ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ४६१ ते ५१६
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥ १८॥
ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय हे कर्मबीज असून त्यातून क्रिया करण कर्ता उत्पन्न होतात
जें ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय | हें जगाचें बीज त्रय |
ते कर्माची निःसंदेह | प्रवृत्ति जाण ॥ ४६१ ॥
आतां ययाचि गा त्रया | व्यक्ति वेगळालिया |
आइकें धनंजया | करूं रूप ॥ ४६२ ॥
व्यक्ति=स्पष्ट
तरी जीवसूर्यबिंबाचे | रश्मी श्रोत्रादिकें पांचें |
धांवोनि विषयपद्माचे | फोडिती मढ ॥ ४६३ ॥
श्रोत्रा=कान वगैरे मढ=कळ्या
कीं जीवनृपाचे वारु उपलाणें | घेऊनि इंद्रियांचीं केकाणें |
विषयदेशींचें नागवणें | आणीत जे ॥ ४६४ ॥
वारु
उपलाणें= खोगीर नसलेले घोडे
केकाणें=समुदाय नागवणें=लूट
हें असो इहीं इंद्रियीं राहाटे | जें सुखदुःखेंसीं जीवा भेटे |
तें सुषुप्तिकालीं वोहटे | जेथ ज्ञान ॥ ४६५ ॥
तया जीवा नांव ज्ञाता | आणि जें हें सांगितलें आतां |
तेंचि एथ पंडुसुता | ज्ञान जाण ॥ ४६६ ॥
जें अविद्येचिये पोटीं | उपजतखेंवो किरीटी |
आपणयातें वांटी | तिहीं ठायीं ॥ ४६७ ॥
आपुलिये धांवे पुढां | घालूनि ज्ञेयाचा गुंडा |
उभारी मागिलीकडां | ज्ञातृत्वातें ॥ ४६८ ॥
गुंडा=दगड
मग ज्ञातया ज्ञेया दोघां | तो नांदणुकेचा बगा |
माजीं जालेनि पैं गा | वाहे जेणें ॥ ४६९ ॥
बगा =प्रकार
वाहे जेणें=वागणे
ठाकूनि ज्ञेयाची शिंव | पुरे जयाची धांव |
सकळ पदार्थां नांव | सूतसे जें ॥ ४७० ॥
सूतसे=देणे
तें गा सामान्य ज्ञान | या बोला नाहीं आन |
ज्ञेयाचेंही चिन्ह | आइक आतां ॥ ४७१ ॥
तरी शब्दु स्पर्शु | रूप गंध रसु |
हा पंचविध आभासु | ज्ञेयाचा तो ॥ ४७२ ॥
जैसें एकेचि चूतफळें | इंद्रियां वेगवेगळे |
रसें वर्णें परीमळें | भेटिजे स्पर्शें ॥ ४७३ ॥
चूतफळें =आंबा
तैसें ज्ञेय तरी एकसरें | परी ज्ञान इंद्रियद्वारें |
घे म्हणौनि प्रकारें | पांचें जालें ॥ ४७४ ॥
आणि समुद्रीं वोघाचें जाणें | सरे लाणीपासीं धावणें |
कां फळीं सरे वाढणें | सस्याचें जेवीं ॥ ४७५ ॥
लाणीपासीं =शेवटचा
मुक्काम सस्याचें=पीक
तैसें इंद्रियांच्या वाहवटीं | धांवतया ज्ञाना जेथ ठी |
होय तें गा किरीटी | विषय ज्ञेय ॥ ४७६ ॥
ठी=शेवट
एवं ज्ञातया ज्ञाना ज्ञेया | तिहीं रूप केलें धनंजया |
हे त्रिविध सर्व क्रिया\- | प्रवृत्ति जाण ॥ ४७७ ॥
जे शब्दादि विषय | हें पंचविध जें ज्ञेय |
तेंचि प्रिय कां अप्रिय | एकेपरीचें ॥ ४७८ ॥
