अर्पण करणे ठेवणे
आणि प्रिय आलिया स्वभावें | शंबळ उरे वेंचे ठाउवें |
नव्हे तैसें सत्प्रसंगें करावें | पारुषे जरी ॥ ५९१ ॥
शंबळ = अन्नसामग्री उरे वेंचे=सरो उरो
पारुषे =विफल झाले तरी (तसे करतांना
नित्य कर्म)
तरी अकरणाचेनि खेदें | द्वेषातें जीवीं न
बांधे |
जालियाचेनि आनंदें | फुंजों नेणें ॥ ५९२ ॥
जालियाचेनि आनंदें | फुंजों नेणें ॥ ५९२ ॥
अकरणाचेनि=कर्म झाले नाही तरी
ऐस{ऐ}सिया हातवटिया | कर्म निफजे जें धनंजया |
जाण सात्विक हें तया | गुणनाम गा ॥ ५९३ ॥
ययावरी राजसाचें | लक्षण सांगिजेल साचें |
न करीं अवधानाचें | वाणेंपण ॥ ५९४ ॥
वाणेंपण=कमतरता
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥ २४॥
(कामना धरून ,अहंकार पूर्वक ,खूप सायासाने केलेले कर्म राजस)
तरी घरीं मातापितरां | धड बोली नाहीं संसारा |
येर विश्व भरी आदरा | मूर्खु जैसा ॥ ५९५ ॥
का तुळशीचिया झाडा | दुरूनि न घापें सिंतोडा |
द्राक्षीचिया तरी बुडा | दूधचि लाविजे ॥ ५९६ ॥
तैसी नित्यनैमित्तिकें | कर्में जियें आवश्यकें |
तयांचेविषयीं न शके | बैसला उठूं ॥ ५९७ ॥
येरां काम्याचेनि तरी नांवें | देह सर्वस्व आघवें |
वेचितांही न मनवे | बहु ऐसें ॥ ५९८ ॥
अगा देवढी वाढी लाहिजे | तेथ मोल देतां न धाइजे |
पेरितां पुरें न म्हणिजे | बीज जेवीं ॥ ५९९ ॥
देवढी वाढी =दीड पट वाढ
कां परीसु आलिया हातीं | लोहालागीं सर्वसंपत्ती |
वेचितां ये उन्नती | साधकु जैसा ॥ ६०० ॥
वेचितां=खर्च करता उन्नती=उत्साह उन्माद
तैसीं फळें देखोनि पुढें | काम्यकर्में दुवाडें |
करी परी तें थोकडें | केलेंही मानी ॥ ६०१ ॥
दुवाडें=कठीण
तेणें फळकामुकें | यथाविधी नेटकें |
काम्य कीजे तितुकें | क्रियाजात ॥ ६०२ ॥
आणि तयाही केलियाचें | तोंडीं लावी दौंडीचें |
कर्मी या नांवपाटाचें | वाणें सारी ॥ ६०३ ॥
दौंडीचें =दवंडी
नांवपाटाचें =मानाचे स्थान(लौकिक )
वाणें सारी =अंगावर घालणे
तैसा भरे कर्माहंकारु | मग पिता अथवा गुरु |
ते न मनी काळज्वरु | औषध जैसें ॥ ६०४ ॥
तैसेनि साहंकारें | फळाभिलाषियें नरें |
कीजे गा आदरें | जें जें कांहीं ॥ ६०५ ॥
परी तेंही करणें बहुवसा | वळघोनि करी सायासा |
जीवनोपावो कां जैसा | कोल्हाटियांचा ॥ ६०६ ॥
सायासा=कष्ट जीवनोपावो=जगण्यासाठी केलेली खटाटोप
एका कणालागीं उंदिरु | आसका उपसे डोंगरु |
कां शेवाळोद्देशें दर्दुरु | समुद्रु डहुळी ॥ ६०७ ॥
कां शेवाळोद्देशें दर्दुरु | समुद्रु डहुळी ॥ ६०७ ॥
आसका =सगळा डहुळी=घुसळी
पैं भिकेपरतें न लाहे | तऱ्ही गारुडी सापु वाहे |
काय कीजे शीणुचि होये | गोडु येकां ॥ ६०८ ॥
काय कीजे शीणुचि होये | गोडु येकां ॥ ६०८ ॥
शीणुचि=त्रास
हे असो परमाणूचेनि लाभें | पाताळ लंघिती वोळंबे |
तैसें स्वर्गसुखलोभें | विचंबणें जें ॥ ६०९ ॥
वोळंबे =वाळवी
