ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा
/ संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ६३१ ते ६८९
त्रिविध
कर्ता
मुक्तसण्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥ २६॥
(निसंग,निरहंकारी,धैर्यवान, उत्साही, सिद्ध असाध्यी निर्विकार, कर्ता सात्विक )
तरी फळोद्देशें सांडिलिया | वाढती जेवीं सरळिया |
शाखा कां चंदनाचिया | बावन्नया ॥ ६३१ ॥
बावन्नया = उत्तम
कां न फळतांही, सार्थका | जैसिया नागलतिका |
तैसिया करी नित्यादिकां | क्रिया जो कां ॥ ६३२ ॥
परी फळशून्यता | नाहीं तया विफळता |
पैं फळासीचि पंडुसुता | फळें कायिसी | ॥ ६३३ ॥
आणि आदरें करी बहुवसें | परी कर्ता मी हें नुमसे |
वर्षाकाळींचें जैसें | मेघवृंद ॥ ६३४ ॥
नुमसे=न समजणे
तेवींचि परमात्मलिंगा | समर्पावयाजोगा |
कर्मकलापु पैं गा | निपजावया ॥ ६३५ ॥
तया काळातें नुलंघणें | देशशुद्धिही साधणें |
कां शास्त्रांच्या वातीं पाहणें | क्रियानिर्णयो ॥ ६३६ ॥
वातीं=दिवा
वृत्ति करणें येकवळा | चित्त जावों न देणें फळा |
नियमांचिया सांखळा | वाहणें सदा ॥ ६३७ ॥
येकवळा =एकचित्त सांखळा=बंधनात
हा निरोधु साहावयालागीं
| धैर्याचिया चांगचांगीं |
चिंतवणी जिती आंगीं | वाहे जो कां ॥ ६३८ ॥
चिंतवणी जिती आंगीं | वाहे जो कां ॥ ६३८ ॥
चांगचांगीं=बाणवण्याची चिंतवणी=चिंता
जिती =जागरूक
आणि आत्मयाचिये आवडी | कर्में करितां वरपडीं |
देहसुखाचिये परवडीं | येवों न लाहे ॥ ६३९ ॥
वरपडीं =प्राप्त परवडीं =रित प्रकार
आळसा निद्रा दुऱ्हावे | क्षुधा न बाणवे |
सुरवाडु न पावे | आंगाचा ठावो ॥ ६४० ॥
सुरवाडु न पावे | आंगाचा ठावो ॥ ६४० ॥
सुरवाडु=सुख आनंद
तंव अधिकाधिक | उत्साहो धरी आगळीक |
सोनें जैसें पुटीं तुक | तुटलिया कसीं ॥ ६४१ ॥
तुक=वजन तुटलिया=कमी होणे पण
कस वाढतो
जरी आवडी आथी साच | तरी जीवितही सलंच |
आगीं घालितां रोमांच | देखिजती सतिये | ॥ ६४२ ॥
सलंच =लाजिरवणे दुखद रोमांच=आनंदाने केस उभे राहणे
मा आत्मया येवढीया प्रिया | वालभेला जो धनंजया |
देहही सिदतां तया | काय खेदु होईल ? ॥ ६४३ ॥
सिदतां =कष्टता
म्हणौनि विषयसुरवाडु तुटे
| जंव जंव देहबुद्धि आटे |
तंव तंव आनंदु दुणवटे | कर्मीं जया ॥ ६४४ ॥
तंव तंव आनंदु दुणवटे | कर्मीं जया ॥ ६४४ ॥
ऐसेनि जो कर्म करी | आणि कोणे एके अवसरीं |
तें ठाके ऐसी परी | वाहे जरी ॥ ६४५ ॥
ठाके=थांबते बंद पडते वाहे=प्रसंग घडतो
तरी कडाडीं लोटला गाडा | तो आपणपें न मनी अवघडा |
तैसा ठाकलेनिही थोडा | नोहे जो कां ॥ ६४६ ॥
कड्यावरून पडलेला गाडा
वाईट वाटून घेत नाही
कर्म बंद पडले तरी उदास होत नाही
नातरी आदरिलें | अव्यंग सिद्धी गेलें |
तरी तेंही जिंतिलें | मिरवूं नेणें ॥ ६४७ ॥
इया खुणा कर्म करितां | देखिजे जो पंडुसुता |
तयातें म्हणिपे तत्त्वतां | सात्विकु कर्ता ॥ ६४८ ॥
आतां राजसा कर्तेया | वोळखणें हें धनंजया |
