ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ५१७ते ५४८
ज्ञानं कर्म च कर्ताच त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसण्ख्याने यथावच्छृणु
तान्यपि ॥ १९॥
(ज्ञान कर्म कर्ता यात त्रिविध भेद असती कसे ते गुण तत्वज्ञ वर्णीती)
परी सांगितलें जें ज्ञान | कर्म कर्ता हन |
ते तिन्ही तिहीं ठायीं भिन्न | गुणीं आहाती ॥ ५१७ ॥
म्हणौनि ज्ञाना कर्मा कर्तया | पातेजों नये धनंजया |
जे
दोनी बांधती सोडावया | एकचि प्रौढ ॥ ५१८ ॥
पातेजों नये =विश्वास
ठेवणे जे दोनी= रज, तम
प्रौढ=समर्थ
तें सात्विक ठाऊवें होये | तो गुणभेदु सांगों पाहे |
जो सांख्यशास्त्रीं आहे | उवाइला ॥ ५१९ ॥
ठाऊवें होये=लक्षात
घे, ठेव उवाइला= विस्तारला
(सांगितला)
जें विचारक्षीरसमुद्र | स्वबोधकुमुदिनीचंद्र |
ज्ञानडोळसां नरेंद्र | शास्त्रांचा जें ॥ ५२० ॥
स्वबोधकुमुदिनी=स्वबोध
रूपी कमळाचा चंद्र
ज्ञानडोळसां =ज्ञान
देणार्या नरेंद्र=राजा
कीं प्रकृतिपुरुष दोनी | मिसळलीं दिवोरजनीं |
तियें निवडितां त्रिभुवनीं | मार्तंडु जें ॥ ५२१ ॥
मार्तंडु=सूर्य
जेथ अपारा मोहराशी | तत्वाच्या मापीं चोविसीं |
उगाणा घेऊनि परेशीं | सुरवाडिजे ॥ ५२२ ॥
मापीं=मोजणे
(24 तत्वांनी)
उगाणा घेऊनि =झाडा घेवून परेशीं=परमात्मा
सुरवाडिजे=आनंद घेणे
उपभोगणे
अर्जुना
तें सांख्यशास्त्र | पढे जयाचें स्तोत्र |
तें गुणभेदचरित्र | ऐसें आहे ॥ ५२३ ॥
स्तोत्र=वर्णन
जे आपुलेनि आंगिकें | त्रिविधपणाचेनि अंकें |
दृश्यजात तितुकें | अंकित केलें ॥ ५२४ ॥
अंकें=चिन्हांनी
एवं सत्वरजतमा | तिहींची एवढी असे महिमा |
जें त्रैविध्य आदी ब्रह्मा | अंतीं कृमी ॥ ५२५ ॥
परी विश्वींची आघवी मांदी | जेणें भेदलेनि गुणभेदीं |
पडिली, तें तंव आदी | ज्ञान सांगो ॥ ५२६ ॥
मांदी=समुदाय
जे दिठी जरी चोख कीजे | तरी भलतेंही चोख सुजे |
तैसें ज्ञानें शुद्धें लाहिजे | सर्वही शुद्ध ॥ ५२७ ॥
म्हणौनि तें सात्विक ज्ञान | आतां सांगों दे अवधान |
कैवल्यगुणनिधान | श्रीकृष्ण म्हणे ॥ ५२८ ॥
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ञानं विद्धि
सात्त्विकम् ॥ २०॥
(सर्व
भुतात एक भाव पाहतो ,विभक्त झालेल्यात
अभिन्नत्व ते ज्ञान जाण सात्विक )
तरी अर्जुना गा तें फुडें | सात्विक ज्ञान चोखडें |
जयाच्या उदयीं ज्ञेय बुडे | ज्ञातेनिसीं ॥ ५२९ ॥
फुडें=स्पष्ट
जैसा सूर्य न देखे अंधारें | सरिता नेणिजती सागरें |
कां कवळिलिया न धरे | आत्मछाया ॥ ५३० ॥
नेणिजती =सरितांचे सागरातील वेगळेपण कळत नाही
तयापरी जया ज्ञाना | शिवादि तृणावसाना |