ज्ञान मोटकें ज्ञातया | दावी ना जंव धनंजया |
तंव स्वीकारा कीं त्यजावया | प्रवर्तेचि तो ॥ ४७९ ॥
परी मीनातें देखोनि बकु | जैसा निधानातें रंकु |
कां स्त्री देखोनि कामुकु | प्रवृत्ति धरी ॥ ४८० ॥
जैसें खालारां धांवे पाणी | भ्रमर पुष्पाचिये घाणीं |
नाना सुटला सांजवणीं | वत्सुचि पां ॥ ४८१ ॥
अगा स्वर्गींची उर्वशी | ऐकोनि जेंवी माणुसीं |
वराता लावीजती आकाशीं | यागांचिया ॥ ४८२ ॥
वराता =शिड्या
पैं पारिवा जैसा किरीटी | चढला नभाचिये पोटीं |
पारवी देखोनि लोटी | आंगचि सगळें ॥ ४८३ ॥
हें ना घनगर्जनासरिसा | मयूर वोवांडे आकाशा |
ज्ञाता ज्ञेय देखोनि तैसा | धांवचि घे ॥ ४८४ ॥
वोवांडे=उडायचा यत्न
म्हणौनि ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता | हे त्रिविध गा पंडुसुता |
होयचि कर्मा समस्तां | प्रवृत्ति येथ ॥ ४८५ ॥
परी तेंचि ज्ञेय विपायें | जरी ज्ञातयातें प्रिय होये |
तरी भोगावया न साहे | क्षणही विलंबु ॥ ४८६ ॥
नातरी अवचटें | तेंचि विरुद्ध होऊनि भेटे |
तरी युगांत वाटे | सांडावया ॥ ४८७ ॥
व्याळा कां हारा | वरपडा जालेया नरा |
हरिखु आणि दरारा | सरिसाचि उठी ॥ ४८८ ॥
वरपडा=प्राप्त
तैसें ज्ञेय प्रियाप्रियें | देखिलेनि ज्ञातया होये |
मग त्याग स्वीकारीं वाहे | व्यापारातें ॥ ४८९ ॥
तेथ रागी प्रतिमल्लाचा | गोसांवी सर्वदळाचा |
रथु सांडूनि पायांचा | होय जैसा ॥ ४९० ॥
रागी =आवड असलेला (प्रीत) प्रतिमल्लाचा=युद्ध
गोसांवी
=सेनापती
तैसें ज्ञातेपणें जें असे
| तें ये कर्ता ऐसिये दशे
|
जेवितें बैसलें जैसें | रंधन करूं ॥ ४९१ ॥
जेवितें बैसलें जैसें | रंधन करूं ॥ ४९१ ॥
रंधन=सैपाक करणे
कां भंवरेंचि केला मळा | वरकलुचि जाला अंकसाळा |
नाना देवो रिगाला देऊळा\- | चिया कामा ॥ ४९२ ॥
भंवरेंचि=भ्रमर (पराग सोडून मळा करत
बसला )
वरकलुचि =परिस
अंकसाळा= सोने (काही ठिकाणी सोनार हा
अर्थ आहे )
तैसा ज्ञेयाचिया हांवा | ज्ञाता इंद्रियांचा मेळावा |
राहाटवी तेथ पांडवा | कर्ता होय ॥ ४९३ ॥
आणि आपण होउनि कर्ता | ज्ञाना आणी करणता |
तेथें ज्ञेयचि स्वभावतां | कार्य होय ॥ ४९४ ॥
ऐसा ज्ञानाचिये निजगति | पालटु पडे गा सुमति |
डोळ्याची शोभा रातीं | पालटे जैसी ॥ ४९५ ॥
निजगति=करामती पालटु=बदल
दिसणारी
शोभा
कां अदृष्ट जालिया उदासु
| पालटे श्रीमंताचा विलासु
|
पुनिवेपाठीं शीतांशु | पालटे जैसा ॥ ४९६ ॥
पुनिवेपाठीं शीतांशु | पालटे जैसा ॥ ४९६ ॥
शीतांशु=चंद्र
तैसा चाळितां करणें | ज्ञाता वेष्टिजे कर्तेपणें |