जे अभिलाषा जगाचिया | वसौटा तो ॥ ६४९ ॥
वसौटा=आश्रय स्थान
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥ २७॥
(आसक्त ,कर्म फळ कामी लोभी हिंसक अस्वच्छ हर्ष शोक व्याप्त कर्ता तो राजस)
जैसा गावींचिया कश्मळा | उकरडा होय येकवळा |
कां स्मशानीं अमंगळा | आघवयांची ॥ ६५० ॥
कश्मळा=कचरा येकवळा=एकत्रित
तया परी जो अशेषा | विश्वाचिया अभिलाषा |
पायपाखाळणिया दोषां | घरटा जाला ॥ ६५१ ॥
अशेषा=अवघ्या पायपाखाळणिया=पाय धुण्याची जागा, मोरी
म्हणौनि फळाचा लागु | देखे जिये असलगु |
तिये कर्मीं चांगु | रोहो मांडी ॥ ६५२ ॥
असलगु=सोपे रोहो=आरंभ
आणि आपण जालिये जोडी | उपखों नेदी कवडी |
क्षणक्षणा कुरोंडी | जीवाची करी ॥ ६५३ ॥
जालिये
जोडी=साठवलेले उपखों=खर्च
कुरोंडी=वोवळून टाकणे
कृपणु चित्तीं ठेवा आपुला | तैसा दक्षु पराविया माला |
बकु जैसा खुतला | मासेयासी ॥ ६५४ ॥
खुतला=गुंतला
आणि गोंवी गेलिया जवळी | झगटलिया अंग फाळी |
फळें तरी आंतु पोळी | बोरांटी जैसी ॥ ६५५ ॥
अंग
फाळी=अंग ओरबडतो पोळी=चटका देतात (आंबटपणा)
तैसें मनें वाचा कायें | भलतया दुःख देतु जाये |
स्वार्थु साधितां न पाहे | पराचें हित ॥ ६५६ ॥
तेवींचि आंगें कर्मीं | आचरणें नोहे क्षमी |
न निघे मनोधर्मीं | अरोचकु ॥ ६५७ ॥
नोहे
क्षमी =सामर्थ्य बळ
अरोचकु=न आवडणारा
कनकाचिया फळा | आंतु माज बाहेरी मौळा |
तैसा सबाह्य दुबळा | शुचित्वें जो ॥ ६५८ ॥
कनकाचिया=धोतरा माज =नशा मौळा=काटे
आणि कर्मजात केलिया | फळ लाहे जरी धनंजया |
तरी हरिखें जगा यया | वांकुलिया वाये ॥ ६५९ ॥
अथवा जें आदरिलें | हीनफळ होय केलें |
तरीं शोकें तेणें जिंतिलें | धिक्कारों लागे ॥ ६६० ॥
हीनफळ=असफल जिंतिलें=शोकाणे व्यापून
कर्मीं राहाटी ऐसी | जयातें होती देखसी |
तोचि जाण त्रिशुद्धीसी | राजस कर्ता ॥ ६६१ ॥
त्रिशुद्धीसी=निश्चित
आतां यया पाठीं येरु | जो कुकर्माचा आगरु |
तोही करूं गोचरु | तामस कर्ता ॥ ६६२ ॥
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥ २८॥
(चंचल अडाणी ताठ थक बुडव्या आळशी सदा खिन्न चेंगट कर्ता तामस )
तरी मियां लागलिया कैसें | पुढील जळत असे |
हें नेणिजे हुताशें | जियापरी ॥ ६६३ ॥
पैं शस्त्रें मियां तिखटें | नेणिजे कैसेनि निवटे |
कां नेणिजे काळकूटें | आपुलें केलें ॥ ६६४ ॥
निवटे=मारणे
तैसा पुढीलया आपुलया | घातु करीत धनंजया |
आदरी वोखटिया | क्रिया जो कां ॥ ६६५ ॥
वोखटिया=वाईट
तिया करितांही वेळीं | काय जालें हें न सांभाळी |
चळला वायु वाहटुळी | चेष्टे तैसा ॥ ६६६ ॥
सांभाळी=लक्ष देणे
पैं करणिया आणि जया | मेळु नाहीं धनंजया |
तो पाहुनी पिसेया | कैंचीं त्राय ? ॥ ६६७ ॥
करणी व हेतु यात मेळ नसलेला
त्राय=हार जाने (पासंगाला न पुरणे )
आणि इंद्रियांचें वोगरिलें | चरोनि राखे जो जियालें |
बैलातळीं लागलें | गोचिड जैसें ॥ ६६८ ॥
वोगरिलें=वाढले समोर ठेवले