तें काम्य कर्म सक्लेश | जाणावें येथ राजस |
आतां चिन्ह परिस | तामसाचें ॥ ६१० ॥
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५॥
(अविचारने, नाश हिंसा न पाहता ,सामर्थ्य नसता केलेले मोहग्रस्त कर्म तामस )
आतां चिन्ह परिस | तामसाचें ॥ ६१० ॥
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५॥
(अविचारने, नाश हिंसा न पाहता ,सामर्थ्य नसता केलेले मोहग्रस्त कर्म तामस )
तरी तें गा तामस कर्म | जें निंदेचें काळें धाम |
निषेधाचें जन्म | सांच जेणें ॥ ६११ ॥
जें निपजविल्यापाठीं | कांहींच न दिसे दिठी |
रेघ काढलिया पोटीं | तोयाचे जेवीं ॥ ६१२ ॥
कां कांजी घुसळलिया | कां राखोंडी फुंकलिया |
कांहीं न दिसे गाळिलिया | वाळुघाणा ॥ ६१३ ॥
नाना उपणिलिया भूंस | कां विंधिलिया आकाश |
नाना मांडिलिया पाश | वारयासी ॥ ६१४ ॥
हें आवघेंचि जैसें | वांझें होऊनि नासे |
जें केलिया पाठीं तैसें | वायांचि जाय ॥ ६१५ ॥
येऱ्हवीं नरदेहाही येवढें | धन आटणीये पडे |
जें कर्म निफजवितां मोडे | जगाचें सुख ॥ ६१६ ॥
आटणीये=वाया जाई निफजवितां=करतांना
जैसा कमळवनीं फांसु | काढिलिया कांटसु |
आपण झिजे नाशु | कमळां करी ॥ ६१७ ॥
कां आपण आंगें जळे | आणि नागवी जगाचे डोळे |
पतंगु जैसा सळें | दीपाचेनि ॥ ६१८ ॥
नागवी जगाचे डोळे =अंधार करतो सळें =स्पर्शाने
तैसें सर्वस्व वायां जावो
| वरी देहाही होय घावो |
परी पुढिलां अपावो | निफजविजे जेणें ॥ ६१९ ॥
परी पुढिलां अपावो | निफजविजे जेणें ॥ ६१९ ॥
माशी आपणयातें गिळवी | परी पुढीला वांती शिणवी |
तें कश्मळ आठवी | आचरण जें ॥ ६२० ॥
कश्मळ=पापी
तेंही करावयो दोषें | मज सामर्थ्य असे कीं नसे |
हेंहीं पुढील तैसें | न पाहतां करी ॥ ६२१ ॥
केवढा माझा उपावो | करितां कोण प्रस्तावो |
केलियाही आवो | काय येथ ॥ ६२२ ॥
उपावो=सामर्थ्य, प्रस्तावो=प्रसंग आवो=लाभ
इये जाणिवेची सोये | अविवेकाचेनि पायें |
पुसोनियां होये | साटोप कर्मीं ॥ ६२३ ॥
सोये=मार्ग साटोप=प्रवृत
आपला वसौटा जाळुनी | बिसाटे जैसा वन्ही |
कां स्वमर्यादा गिळोनि | सिंधु उठी ॥ ६२४ ॥
वसौटा =वस्ती बिसाटे=पसरे
मग नेणें बहु थोडें | न पाहे मागें पुढें |
मार्गामार्ग येकवढें | करीत चाले ॥ ६२५ ॥
तैसें कृत्याकृत्य सरकटित | आपपर नुरवित |
कर्म होय तें निश्चित | तामस जाण ॥ ६२६ ॥
ऐसी गुणत्रयभिन्ना | कर्माची गा अर्जुना |
हे केली विवंचना | उपपत्तींसीं ॥ ६२७ ॥
विवंचना=विस्तार
आतां ययाचि कर्मा भजतां | कर्माभिमानिया कर्ता |
तो जीवुही त्रिविधता | पातला असे ॥ ६२८ ॥
चतुराश्रमवशें | एकु पुरुषु चतुर्धा दिसे |
कर्तया त्रैविध्य तैसें | कर्मभेदें ॥ ६२९ ॥
तरी तयां तिहीं आंतु | सात्विक तंव प्रस्तुतु |
सांगेन दत्तचित्तु | आकर्णीं तूं ॥ ६३० ॥
by dr. vikrant tikone
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