तेथींचीं तियें लक्षणें | ऐक आतां ॥ ४९७ ॥
चाळितां=चाळविता करणे =इंद्रिये
तरी बुद्धि आणि मन | चित्त अहंकार हन |
हें चतुर्विध चिन्ह | अंतःकरणाचें ॥ ४९८ ॥
बाह्य त्वचा श्रवण | चक्षु रसना घ्राण |
हें पंचविध जाण | इंद्रियें गा ॥ ४९९ ॥
तेथ आंतुले तंव करणें | कर्ता कर्तव्या घे उमाणें |
मग तैं जरी जाणें | सुखा येतें ॥ ५०० ॥
उमाणें=अंदाज
तरी बाहेरीलें तियेंही | चक्षुरादिकें दाहाही |
उठौनि लवलाहीं | व्यापारा सूये ॥ ५०१ ॥
मग तो इंद्रियकदंबु | करविजे तंव राबु |
जंव कर्तव्याचा लाभु | हातासि ये ॥ ५०२ ॥
ना तें कर्तव्य जरी दुःखें | फळेल ऐसें देखे |
तो लावी त्यागमुखें | तियें दाहाही ॥ ५०३ ॥
मग फिटे दुःखाचा ठावो | तंव राहाटवी रात्रिदिवो |
विकणवातें कां रावो | जयापरी ॥ ५०४ ॥
विकणवातें= शेतसारा न भरणारा शेतकरी (दासाला)
तैसेनि त्याग स्वीकारीं
| वाहातां इंद्रियांची धुरी
|
ज्ञातयातें अवधारीं | कर्ता म्हणिपे ॥ ५०५ ॥
ज्ञातयातें अवधारीं | कर्ता म्हणिपे ॥ ५०५ ॥
धुरी=चलनवलण
आणि कर्तयाच्या सर्व कर्मीं | आउतांचिया परी क्षमी |
म्हणौनि इंद्रियांतें आम्ही | करणें म्हणों ॥ ५०६ ॥
क्षमी=राबवतो
आणि हेचि करणेंवरी | कर्ता क्रिया ज्या
उभारी |
तिया व्यापे तें अवधारीं | कर्म एथ ॥ ५०७ ॥
तिया व्यापे तें अवधारीं | कर्म एथ ॥ ५०७ ॥
सोनाराचिया बुद्धि लेणें | व्यापे चंद्रकरीं चांदणें |
कां व्यापे वेल्हाळपणें | वेली जैसी ॥ ५०८ ॥
वेल्हाळपणें= विस्तार
नाना प्रभा व्यापे प्रकाशु | गोडिया इक्षुरसु |
हें असो अवकाशु | आकाशीं जैसा ॥ ५०९ ॥
तैसें कर्तयाचिया क्रिया | व्यापलें जें धनंजया |
तें कर्म गा बोलावया | आन नाहीं ॥ ५१० ॥
एवं कर्म कर्ता करण | या तिहींचेंही लक्षण |
सांगितलें तुज विचक्षण\- | शिरोमणी ॥ ५११ ॥
एथ ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय | हें कर्माचें प्रवृत्तित्रय |
तैसेंचि कर्ता करण कार्य | हा कर्मसंचयो ॥ ५१२ ॥
वन्हीं ठेविला असे धूमु | आथी बीजीं जेवीं द्रुमु |
कां मनीं जोडे कामु | सदा जैसा ॥ ५१३ ॥
द्रुमु=वृक्ष
तैसा कर्ता क्रिया करणीं | कर्माचें आहे जिंतवणीं |
सोनें जैसें खाणी | सुवर्णाचिये ॥ ५१४ ॥
जिंतवणीं =जीवन जिव्हाळा
म्हणौनि हें कार्य मी कर्ता | ऐसें आथि जेथ पंडुसुता |
तेथ आत्मा दूरी समस्ता | क्रियांपासीं ॥ ५१५ ॥
यालागीं पुढतपुढती | आत्मा वेगळाचि सुमती |
आतां असो हे किती | जाणतासि तूं ॥ ५१६ ॥
by dr. vikrant tikone
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