Tuesday, January 8, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा, ओव्या ५१७ते ५४८




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ५१७ते ५४८


ज्ञानं कर्म च कर्ताच त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसण्‌ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥ १९॥


(ज्ञान कर्म कर्ता यात त्रिविध भेद असती कसे ते गुण तत्वज्ञ वर्णीती)



परी सांगितलें जें ज्ञान | कर्म कर्ता हन |
ते तिन्ही तिहीं ठायीं भिन्न | गुणीं आहाती ॥ ५१७ ॥


म्हणौनि ज्ञाना कर्मा कर्तया | पातेजों नये धनंजया |

जे दोनी बांधती सोडावया | एकचि प्रौढ ॥ ५१८ ॥

 

पातेजों नये =विश्वास ठेवणे     जे दोनी= रज, तम

प्रौढ=समर्थ


तें सात्विक ठाऊवें होये | तो गुणभेदु सांगों पाहे |
जो सांख्यशास्त्रीं आहे | उवाइला ॥ ५१९ ॥

ठाऊवें होये=लक्षात घे, ठेव    उवाइला= विस्तारला (सांगितला)


जें विचारक्षीरसमुद्र | स्वबोधकुमुदिनीचंद्र |
ज्ञानडोळसां नरेंद्र | शास्त्रांचा जें ॥ ५२० ॥

स्वबोधकुमुदिनी=स्वबोध रूपी कमळाचा चंद्र

ज्ञानडोळसां =ज्ञान देणार्‍या    नरेंद्र=राजा


कीं प्रकृतिपुरुष दोनी | मिसळलीं दिवोरजनीं |
तियें निवडितां त्रिभुवनीं | मार्तंडु जें ॥ ५२१ ॥

मार्तंडु=सूर्य


जेथ अपारा मोहराशी | तत्वाच्या मापीं चोविसीं |
उगाणा घेऊनि परेशीं | सुरवाडिजे ॥ ५२२ ॥


मापीं=मोजणे (24 तत्वांनी)

उगाणा घेऊनि =झाडा घेवून परेशीं=परमात्मा

सुरवाडिजे=आनंद घेणे उपभोगणे

 

अर्जुना तें सांख्यशास्त्र | पढे जयाचें स्तोत्र |
तें गुणभेदचरित्र | ऐसें आहे ॥ ५२३ ॥

 

स्तोत्र=वर्णन


जे आपुलेनि आंगिकें | त्रिविधपणाचेनि अंकें |
दृश्यजात तितुकें | अंकित केलें ॥ ५२४ ॥

 

अंकें=चिन्हांनी


एवं सत्वरजतमा | तिहींची एवढी असे महिमा |
जें त्रैविध्य आदी ब्रह्मा | अंतीं कृमी ॥ ५२५ ॥


परी विश्वींची आघवी मांदी | जेणें भेदलेनि गुणभेदीं |
पडिली, तें तंव आदी | ज्ञान सांगो ॥ ५२६ ॥

 

मांदी=समुदाय


जे दिठी जरी चोख कीजे | तरी भलतेंही चोख सुजे |
तैसें ज्ञानें शुद्धें लाहिजे | सर्वही शुद्ध ॥ ५२७ ॥


म्हणौनि तें सात्विक ज्ञान | आतां सांगों दे अवधान |
कैवल्यगुणनिधान | श्रीकृष्ण म्हणे ॥ ५२८ ॥


सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ २०॥

 

(सर्व भुतात एक भाव पाहतो ,विभक्त झालेल्यात अभिन्नत्व ते ज्ञान जाण सात्विक )


तरी अर्जुना गा तें फुडें | सात्विक ज्ञान चोखडें |
जयाच्या उदयीं ज्ञेय बुडे | ज्ञातेनिसीं ॥ ५२९ ॥

 

फुडें=स्पष्ट


जैसा सूर्य न देखे अंधारें | सरिता नेणिजती सागरें |
कां कवळिलिया न धरे | आत्मछाया ॥ ५३० ॥