हांसया रुदना वेळु | नेणतां आदरी बाळु |
राहाटे उच्छृंखळु | तयापरी ॥ ६६९ ॥
उच्छृंखळु=बेताल
जो प्रकृती आंतलेपणें | कृत्याकृत्यस्वादु नेणे |
फुगे केरें धालेपणें | उकरडा जैसा ॥ ६७० ॥
आंतलेपणें=आधीन
म्हणौनि मान्याचेनि नांवें | ईश्वराही परी न खालवे |
स्तब्धपणें न मनवे | डोंगरासी ॥ ६७१ ॥
न खालवे=नमन करीत नाही
आणि मन जयाचें विषकल्लोळीं | राहाटी फुडी चोरिली |
दिठी कीर ते वोली | पण्यांगनेची ॥ ६७२ ॥
राहाटी =वागणूक फुडी=खरोखर चोरटी
वोली पण्यांगनेची=प्रेम युक्त व्येश्येची
किंबहुना कपटाचें | देहचि वळिलें तयाचें |
तें जिणें कीं जुंवाराचें | टिटेघर ॥ ६७३ ॥
वळिलें=बनले टिटेघर=तिठ्यावरील जुगार घर
नोहे तयाचा प्रादुर्भावो | तो साभिलाष भिल्लांचा गांवो |
म्हणौनि नये येवों जावों | तया वाटा ॥ ६७४ ॥
आणि आणिकांचें निकें केलें | विरु होय जया आलें |
जैसें अपेय, पया मिनलें | लवण करी ॥ ६७५ ॥
निकें=भले विरु=वैर अपेय=पिण्यास अयोग्य लवण=मीठ
पया=दूध
कां हींव ऐसा पदार्थु | घातलिया आगीआंतु |
तेचि क्षणीं धडाडितु | अग्नि होय ॥ ६७६ ॥
नाना सुद्रव्यें गोमटीं | जालिया शरीरीं पैठीं |
होऊनि ठाती किरीटी | मळुचि जेवीं ॥ ६७७ ॥
शरीरावर
सुंदर द्रव्ये लावली तरी अंती त्यांचा देहावरील मळ च होणार
तैसें पुढिलाचें बरवें | जयाच्या भीतरीं पावे |
आणि विरुद्धचि आघवें | होऊनि निगे ॥ ६७८ ॥
जो गुण घे, दे दोख | अमृताचें करी विख |
दूध पाजलिया देख | व्याळु जैसा ॥ ६७९ ॥
आणि ऐहिकीं जियावें | जेणें परत्रा साच यावें |
तें उचित कृत्य पावे | अवसरीं जिये ॥ ६८० ॥
तेव्हां जया आपैसी | निद्रा ये ठेविली ऐसी |
दुर्व्यवहारीं जैसी | विटाळें लोटे ॥ ६८१ ॥
आपैसी | निद्रा ये=सहजच झोप येते
जैसी | विटाळें लोटे=तीच दुरव्यवहार करतांना
विटाळ
झाल्या सारखी दूर जाते
पैं द्राक्षरसा आम्ररसा | वेळे तोंड सडे वायसा |
कां डोळे फुटती दिवसा | डुडुळाचे ॥ ६८२ ॥
वायसा=कावळा
तैसा कल्याणकाळु पाहे | तैं तयातें आळसु खाये |
ना प्रमादीं तरी होये | तो म्हणे तैसें ॥ ६८३ ॥
प्रमादीं= वाईट करतेवेळी
न म्हणत नाही
जेवींचि सागराच्या पोटीं | जळे अखंड आगिठी |
तैसा विषादु वाहे गांठीं | जिवाचिये जो ॥ ६८४ ॥
लेंडोराआगीं धूमावधि | कां अपाना आंगीं दुर्गंधि |
तैसा जो जीवितावधि | विषादें केला ॥ ६८५ ॥
आणि कल्पांताचिया पारा | वेगळेंही जो वीरा |
सूत्र धरी व्यापारा | साभिलाषा ॥ ६८६ ॥
पारा | वेगळेंही=पलीकडील वेळे नंतर ही
अगा जगाही परौती | शुचा वाहे पैं चित्तीं |
करितां विषीं हातीं | तृणही न लगे ॥ ६८७ ॥
शुचा =चिंता विषीं= या विषयी
ऐसा जो लोकाआंतु | पापपुंजु मूर्तु |
देखसी तो अव्याहतु | तामसु कर्ता ॥ ६८८ ॥
एवं कर्म कर्ता ज्ञान | या तिहींचें त्रिधा चिन्ह |
दाविलें तुज सुजन | चक्रवर्ती ॥ ६८९ ॥
by dr. vikrant tikone
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