इया भूतव्यक्ति भिन्ना | नाडळती ॥ ५३१ ॥
तृणावसाना= गवता
पर्यन्त
जैसें हातें चित्र पाहातां | होय पाणियें मीठ धुतां |
कां चेवोनि स्वप्ना येतां | जैसें होय ॥ ५३२ ॥
हातें = हाताने
(पुसले जाते )
तैसें ज्ञानें जेणें | करितां ज्ञातव्यातें पाहाणें |
जाणता ना जाणणें | जाणावें उरे ॥ ५३३ ॥
ज्ञातव्यातें=ज्ञेय
ज्ञानाने (ज्ञाता न राहता )
ज्ञेय पहिले असता
पैं सोनें आटूनि लेणीं | न काढिती आपुलिया आयणी |
कां तरंग न घेपती पाणी | गाळूनि जैसें ॥ ५३४ ॥
आयणी=बुद्धी
तैसी जया ज्ञानाचिया हाता | न लगेचि दृश्यपथा |
तें ज्ञान जाण सर्वथा | सात्विक गा ॥ ५३५ ॥
दृश्यपथा=दिसणारे
पथ (भेद भावना)
आरिसा पाहों जातां कोडें | जैसें पाहातेंचि कां रिगे पुढें |
तैसें ज्ञेय लोटोनि पडे | ज्ञाताचि जें ॥ ५३६ ॥
पुढती तेंचि सात्विक ज्ञान | जें मोक्षलक्ष्मीचें भुवन |
हें असो ऐक चिन्ह | राजसाचें ॥ ५३७ ॥
पृथक्त्वेन तु यज्ञानं
नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु
तज्ञानं विद्धि राजसम् ॥ २१॥
तरी पार्था परीयेस | तें ज्ञान गा राजस |
जें भेदाची कांस | धरूनि चाले ॥ ५३८ ॥
विचित्रता भूतांचिया | आपण आंतोनि ठिकरिया |
बहु चकै ज्ञातया | आणिली जेणें ॥ ५३९ ॥
विचित्रता=विविधता
भिन्नत्व
आंतोनि ठिकरिया =होवून शतखंड
चकै=भ्रमात पडणे
जैसें साचा रूपाआड | घालूनि विसराचें कवाड |
मग स्वप्नाचें काबाड | ओपी निद्रा ॥ ५४० ॥
काबाड=कष्ट ओपी=(विकणे) भोगवणे
तैसें स्वज्ञानाचिये पौळी | बाहेरि, मिथ्या महीं खळीं |
तिहीं अवस्थांचिया वह्याळी | दावी जें जीवा ॥ ५४१ ॥
पौळी=कोट विस्तार
महीं खळीं=जमीन प्रांगण
वह्याळी=खेळ
अलंकारपणें झांकलें | बाळा सोनें कां वायां गेलें |
तैसें नामीं रूपीं दुरावलें | अद्वैत जया ॥ ५४२ ॥
अवतरली गाडग्यां घडां | पृथ्वी अनोळख जाली मूढां |
वन्हि जाला कानडा | दीपत्वासाठीं ॥ ५४३ ॥
कानडा=कळण्यास
कठीण
कां वस्त्रपणाचेनि आरोपें | मूर्खाप्रति तंतु हारपे |
नाना मुग्धा पटु लोपे | दाऊनि चित्र ॥ ५४४ ॥
तैशी जया ज्ञाना | जाणोनि भूतव्यक्ती भिन्ना |
ऐक्यबोधाची भावना | निमोनि गेली ॥ ५४५ ॥
मग इंधनीं भेदला अनळु | फुलांवरी परीमळु |
कां जळभेदें शकलु | चंद्रु जैसा ॥ ५४६ ॥
अनळु=अग्नि शकलु=अनेक तुकडे
तैसें पदार्थभेद बहुवस | जाणोनि लहानथोर वेष |
आंतलें तें राजस | ज्ञान येथ ॥ ५४७ ॥
आतां तामसाचेंही लिंग | सांगेन तें वोळख चांग |
डावलावया मातंग\- | सदन जैसें ॥ ५४८ ॥
लिंग=खूणा
by dr. vikrant tikone
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