नेणिजती =सरितांचे सागरातील वेगळेपण कळत नाही


तयापरी जया ज्ञाना | शिवादि तृणावसाना |
इया भूतव्यक्ति भिन्ना | नाडळती ॥ ५३१ ॥

तृणावसाना= गवता पर्यन्त   


जैसें हातें चित्र पाहातां | होय पाणियें मीठ धुतां |
कां चेवोनि स्वप्ना येतां | जैसें होय ॥ ५३२ ॥

हातें = हाताने (पुसले जाते )


तैसें ज्ञानें जेणें | करितां ज्ञातव्यातें पाहाणें |
जाणता ना जाणणें | जाणावें उरे ॥ ५३३ ॥


ज्ञातव्यातें=ज्ञेय

ज्ञानाने (ज्ञाता न राहता ) ज्ञेय पहिले असता

पैं सोनें आटूनि लेणीं | न काढिती आपुलिया आयणी |
कां तरंग न घेपती पाणी | गाळूनि जैसें ॥ ५३४ ॥

आयणी=बुद्धी


तैसी जया ज्ञानाचिया हाता | न लगेचि दृश्यपथा |
तें ज्ञान जाण सर्वथा | सात्विक गा ॥ ५३५ ॥

दृश्यपथा=दिसणारे पथ  (भेद भावना)


आरिसा पाहों जातां कोडें | जैसें पाहातेंचि कां रिगे पुढें |
तैसें ज्ञेय लोटोनि पडे | ज्ञाताचि जें ॥ ५३६ ॥


पुढती तेंचि सात्विक ज्ञान | जें मोक्षलक्ष्मीचें भुवन |
हें असो ऐक चिन्ह | राजसाचें ॥ ५३७ ॥


पृथक्त्वेन तु यज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ञानं विद्धि राजसम् ॥ २१॥


तरी पार्था परीयेस | तें ज्ञान गा राजस |
जें भेदाची कांस | धरूनि चाले ॥ ५३८ ॥


विचित्रता भूतांचिया | आपण आंतोनि ठिकरिया |
बहु चकै ज्ञातया | आणिली जेणें ॥ ५३९ ॥

विचित्रता=विविधता भिन्नत्व

आंतोनि ठिकरिया =होवून शतखंड

चकै=भ्रमात पडणे


जैसें साचा रूपाआड | घालूनि विसराचें कवाड |
मग स्वप्नाचें काबाड | ओपी निद्रा ॥ ५४० ॥

 

काबाड=कष्ट  ओपी=(विकणे) भोगवणे


तैसें स्वज्ञानाचिये पौळी | बाहेरि, मिथ्या महीं खळीं |
तिहीं अवस्थांचिया वह्याळी | दावी जें जीवा ॥ ५४१ ॥

 

पौळी=कोट विस्तार    महीं खळीं=जमीन प्रांगण

वह्याळी=खेळ


अलंकारपणें झांकलें | बाळा सोनें कां वायां गेलें |
तैसें नामीं रूपीं दुरावलें | अद्वैत जया ॥ ५४२ ॥


अवतरली गाडग्यां घडां | पृथ्वी अनोळख जाली मूढां |
वन्हि जाला कानडा | दीपत्वासाठीं ॥ ५४३ ॥

 

कानडा=कळण्यास कठीण


कां वस्त्रपणाचेनि आरोपें | मूर्खाप्रति तंतु हारपे |
नाना मुग्धा पटु लोपे | दाऊनि चित्र ॥ ५४४ ॥


तैशी जया ज्ञाना | जाणोनि भूतव्यक्ती भिन्ना |
ऐक्यबोधाची भावना | निमोनि गेली ॥ ५४५ ॥


मग इंधनीं भेदला अनळु | फुलांवरी परीमळु |
कां जळभेदें शकलु | चंद्रु जैसा ॥ ५४६ ॥

 

अनळु=अग्नि   शकलु=अनेक तुकडे


तैसें पदार्थभेद बहुवस | जाणोनि लहानथोर वेष |
आंतलें तें राजस | ज्ञान येथ ॥ ५४७ ॥


आतां तामसाचेंही लिंग | सांगेन तें वोळख चांग |
डावलावया मातंग\- | सदन जैसें ॥ ५४८ ॥

लिंग=खूणा  

 


by dr. vikrant tikone

 

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